मुद्दा : कोई लंच फ्री नहीं होता
जीवन में गुणवत्ता तभी आ सकती है, जब इंसान को मूलभूत जरूरतें जुटाने के लिए ज्यादा जद्दोजहद न करनी पड़ती हो।
मुद्दा : कोई लंच फ्री नहीं होता |
बेहतर जीवन को मापने का पैमाना यह भी है कि आपको अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन जुटाने में हर दिन कितने घंटे मशक्कत करनी पड़ती है। दूसरा पैमाना यह भी है कि साधन अर्जित हैं या अनार्जित। अर्जन से प्राप्त क्रय शक्ति का उपयोग सार्थक तरीके से किए जाने की प्रवृत्ति होती है। तार्किक तरीके से खर्च किया जाता है। कोशिश रहती है कि अनिवार्य जरूरतें पूरी हों और बेवजह कर्ज के संजाल में न फंसना न पड़ जाए। दरअसल, इसी चुनौती से पार पाने का ज्ञान-विज्ञान है अर्थशास्त्र।
बेरोजगारी की विकराल समस्या के चलते बेरोजगारी भत्ते जैसे उपाय इसीलिए कारगर नहीं माने गए क्योंकि उससे फिजूलखर्ची बढ़ने से जीवन में गुणवत्ता नहीं आ पाती। इसी क्रम में यह भी कोशिश हुई कि हाशिये पर पड़े लोगों को बुनियादी सुविधाएं नाममात्र के खर्च पर मुहैया कराई जाएं। लेकिन यहां समस्या यह रहती है कि हर सुविधा कुछ लागत से तैयार होती है। उसे नि:शुल्क मुहैया नहीं कराया जा सकता। ऐसे में सब्सिडी का विकल्प उभरा। इसमें उपयोगकर्ता को बनिस्बत कम दाम पर कोई वस्तु या सेवा उपलब्ध कराई जाती है, लेकिन उसे तैयार करने वाले को सरकार या नियोक्ता अपनी तरफ से पूरी लागत का भुगतान करते हैं, और इस प्रकार सेवा या वस्तु का विनिर्माण करने वाले को नुकसान नहीं होने पाता यानी वह घाटे में नहीं रहता। कल्याणकारी अर्थव्यवस्था वाले देश में सरकार का प्रयास होता है कि अपने लोगों को ज्यादा-से-ज्यादा इस प्रकार सक्षम बनाया जाए ताकि उनकी क्रयशक्ति कमजोर न पड़ने पाए। फिर, आर्थिक गतिविधियों का चक्र चलायमान रखने के लिए भी जरूरी है कि लोगों के हाथों में खर्च करने के लिए पैसा हो। इसी कड़ी में लोकलुभावन योजनाएं क्रियान्वित की जाती हैं। दक्षिण भारत से यह सिलसिला आरंभ हुआ। दैनिक उपयोग की चीजें सस्ते में मुहैया कराने से शुरू होकर किसानों को खाद-पानी फ्री देने और कर्जमाफी जैसी तमाम बातों में फिक्र थी तो यही कि लोगों के हाथों में पैसा बना रहे।
लेकिन फसल के लाभकारी दाम नहीं मिलने से इस प्रयास का फायदा किसान को नहीं मिल पाता। पैदावार लेकर मंडियों में पहुंचा किसान का आढ़तियों और सब्जी मंडियों में माशाखोरों द्वारा उत्पीड़न होता है। मंडी में जीरी (धान) लेकर पहुंचे किसानों की उपज को दोयम दरजे का बताकर सरकारी दाम भी नहीं दिए जाते। नतीजतन, किसान औने-पौने दाम में धान बेचने को विवश होते हैं। घर जल्दी लौटने और ऊपर से मौसम के बदलते तेवर के चलते ज्यादा दिन तक मंडी परिसर में खुले में धान को किसान नहीं रख पाते। उस दाम पर उपज बेचने को विवश होते हैं, जिससे लागत भी नहीं निकल पाती। यही हाल सब्जी के काश्तकारों का भी होता है। सुबह-सवेरे ट्रैक्टरों में सब्जी की पैदावार भरकर सब्जी मंडियों में पहुंचे काश्तकारों को बमुश्किल लागत निकाल पाने वाले दाम मिल पाते हैं। सब्जी जल्द खराब होने वाली पैदावार होने के कारण किसान के सामने ज्यादा विकल्प नहीं होते। मंडी में एक थोक कारोबारी ने जो दाम बोल दिया तो बोल दिया। मजाल है कि उससे ज्यादा दाम किसान को मिल जाए। दरअसल, सांकेतिक भाषा में माशाखोर दाम आपस में बताने लगते हैं, किसान के खिलाफ कारटेल बन जाता है, जिससे उसे लागत जितना दाम भी मिलना मुश्किल हो जाता है। लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, परिवहन जैसे क्षेत्रों में न के बराबर शुल्क या मुफ्त सेवा मुहैया कराकर अवाम के हाथों में किसी भी माध्यम से पैसा पहुंचाने की कवायद गलत नहीं है।
यकीनन इससे उनका सशक्तिकरण होता है। हालांकि कुछ को लगता है कि इस प्रकार वस्तुएं और सेवाएं नि:शुल्क मुहैया कराने से लोगों में एक प्रकार की काहिली आती है। बात कुछ अर्थों में सही भी है। मगर चिकित्सा, शिक्षा जैसी मदों पर नि:शुल्क सेवा मुहैया कराने का उपाय गलत नहीं ठहराया जा सकता। दरअसल, ये उपाय ‘दीर्घकालिक निवेश’ कहे जा सकते हैं। लोगों को अच्छी शिक्षा मिलती है, तो देश के उत्पादक मानव शक्ति के रूप में ढलेंगे। जाहिर है कि कालांतर में देश-समाज के लिए उपयोगी भी साबित होंगे। इससे देश में उत्पादकता बढ़ती है। साथ ही, जीवन में गुणवत्ता का स्तर भी उठेगा। स्वास्थ्य क्षेत्र में नि:शुल्क या मामूली शुल्क पर सेवा मुहैया कराने से स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा। फलस्वरूप सरकार को स्वास्थ्य के मद पर ज्यादा परिव्यय करने की नौबत नहीं रह जाएगी। बहरहाल, अवाम का सशक्तिकरण किए जाने के प्रयासों को राजनीति के चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। भले ही कहा जाता हो, ‘कोई लंच मुफ्त नहीं होता’।
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