ईयू में सीएए : राजनय कसौटी पर
मोदी सरकार-दो के लिए यूरोपीय संसद ने भारत के लिए हालिया सबसे बड़ी राजनयिक चुनौती पेश कर दी है।
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तुर्की और मलयेशिया की ओर से पेश की गई चुनौती से भी बड़ी; जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र आमसभा में कुछ महीने पहले जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर अपने रवैये से भारत को घेरने की कोशिश की थी। यूरोपीय संसद ने आज (29 जनवरी) से भारतीय संसद के दोनों सदनों द्वारा 9 और 11 दिसम्बर को पारित नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) पर चर्चा आरंभ कर दी है। यूरोपीय संसद के 751 सदस्यों में 626 सदस्यों ने छह प्रस्ताव पेश किए। इनमें से पांच प्रस्ताव तासीर और तेवर में खुल्लम-खुल्ला युद्ध-विरोधी और भारत-विरोधी जबकि छठा प्रस्ताव कमोबेश भारत सरकार के इस कथन की तस्दीक करता दिखा कि सीएए भारत का आंतरिक मामला है। अब यूरोपीय संसद के छह सबसे बड़े राजनीतिक समूहों ने एक संयुक्त प्रस्ताव पेश किया है।
इस संयुक्त प्रस्ताव में सीएए को ‘भेदभावपूर्ण और खतरनाक तरीके से विभाजनकारी’ करार दिया गया है, और सरकार से मांग की गई है कि ‘भेदभावपूर्ण संशोधनों’ को वापस लिया जाए। संयुक्त प्रस्ताव और पूर्व में पेश प्रस्तावों में महत्त्वपूर्ण अंतर यह है कि संयुक्त प्रस्ताव में यूरोपीय संसद के छह राजनीतिक समूहों के सदस्यों (एमईपी), जिनमें यूरोपीय पीपुल्स पार्टी (ईपीपी) समूह, सोशलिस्ट्स और डेमोक्रेट्स (एसएंडडी) समूह (जिनके सदस्यों की संख्या 751 सदस्यीय सदन में 336 है), के उस पक्ष को सामूहिक रूप से पेश किया गया है, जिसे पहले उन्होंने व्यक्तिगत रूप से रखा था। इसके बावजूद सामूहिक पक्ष भी सीएए तथा एआरसी को लेकर भारत की तीखी आलोचना करने वाला है।
प्रस्ताव कहता है कि सीएए का इस्तेमाल ‘हाशिये पर पड़े समूहों को निशाना बनाने’ में किया जा सकता है, और इससे ‘बड़े स्तर पर राज्यविहीनता का संकट पैदा हो सकता है और ‘इनसानी परेशानियां बेइंतिहा बढ़’ सकती हैं। संयुक्त प्रस्ताव के कुछेक अनुच्छेदों को बतौर नमूना निम्न प्रकार से गिनाए जा सकते हैं: 1) भारत के नये सीएए में अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में उत्पीड़न के शिकार होकर भाग निकलकर 2015 से पहले भारत पहुंचे हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है, लेकिन इस कानून यही संरक्षण मुस्लिमों को नहीं दिया गया है; 2) भारत की सीमा भूटान, बर्मा, नेपाल और श्रीलंका से सटी है, लेकिन सीएए में श्रीलंकाई तमिलों को शामिल नहीं किया गया है, जो भारत पहुंचने वाले शरणार्थियों में सबसे बड़ा समूह है, और जो बीते तीस साल से भारत में शरण लिए हुए है। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने ध्यान दिलाया है कि सीएए में बर्मा के रोहिंग्या, पाकिस्तान के अहमदिया, अफगानिस्तान के हजारा मुसलमानों और बांग्लादेश के बिहारी मुस्लिमों समेत अन्य प्रताड़ित अल्पसंख्यक शामिल नहीं किए गए हैं: तथा 3) सीएए को लेकर नया विवाद खासकर भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, जो कानून की नजर में सबको बराबर अधिकार की बात कहता है, तथा अनुच्छेद 15, जो धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से संरक्षण करता है, छिड़ गया है, जबकि 13 दिसम्बर, 2019 को संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त की तरफ से उनके प्रवक्ता ने जो बयान जारी किया है, उसमें कहा गया है कि सीएए ‘प्रकृति से ही भेदभावपूर्ण’ है।
