सबरीमाला केस : किस परंपरा का हवाला !

Last Updated 20 Feb 2020 07:13:05 AM IST

मार्च 20, 1927 को अर्थात आज से करीब सौ साल पहले जब बाबा साहब आम्बेडकर ने चवदार तालाब का पानी पीकर जिस बड़ी प्रतीकात्मक लड़ाई में जीत हासिल की उसका अगला ही कदम वहां स्थित वीरेर मन्दिर में दलितों का प्रवेश था या नहीं, यह साफ न था।


सबरीमाला केस : किस परंपरा का हवाला !

पर कोरेगांव में हुए जलसे, महाड़ नगर परिषद के फैसले के बाद चवदार तालाब से पानी पीने की घटना के बाद दलित नौजवानों का जैसा उत्साह था, उसमें  यह लक्ष्य पाना कोई मुश्किल न था। अब दलितों की तरफ से तैयारी का कोई प्रमाण नहीं मिलता लेकिन सनातनी वृत्ति के स्पृश्यों का दिमाग जरूर खराब हुआ।
उन्होंने तालाब के बाद मन्दिर भी ‘हाथ से जाने’ की अफवाह के सहारे न सिर्फ  आसपास के काफी स्पृश्यों को जुटा लिया बल्कि वहां मौजूद दलित स्त्री-पुरु षों, जो खा पी और घूम फिर रहे थे, पर हमला किया, उनका सिर फोड़ा।  दंगे जैसे हालात हो गए। उत्साह से भरे दलित नौजवान भी जवाब देने को तैयार थे। जब अधिकारी बाबा साहब के पास गए तो उन्होंने कहा कि आप दूसरों को संभालो, हम अपने लोगों को संभाल लेंगे।  बाबा साहब ने गुस्से से उबल रहे अपने लोगों को सचमुच संभाला और उस दिन कोई बड़ा कांड होते-होते बचा। ऐसी हिंसा कहां ले जाती इसका अनुमान मुश्किल नहीं है, लेकिन चवदार तालाब से पानी पीने के प्रतीकात्मक विरोध ने (उल्लेखनीय है कि इससे पहले हुई बैठक में दलितों को खरीदकर बीस रुपये का पानी पीना पड़ा था) दलितों के जीवन और आगे बढ़ने के आंदोलन में क्या भूमिका निभाई और किस तरह दस साल नहीं लगे और देश के अधिकांश मन्दिरों के दरवाजे दलितों के लिए खुल गए। यह मुहिम गांधी की थी, जिन्होंने 1933 और 1934 में लगभग बीस हजार किमी. की यात्रा करके दलितों, जिन्हें वे हरिजन कहते थे, के मन्दिर प्रवेश का आंदोलन चलाया था और इसी स्पृश्य हिंदू समाज ने ऐसा आचरण किया जैसे गांधी उसके सीने पर सदियों से पड़े किसी बोझ को उतार रहे हों।

