मीडिया : घृणा की इबारतें

Last Updated 02 Feb 2020 12:47:28 AM IST

चौबीस बाई सात के लाइव टीवी और तुरंता असर करने वाले सोशल मीडिया के इस दौर में हम एक ऐसे ‘तत्काल’ में रिएक्ट करने को अधीर होते हैं कि अभी जवाब न दिया तो फिर कब दिया?


मीडिया : घृणा की इबारतें

मीडिया ने हमको एक प्रकार के ‘तुरंत प्राणी’ में बदल दिया है। आप आज के किसी एक ट्वीट को ले लें या किसी एक तेजाबी घटना के टीवी कवरेज को, आपको इतनी तरह की और इतनी ताबड़तोड़ प्रतिक्रियाएं या ओपिनियनें मिलेंगी कि असली खबर या घटना लगभग गायब हो जाएगी और जब तक कहानी खत्म होगी तब तक कई नये अखाड़े खुल जाएंगे। आजकल हम सिर्फ टीवी के वाग्युद्ध के बीच नहीं जीते, बल्कि सोशल मीडिया के चौबीस बाई सात के खुले घृणा-युद्ध के बीच जीते हैं।
पिछले दो महीने की मीडिया कवरेजों को याद करें : पहले सीएए आया। उसके बाद ‘शाहीन बाग’ आया। फिर जगह-जगह शाहीन बाग बनने लगे और मीडिया ने ‘शाहीन बाग’ को प्रोटेस्ट का खास प्रतीक बना दिया। फिर एक दिन शाहीन बाग के स्वकथित आयोजक शरजील इमाम ने अलीगढ़ में कह दिया कि अगर पांच लाख लोग हों तो हम असम को इंडिया से काट देंगे..। फिर एक केंद्रीय मंत्री ने दिल्ली की एक चुनावी सभा में नारे लगवा दिए कि देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को..।

फिर दिल्ली के एक सांसद ने कह दिया कि जब तक मोदी जी हैं, तब तक आप सुरक्षित हैं..अन्यथा..घरों में घुसकर बहू-बेटियों का रेप करेंगे..घरों में घुसकर आपको काट डालेंगे..। फिर जब गांधी के शहीदी दिवस इकतीस जनवरी को जामिया के छात्र राजघाट तक रैली करने वाले हुए तो उसी शाम जेवर का रहने वाला  एक युवक ‘राम भक्त गोपाल’ जामिया आता है। चालीस सेकिंड तक हवा में पिस्तौल लहराता है, और सीएए के विरोध में प्रदर्शन करने वाले छात्रों पर कहते हुए गोली चला देता है, ‘ये लो आजादी’। इससे पहले वह फेसबुक पर लिख चुका था:‘शाहीन बाग खत्म!’
मीडिया में बार-बार बजाए जाने वाले ऐसे बयान या नारे या सीन दर्शकों पर गहरा असर डालते हैं। बार-बार बजकर किसी हिंदू को और अधिक हिंदू और मुसलमान को और अधिक मुसलमान बनाते रहते हैं। हम उनकी सांप्रदायिकतापूर्ण साउंड बाइटों से घिर जाते हैं। यह एकदम नई अनुभवात्मक प्रक्रिया है, जिसमें हम उदार होने की जगह और अधिक संकीर्ण हुए जाते हैं। राजनेता तो इस अपनी राजनीतिक जरूरतों से इस वातावरण को बनाते ही हैं, हमारा मीडिया भी उसे और घनीभूत करता है। बड़ी समस्या यही है कि हमारा मीडिया उस भाषा को मीडिएट करने या बदलने की जगह, स्वयं उसी भाषा में बोलने लगता है, जो घृणा से घृणा तक की आती-जाती है।
खबर चैनलों की खबर बनाने और उसे देने और विचार करने-कराने की शैली इन दिनों एकदम ‘तमाचामार’ है। खबर चैनल उत्तेजक घृणामूलक बाइटों को हतोत्साहित करने की जगह उनको उसी उत्तेजक भाषा में पेश करते रहते हैं। कई नामी एंकर व रिपोर्टर भी कई बार नेताओं की हेट-स्पीच को उससे भी अधिक जोर शोर से बजाते हैं, और कई तो सत्ता की भाषा से जरा भी स्वतंत्र व निरपेक्ष दिखने की जगह  सत्ता की भाषा को ही अपनी भाषा बना लेते हैं। इन दिनों तो कई एंकरों व रिपोर्टरों की भाषा,‘हेट-स्पीच’ वालों की भाषा के साथ पूरी तरह ‘लिप-सिंक’ में  नजर आती है। ऐसा निर्लज्ज ‘लिप-सिंक’ होगा तो मीडिया और राजनेताओं में क्या अंतर रह जाएगा?
लेकिन मामला अब ‘हेट स्पीच’ तक सीमित नहीं है, बल्कि उस ‘हेट’ का भी है जो न केवल ‘फुलटॉस घृणा’ की तरह प्रसारित होती है, बल्कि ‘घृणा’ भी स्पर्धात्मक रूप ले लेती है। इन दिनों कई नेता या एंकर जोरदार शब्दों में बोलकर अपने को सुपर ‘घृणा वीर’ की तरह पेश करते हैं। और ये ‘घृणा-वीर’ भी सच्ची और सहज घृणा के शिकार नहीं होते बल्कि घृणा के ‘सवार’ होते हैं। यही नहीं, वे उसे एक राजनीतिक तरकीब की तरह इस्तेमाल करते हैं, और उसके संभव परिणामों को पहले ही ‘केलकुलेट’ कर लेते हैं कि क्या कहने से कितना ‘भाव-विभाजन’ या ‘ध्रुवीकरण’ होगा?  मसलन, पहले शरजील अपनी घृणा करी इबारत लिखता है, फिर मानो उसका जवाब देने के लिए जेवर का युवक अपने फेसबुक पेज पर अपनी आगामी घृणा की इबारत लिख देता है, और जामिया में आकर अपनी फेसबुक पर स्वयं को गोली चलाते देखने का भी प्लान बना लेता है, और तब गोली चलाता है।

सुधीश पचौरी


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