बयान में कहा गया है कि इस कानून से लगता है कि भारत ने अपने संविधान में सभी को समानता के अधिकार की जो बात कही है, उससे विचलन हुआ है, और भारत अपने अंतरराष्ट्रीय दायित्वों से पीछे हट रहा है। यूरोपीय संसद में सीएए संबंधी प्रस्ताव आने के प्रभावों को जानने-समझने से पूर्व कुछ बिंदुओं पर विचार कर लिया जाना हमारे लिए जरूरी है। पहला, यूरोपीय संसद जो भी प्रस्ताव पारित कर दे उसका भारत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि ऐसे प्रस्ताव बाध्यकारी नहीं होते। ज्यादा से ज्यादा यह होगा कि यूरोपीय संसद प्रस्ताव को पारित करने के उपरांत इसे विचार के लिए भारत सरकार को भेज सकती है। यह भारत सरकार की मर्जी पर है कि वह इस पर विचार करे या अनदेखा कर दे। इस मामले में यही लगता है कि भारत सरकार इस प्रस्ताव की अनदेखी ही करेगी। दूसरा, यूरोपीय संसद के रुख या पहल से किसी भी अन्य यूरोपीय संस्था जैसे यूरोपीय आयोग या यूरोपीय परिषद या यूरोपीय संघ (ईयू) आदि पर कोई प्रभाव तक नहीं पड़ता। तीसरा, यूरोपीय संसद में भारत को परेशान करने का यह जो उपक्रम हुआ है, उससे भारत के किसी भी यूरोपीय देश के साथ दुतरफा संबंध प्रभावित नहीं होने वाले। लेकिन इतना तो है कि यूरोपीय संसद की किसी भी पहल से कोई भी देश चिंता में पड़ सकता है। यकीनन भारत सरकार भी यह दबाव महसूस करेगी। इससे भी बुरा तब होगा जब अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं या समूह एक के बाद एक इसी प्रकार का रवैया अख्तियार कर लें।
एक के बाद एक भारत-विरोधी प्रस्ताव पारित करते चले जाएं। ऐसा होने पर निश्चित ही मोदी सरकार की जान सांसत में पड़ जाएगी। अभी तक तो यह स्थिति नहीं आई है, लेकिन इस बात की गारंटी भी नहीं है कि ऐसा नहीं होगा। खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि ओआईसी (ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज) जैसे अनेक मुस्लिम संगठन हैं, जो भारत की तरफ नजरें तरेर सकते हैं। अलबत्ता, यूरोपीय संसद का सत्र कुछ नाजुक समय पर आहूत कर लिया गया है। यूरोपीय संघ के साथ भारत का 15वां शिखर सम्मेलन 13 मार्च को ब्रुसेल्स में होना है। इस महत्त्वपूर्ण आयोजन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शिरकत करेंगे। गौरतलब है कि यूरोपीय संघ भारत का सबसे बड़ा कारोबारी भागीदार है। विदेश मंत्री एस. जयशंकर 15वें भारत-ईयू शिखर सम्मेलन की तैयारियों का जायजा लेने के लिए जल्द ही ब्रुसेल्स पहुंचने वाले हैं। इस आयोजन पर यूरोपीय संसद के प्रस्ताव की छाया पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
कहना गलत न होगा कि यूरोपीय संसद में सीएए-विरोधी प्रस्ताव प्याली में तूफान सरीखा होगा। भारत के लिए बेहतर होगा कि इस प्रस्ताव की अनदेखी करता चले। भारत के कूटनीतिक प्रतिष्ठान के समक्ष दीर्घकालिक किस्म की चुनौती है। मलयेशिया, तुर्की के बाद यूरोपीय संसद ने परेशानी पेश की है, लेकिन भारत को आंतरिक मामलों में इनकी आपत्तियों को ताक पर रख देना चाहिए। लेकिन महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाफ धीरे-धीरे हो रही हरारत तेजी तो नहीं पकड़ लेगी? मोदी सरकार को अपने मुद्दों को लेकर संजीदा रहना होगा। आखिर, विश्व परस्पर निर्भर जो है।
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