सीएए विरोधी आंदोलन : बदल रही है राजनीतिक फिजा

Last Updated 17 Jan 2020 04:42:26 AM IST

नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन की गहराई और विस्तार ने भारत को आज सचमुच बदल डाला है ।


सीएए विरोधी आंदोलन : बदल रही है राजनीतिक फिजा

सिर्फ  छह महीने पहले पूर्ण बहुमत से चुन कर आए नरेन्द्र मोदी और उनके विश्वासपात्र अमित शाह का आज देश के आठ राज्यों में तो जैसे प्रवेश ही निषिद्ध हो गया है और एक भी ऐसा राज्य नहीं बचा है जहां वे भारी विरोध की आशंका से मुक्त हो कर निश्चिंतता से घूम-फिर सकते हो। देश हो या विदेश हर जगह उनके लिए काले झंडे तैयार पड़े हैं।
दुनिया के राजनीतिक इतिहास में हम इसे स्वयं में एक विरल घटना के रूप में देख पा रहे हैं, जैसे कभी भारत का स्वतंत्रता आंदोलन भी स्वयं में एक विरल संघर्ष था। राजनीति का सबसे बड़ा सच यही है कि वह कहीं भी कभी   हू-ब-हू दोहराया नहीं जा सकता है। यह विज्ञान का कोई प्रयोग या गणित का समीकरण नहीं है जिसे आप बार-बार दोहरा कर एक ही परिणाम हासिल कर सकते हैं। राजनीति के घटनाक्रमों में कितनी ही एकसूत्रता क्यों न दिखाई दे, हर घटना अपने में अद्वितीय होती है। इसीलिए भारत में पूरे देश के पैमाने पर अभी जो लहर उठी है, वह भी अद्वितीय है। मोदी ने अपने शासन के इस दूसरे दौर में अपनी बुद्धि के अनुसार आजादी के अधूरे कामों को पूरा करने के इरादों से राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बदलने का जो संघी खेल कश्मीर से शुरू किया था, उसी का अब कुल जमा परिणाम यह दिखाई देता है कि आजादी की लड़ाई में अर्जित मूल्यों और संविधान के मूलभूत आदशरे को हमेशा के लिए सुरक्षित कर देने के लिए पूरा भारत अब मचल उठा है। मोदी के जहरीले सांप्रदायिक इरादों और शाह की दमनकारी हुंकारों ने जैसे अंग्रेजों के शासन के दंश के बोध को छात्रों, नौजवानों में जिंदा कर दिया है और तमाम देशवासियों में आजादी की लड़ाई का हौसला पुनर्जीवित हो गया है।

