केजरी पार्ट-तीन : सयानेपन के साथ

Last Updated 19 Feb 2020 04:46:58 AM IST

अरविन्द केजरीवाल के शपथ ग्रहण समारोह ने ज्यादातर विपक्षी दलों को धक्का पहुंचाया होगा।


केजरी पार्ट-तीन : सयानेपन के साथ

इस विजय के बाद विपक्ष ने जिस तरह का उत्साह दिखाया था, उससे लग रहा था कि वर्तमान माहौल में रामलीला मैदान भाजपा विरोधी विपक्षी जमावड़े का मंच बनेगा। केजरीवाल ने किसी विपक्षी नेता को निमंतण्रनहीं दिया। सीएए,एनपीआर एवं एनआरसी को लेकर विपक्ष ने जैसा भाजपा विरोधी माहौल बनाया हुआ है, उसे देखें तो यह असामान्य राजनीतिक घटना लगेगी।
इस पर विचार करना इसलिए भी जरूरी है कि केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को शपथ ग्रहण में आने का निमंतण्रदिया था। यह बात अलग है कि वाराणसी में निर्धारित कार्यक्रम होने के कारण उन्होंने विनम्रतापूर्वक अपनी कठिनाई अवगत कराई। शपथ ग्रहण समारोह का पूरा माहौल, विपक्ष की अनुपस्थिति तथा केजरीवाल के भाषण ने मोदी सरकार के विरोधियों की कल्पनाओं और उम्मीदों से बिल्कुल अलग संकेत दिए हैं। तो क्या हैं वे संकेत? क्या हैं उनके मायने? इन प्रश्नों पर इसलिए भी विचार करना जरूरी है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद ही कुछ लोग केजरीवाल को मोदी विरोधी विपक्षी एकता का चेहरा बनाने की बात करने लगे थे। लेकिन पूरे देश ने रामलीला मैदान से ऐसे केजरीवाल का चेहरा देखा जो टकराव की जगह केंद्र के साथ समन्वय व सहयोग की नीति अपनाने की बात कर रहा था। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री किसी और कार्यक्रम में व्यस्त हैं, हमें उनके साथ सभी मंत्रियों को आशीर्वाद चाहिए।

