महाराष्ट्र भाजपा : नये साथी की तलाश
उत्तर प्रदेश के बाद देश के दूसरे बड़े राज्य महाराष्ट्र की राजनीतिक फिजा इन दिनों बहुत बदली हुई है।
महाराष्ट्र भाजपा : नये साथी की तलाश |
राज्य में शिवसेना, राकांपा तथा कांग्रेस इन तीनों दलों को मिलाकर महाराष्ट्र विकास आघाड़ी के बैनर तले शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ और येन-केन प्रकारेण मंत्रिमंडल का निर्माण भी हो गया। विधानसभा चुनाव के बाद यह आस की जा रही थी कि देवेंद्र फड़णवीस के नेतृत्व में ही एक बार फिर राज्य में भाजपा-शिवसेना तथा उनके मित्र पक्षों की सरकार बनेगी, लेकिन शिवसेना ने मुख्यमंत्री पद के लिए कोहराम मचा कर पूरी ही तस्वीर ही बदल दी। आज स्थिति यह है कि ‘मैं फिर आऊंगा’ कहने वाले देवेंद्र फडणवीस समेत पूरी भाजपा को एक ऐसे साथी की तलाश है, जो शिवसेना की कमी को पूरा करके भाजपा को एक बार फिर सत्ता के करीब पहुंचा दे।
देवेंद्र फडणवीस की नजर में नये साथी के रूप में मनसे तो आई है, मगर मनसे की कार्य पद्धति को देखते हुए उसे एक झटके में अपना साथी बनाने में फड़णवीस झिझक रहे हैं। मनसे को साथ लेने से पहले भाजपा की चाहत यह है कि मनसे अपनी कार्य पद्धति बदले। राजनीति में न तो कोई किसी का स्थायी शत्रु होता है और न तो स्थायी मित्र, इस बात को शिवसेना ने राकांपा तथा कांग्रेस के साथ सरकार बनाकर सिद्ध कर दिया है।
ऐसे में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की ओर से अगर हरी झंडी दिखाई गई तो इसमें उस वक्त किसी को कोई आश्चर्य न हो, जब भाजपा-मनसे एक साथ खड़े दिखाई दे जाएं। भाजपा तथा मनसे की विचारशैली में जमीन-आसमान का अंतर है, लेकिन जब सत्ता की बात हो तो राजनीति में जमीन-आसमान का अंतर भी कोई मायने नहीं रखता। जो शिवसेना सत्ता के महा शिव आघाड़ी की जगह महाविकास आघाड़ी बनाने के लिए तैयार हो गई, जो शिवसेना सत्ता के लिए सावरकर का विरोध होता देखकर अपना स्वर धीमा करने के लिए तैयार हो गई, उस शिवसेना के प्रति राज्य की जनता का रुख कितना बदला है, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
भाजपा का साथ छोड़कर अपने धुर विरोधियों से हाथ मिलाकर सरकार बनाना और उसमें सक्रिय भूमिका निभाना, यह सब कुछ भाजपा को पसंद नहीं आया है और भविष्य में फिर दोनों दल एक साथ आएंगे, इस बात की उम्मीद भी लगभग नहीं के बराबर है, ऐसे में भाजपा, उस राजनीतिक दल को अपने करीब लाना चाहती है, जिस दल का नेता किसी वक्त उसी शिवसेना का बेहद करीबी रहा है, जिसके नेतृत्व में वर्तमान में राज्य में गैर भाजपाई सरकार बनी है। राज ठाकरे की मनसे के निर्माण को एक दशक से ज्यादा का समय व्यतीत हो चुका है, लेकिन राज ठाकरे महाराष्ट्र की जनता के मन में उतर नहीं पाए, वे राज्य की जनता के स्वीकार्य नेता नहीं बन पाए, दूसरी ओर उद्धव ठाकरे को किसी ने कभी राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नहीं देखा था, स्वयं उद्धव ठाकरे ने भी कभी यह नहीं सोचा होगा कि वे कभी मुख्यमंत्री बनेंगे, लेकिन शरद पवार की गुगली ने राज्य की पूरी तस्वीर ही बदल कर रख दी। देवेंद्र फडणवीस तथा राज ठाकरे की पिछले दिनों जब मुलाकात हुई तो राजनीतिक पंडितों ने यह आकलन करना शुरू कर दिया कि भाजपा अब मनसे को अपना नया साथी बनाएगी, लेकिन मनसे को साथी बनाकर भाजपा को आखिर मिलेगा क्या, इस पर भी चिंतन होना जरूरी है और यही मसला इन दिनों चर्चा के केंद्रबिंदु में है। बाल ठाकरे के जन्म दिन के अवसर पर 23 जनवरी को राज ठाकरे अपनी भूमिका स्पष्ट करेंगे कि वे भाजपा से हाथ मिलाएंगे या नहीं। जिला परिषद् तथा पंचायत समिति के चुनाव में कई स्थानों पर सत्ता गंवाने के बाद यह स्वर भी गूंजने लगा कि नितिन गडकरी तथा फड़णवीस की पकड़ कमजोर हुई है।
कहा तो यह जा रहा है कि विधानसभा चुनाव के दौरान टिकट वितरण के दौरन ही इन दोनों नेताओं की ताकत कम होने लगी थी और जब परिणाम सामने आए तो स्थिति और ज्यादा खराब हो गई। अगर नागपुर तथा विदर्भ क्षेत्र के दिग्गज नेताओं के टिकट नहीं काटे गए होते तो आज राज्य में भाजपा की ही सत्ता होती। बहरहाल, फडणवीस तथा गडकरी को राज ठाकरे को अपना साथी बनाने से पहले गंभीर चिंतन करना होगा, क्योंकि भाजपा की छवि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के रूप में है और राज ठाकरे सिर्फ मराठी और महाराष्ट्र तक सीमित हैं। ऐसे में भाजपा को मनसे के बारे में उसी तरह सोचना होगा, जैसा उसने नारायण राणो को पार्टी में लेने से पहले सोचा था। भाजपा को राज ठाकरे से हाथ मिलाने से पहले हजारों बार सोचना होगा, ताकि भविष्य में उसे उस तरह का नुकसान फिर न उठाना पड़े जो उसे 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद सहन करना पड़ा है।
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