गांधी का भी विरोध हुआ, बनारस और देवघर में उनके ऊपर पथराव हुआ, पुणो में गोली चली और ओडिसा में पंडों ने उत्पात किया। लेकिन सात साल बाद ही गांधी को रु कने या अपने लोगों को रोकने की जरूरत महसूस नहीं हुई। अहिंसा गांधी का उसूल थी लेकिन उन्होंने पंडितों/सनातनियों को शास्त्रार्थ में भी पराजित किया था।  गांधी की मुहिम तब के मध्य प्रांत में खूब सफल रही थी  पर सभी मन्दिरों के दरवाजे सभी के लिए खुलें, यह दिन गांधी ने भी अपने जीवन में पूरा नहीं देखा।  काशी विनाथ मन्दिर के द्वार राजनारायण जैसे लोगों ने खुलवाए तो सबरीमाला का मामला अब तक खिंच रहा है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि लाख आंदोलन और एक बार सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ जाने के बावजूद इस मन्दिर में प्रजनन की उम्र वाली महिलाओं के दर्शन करने का सवाल अटका ही हुआ है। जाहिर है कि यह अकेला मामला भी नहीं है पर जिस तर्क पर इस मन्दिर या कुछ समय पहले शनि शिंगणापुर में महिलाओं या अनेक जगह दलितों का प्रवेश रोका हुआ है, या था वह काफी सारे मन्दिरों पर लागू है। 
अगर आप एक ईर में आस्था रखते हैं  तो खास जाति, लिंग, ड्रेस, उम्र वगैरह के आधार पर भेदभाव जारी रखना किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता। और बाबा साहब या गांधी के योगदान को तो नहीं ही भूलना होगा, सती या दहेज जैसी कुप्रथाओं को रोकने में अदालतों की भूमिका को भी नहीं भुलाया जा सकता। सबरीमाला मामले में भी तब के मुख्य न्यायाधीश  दीपक मिश्र की अगुवाई वाले बेंच ने ऐतिहासिक फैसला दिया था, लेकिन उसके बावजूद केंद्र सरकार ने उसे चुनौती दी और भाजपा से ही जुड़े लोगों ने नहीं, लगभग सभी राजनैतिक दलों ने प्रतिबंधों के लिए हंगामा किया।  माकपा ने शुरू में सख्ती से अदालत का आदेश लागू कराने का प्रयास किया पर खुद को अलग-थलग महसूस करने पर कदम खींच लिए। अब अदालती लड़ाई में केंद्र के वकील सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता बिल्कुल नई दलील लेकर हाजिर  हुए हैं। उनका तर्क है कि मन्दिर प्रवेश का किसी व्यक्ति का अधिकार (अनुच्छेद 26) एकदम ‘निर्बाध’ नहीं है। उनका दूसरा तर्क है कि हिंदू धर्म बहुलतावादी है, बहुत सारी परंपराओं और नौ जजों की यह बेंच उन सबको दरकिनार करती हुई कोई आदेश पारित नहीं कर सकती। अच्छा तर्क है लेकिन हिंदू धर्म के इस स्वरूप को भाजपा कब से मानने लगी है?  राम मन्दिर समेत हर मामले में वह तो इस्लाम या ईसाइयत की तरह एकदम ‘रेजिमेंटेड’ व्यवस्था का तर्क देती रही है। हालांकि इन दोनों धर्मो के अंदर भी अनेक पंथ और परंपराएं आ गई हैं। दूसरे, शास्त्र और लोक का अंतर तो हर चीज में है। अब भैरव का मन्दिर कोई शहर के बीच में नहीं बनवा सकता या बजरंग बली से शादी की मांग नहीं की सकती। मगर हिंदू नामक जिस धर्म को कानून और हम मानते हैं, वह तो शास्त्र आधारित ही हैं। लोक परंपराएं हर जगह की अलग-अलग हैं। हमने इसी के आधार पर सती, दहेज ही नहीं देवदासी जैसी न जाने कितनी कुरीतियों को दूर किया है जिसमें शादी की उम्र ही नहीं विवाद निपटाने के अहिंसक तरीके को मान्यता देना भी शामिल है।
बात सिर्फ  एक मन्दिर या एक जगह की किसी कुप्रथा की नहीं है। बात सरकार और हमारी राजनैतिक बिरादरी के पक्ष बदल लेने की है। अनुच्छेद 26 की व्याख्या को बदलना या नया रूप देना तुषार मेहता भर की कलाकारी नहीं है। पूरी शासक बिरादरी का खेल है, जो उसके लोग सबरीमाला जाने की हिम्मत करने वाली महिलाओं पर हमला करके पहले से जाहिर कर रहे हैं। इसके जरिए वे हिंदुत्व की रक्षा कर रहे हैं, या केरल में अपनी राजनीति चमका रहे हैं, यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है। 
मुश्किल है तो यह कि कांग्रेस और माकपा का भी बैकफुट पर आना, बाबा साहब का नाम लेने वालों का चुप्पी साध लेना और सारा कुछ अदालत के कंधों पर डाल देना। अगर सामाजिक-राजनैतिक समर्थन न हो तो अदालती आदेश का भी क्या हो जाता है, हमने ऐसा अनेक मसलों में देखा है। सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन हो तो बाबा साहब और गांधी ने बिना अदालती सहायता के भी क्या कुछ हासिल किया, हमने देखा ही है। इसलिए किसी दल का व्यवहार प्रतिक्रियावादी हो सकता है, उसकी सरकार के सॉलिसिटर जनरल कुछ कुतर्क दे सकते हैं, लेकिन सारे सामाजिक आंदोलन तमाशबीन बन जाएं, यह ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण है।

अरविन्द मोहन


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