शायद ही कोई केजरीवाल से ऐसी बातों की उम्मीद कर रहा था। उन्होंने दो करोड़ दिल्लीवासियों की बात की तो देश की भी। लग रहा था जैसे एक नेता दिल्ली और देश के विकास के लिए मिल जुलकर काम करने का आह्वान कर रहा हो। उन्होंने भारत के दुनिया की एक बड़ी शक्ति होने का विश्वास भी प्रकट किया। बोले गए शब्दों के अनुसार विचार करें तो भारतीय राजनीति के लिए इसके अर्थ काफी गहरे हैं। मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो छह करोड़ गुजरातियों की बात करते थे। यह भी कहते थे कि हम गुजरात का विकास कर देश के विकास में योगदान करते हैं। यह राष्ट्रीयता उन्मुख क्षेत्रीयता थी। ठीक यही रास्ता केजरीवाल अपनाते दिख रहे हैं। उन्होंने एक शब्द टकराव का नहीं बोला। इसकी जगह कहा कि चुनाव में एक दूसरे पर हमला होता है, लेकिन चुनाव खत्म होने के साथ ही यह खत्म हो जाना चाहिए। किसी ने किसी को भी वोट किया हो मैं सभी का मुख्यमंत्री हूं। राजनीति का मूल उद्देश्य जनता की सेवा है। चुनाव एक प्रतिस्पर्धा है, जिसमें जो सत्ता तक पहुंचा उसे सब कुछ भुलाकर सेवा के काम में लग जाना चाहिए। विपक्ष को भी सकारात्मक व्यवहार करना चाहिए। विपक्ष अपनी भूमिका निभाए, लेकिन अवरोधक बनकर नहीं। प्रदेश की सरकारें केंद्र से अनावश्यक राजनीतिक टकराव की जगह मिलकर जनहित और देशहित में काम करें तो भारत कम समय में ही न केवल अपनी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान कर लेगा,बल्कि विशेष सांस्कृतिक पहचान के साथ विश्व की पहली कतार का देश बन जाएगा।
केजरीवाल मुख्यमंत्री के रूप में ऐसा सोचते हैं, तो पहली नजर में इसका स्वागत होना ही चाहिए। समस्या यह है कि केजरीवाल ने 2011 से 2020 तक इतनी बार अपनी ही घोषणाओं और वक्तव्यों के विपरीत काम किया है कि सहसा विश्वास नहीं होता कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया होगा। जो व्यक्ति हर बात में मोदी को खलनायक बता रहा हो वह आशीर्वाद मांगने लगे, तिरंगा को सिरमौर बनाने तथा देश को उच्च शिखर पर ले जाने की बात करने लगे तो अचरज होगा ही। मैं मुख्यमंत्री को चतुर नेता कहूंगा। दरअसल, उनकी अभिनय की कला उन्हें सर्वाधिक चतुर नेता की श्रेणी में लाकर खड़ा करती है। जब तक हम उनके कहे हुए को आगे लंबे समय तक आचरण में बदलता न देख लें, यही मानेंगे कि यह सब उनके चतुर अभिनय का ही भाग होगा। वैसे कुछ बातें चुनाव के समय से ही दिख रही थीं। वे मोदी का नाम तक लेने से बच रहे थे। भाजपा के हिंदुत्व और राष्ट्रीयता की काट के लिए उन्होंने रणनीतिक हिंदुत्व व राष्ट्रवाद को अपनाया। उन्हें पता है कि दिल्ली में उनके सामने केवल भाजपा ही है, जिसकी ताकत मोदी सरकार की जन कल्याणकारी योजनाएं, विदेश में भारत का बढ़ता सम्मान, बदलती छवि तथा वैचारिक स्तर पर हिंदुत्व एवं राष्ट्रवाद है, तो राजनीति में चुनावी लाभ लेने तक विदेश को छोड़कर अन्य पहलू अपनाने में हर्ज नहीं है। 
इस बार कपाल पर बड़ा सा चंदन था। श्रवण कुमार द्वारा माता-पिता की तीर्थ यात्रा कराने की चर्चा उन्होंने की। यह निष्ठावान हिंदू होने का ही तो संकेत था। मोदी के गुजरात राजनीतिक मॉडल के अनुरूप दिल्ली की क्षेत्रीय राजनीति पर कायम रहते हुए उसे राष्ट्रवाद से जोड़ना तथा भाजपा की ओर मतदाताओं को जाने से रोकने के लिए हिंदुत्व की छौंक देते रहना। साथ ही, मोदी की लोकप्रियता का ध्यान रखते हुए उनकी आलोचना स्वयं न करना। इसमें विपक्षी गोलबंदी के लिए जगह तत्काल तो नहीं है। वर्तमान समय की आम विपक्षी पार्टी का यह रवैया भी नहीं है। चुनाव में भी उन्होंने किसी विपक्षी नेता को अपने पक्ष में भाषण देने के लिए नहीं बुलाया। संकेत यही है कि वे मोदी विरोधी विपक्ष की राजनीति का भाग बनने से बचेंगे। विपक्ष के लिए यह निराशाजनक है। केंद्र के साथ सहयोग के बारे में उनके सहयोगी बताते हैं कि मोदी व उनकी टीम के कुछ सदस्यों ने विकास से लेकर, पर्यावरण, यातायात, यमुना सफाई..आदि पर जिस तरह खुलकर सहयोग किया है, उससे वे अपना विचार बदलने को बाध्य हुए हैं।
बहरहाल, जब तक इसके अतिरिक्त कुछ सामने नहीं आता हमें मानकर चलना होगा कि 16 फरवरी, 2020 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले अरविन्द केजरीवाल काफी हद तक बदले हुए नेता बने रहेंगे। किसी की आलोचना नहीं, आमूल-चूल बदलाव का कोई अव्यावहारिक क्रांतिकारी वादा नहीं, उत्तेजना पैदा करने का वक्तव्य नहीं। केवल मिलजुलकर काम करने की चाहत। प्रधानमंत्री का सम्मान से नाम। देश की राजनीति पर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। नागरिकता संशोधन कानून से लेकर एनपीआर एवं एनसीआर पर चुनाव प्रचार से लेकर शपथ ग्रहण तक की उनकी चुप्पी भी बहुत कुछ कहती है।

अवधेश कुमार


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