भारत का यह महा-आलोड़न स्वयं में विरल है, क्योंकि न यह किसी कैंपस विद्रोह की अनुकृति है और न ही किसी ‘अरब बसंत’ की तरह का कोरा विध्वंसक तूफान। हर बीतते दिन के साथ यह आंदोलन अपने अंदर एक नये भारत का निर्माण कर रहा है। इसीलिए जो यह समझते हैं कि समय के साथ यह आंदोलन शिथिल हो जाएगा या यह किसी अंजाम तक नहीं जाएगा या इसे दमन के बल पर कुचल दिया जाएगा-वे भारी मुगालते में हैं। इस आंदोलन में अनंत संभावनाएं है, इसकी गहराई और विस्तार का कोई ओर-छोर नहीं है और इसकी आंतरिक ऊर्जा अकूत है, इसके सारे संकेत इसी बीच मिलने लगे हैं। जो आंदोलन शुरू में असम के साथ ही भारत के चंद विश्वविद्यालयों के कैंपस से शुरू हुआ था, वह इसी बीच भारत के सभी उत्तर-पूर्व के राज्यों के शहरों, कस्बों और गांवों तक को पूरी तरह से अपनी जद में ले चुका है। बंगाल का कोई जिला केंद्र ऐसा नहीं है जहां रोजाना लाखों की संख्या में लोग प्रदर्शन न कर रहे हों। पूरा दक्षिण भारत आज इसके विरोध में उबल रहा है। पश्चिम में महाराष्ट्र, गोवा, और गुजरात में भी भारी प्रदर्शन हो रहे हैं। बिहार और उड़ीसा भी पीछे नजर नहीं आते। उत्तर प्रदेश का सच किसी से छिपा नहीं है। दिल्ली तो आंदोलन का एक केंद्र-स्थल बना हुआ है।
देश के तकरीबन 16 राज्यों की सरकारों ने ऐलान कर दिया है कि उनके राज्यों में इस नागरिकता कानून को लागू नहीं किया जाएगा। केरल की राज्य सरकार ने तो सीधे सुप्रीम कोर्ट में जाकर केंद्र सरकार को ललकारा है। इसी सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट ने भी धारा 144 के प्रयोग और इंटरनेट सेवाओं पर रोक के बारे में एक ऐतिहासिक फैसला देकर मोदी सरकार को थोड़ा असहज कर दिया। मोदी अपनी जिन संघ वाली बुराइयों को अंधेरे में रखना चाहते थे, उनकी इन कोशिशों को ही उन्होंने प्रकाश में ला दिया है। मोदी और शाह बिना लाग-लपेट के इस बात को दोहराते रहते हैं कि सीएए नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता छीनने के लिए नहीं। जबकि आज देश का हर समझदार आदमी जानता है कि इस कानून से धर्म के आधार पर भेद-भाव की जो जमीन तैयार की गई है, वही तो शुद्ध वंचना है। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किशन रेड्डी का कहना कि सीएए 130 करोड़ लोगों में से यदि एक को भी प्रभावित करेगा तो वे इस कानून को वापस ले लेंगे। यह नहीं मालूम कि यह किसी एक को नहीं, सारे 130 करोड़ लोगों को, भारत के संविधान को प्रभावित करेगा। और जो चीज सबको समान रूप से प्रभावित करती है, उसके प्रभाव को किसी एक पर प्रभाव के जरिये नहीं समझा जा सकता है। फासीवाद, नाजीवाद इटली, जर्मनी में किसी एक के विरु द्ध नहीं था। उसने इन देशों के प्रत्येक नागरिक के जीवन को प्रभावित किया था।
राज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को नष्ट करके मोदी सरकार अपने हाथ में नागरिकों के बीच भेदभाव करने का जो अधिकार लेना चाहती है, वह देश के हर नागरिक के जीवन को नर्क बनाने के लिए काफी होगा। जेएनयू के छात्रों पर हमलों के लिए जिस प्रकार गुंडों और पुलिस का प्रयोग किया गया, वह इनके नाजी चरित्र की सचाई को ही खोलता है। चिह्नीकरण नागरिकों पर जर्मन नाजियों के जुल्मों का पहला चरण था। जेएनयू में पहले से चिह्न्ति करके होस्टल के कमरों पर हमले किए गए। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ ने इस कानून के नियमों के बनने के पहले ही इस प्रकार का चिह्नीकरण शुरू कर दिया है। इनके सीएए-एनपीआर-एनआरसी के पूरे प्रकल्पकों ही राष्ट्रव्यापी नाजी चिह्नीकरण का प्रकल्प कहना हर लिहाज से सही होगा। सचमुच राजनीति हमेशा एक असंभव की साधना है। राजनीति ही किसी भी रास्ते से अलग सामूहिक संभावनाओं की नई दिशा खोलती है और नई परिस्थिति के सूत्र प्रदान करती है। वही तमाम मान ली गई प्रभुत्वशाली चीजों से हमें अलग करती है। बस इसके लिए इतना ही जरूरी है कि वह अपनी जड़ता को छोड़कर इस नई संभावना में प्रवेश करे।
अपनी परंपरागत स्थिति से हट कर विमर्श की एक व्यापक प्रक्रिया में शामिल होना, और इस प्रकार एक असामान्य स्थिति की ओर बढ़ना राजनीति की सच्ची भूमिका की एक प्रमुख शर्त है, जो राजनीति ऐसा नहीं करती, वह इतिहास के कूड़े में फेंक दिए जाने के लिए अभिशप्त विचारशून्य नेताओं की कोरी भीड़ होती है। जो भी यह कहता है कि शाहीन बाग में संविधान की रक्षा की लड़ाई का अंत गैर-राजनीतिक तरीके से ही संभव है, वह मूर्ख नहीं महामूर्ख है। बल्कि यहीं पर तो राजनीति के सामने खुद को साबित करने की सबसे बड़ी चुनौती है। देश की प्रमुख धर्मनिरपेक्ष और जनतांत्रिक राजनीतिक ताकतों का इस आंदोलन में शामिल होना ही इसके सकारात्मक विकास के लिए जरूरी है। राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के मैदान में भी मोदी-शाह-आरएसएस को पूरी तरह से पराजित करके इस ऐतिहासिक आंदोलन का युगांतकारी तार्किक अंत संभव होगा।

अरुण माहेश्वरी


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