मुद्दा : फांसी इलाज नहीं, मलहम है
दिसम्बर 16, 2012 की रात हुई हैवानियत भुलाये नहीं भूलती। बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने के लिए 22 जनवरी की तारीख तय हो चुकी है।
मुद्दा : फांसी इलाज नहीं, मलहम है |
बड़ा वर्ग है, जो खुश है। बलात्कारियों को फांसी दिये जाने की मांग लगातार उठती रही है। हैदराबाद में पशु चिकत्सिक के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे जिन्दा जला कर मारने के बाद भी यही लोग अपराधियों को फंदे में लयकाने की मांग के साथ सड़कों पर थे। हर रोज, हर घंटे, हर कुछ मिनट के अंतराल में अपने इस देश में स्त्री की देह रौंदी जाती है। उसकी मर्जी के बगैर, जबरन उसे उठा कर पुरुष अपनी हवस पूरी करता है।
वह बेरहमी से उसे कुचलता है। नोंचता-खसोटा है। बचाव के लिए छटपटाती स्त्री को पीटता है। पूरी मर्दानगी के साथ अंग भंग करता है। बलात्कार की इनी-गिनी खबरें दैनिक अखबारों के भीतरी पन्नों पर कहीं भरावन जैसी जगह भी पा जाती हैं। जितने बलात्कार रोजाना होते हैं, सबकी छोटी-छोटी भी खबरें प्रकाशित करने का साहस कोई कर दे तो शायद दूसरी किसी खबर के लिए लेश मात्र जगह ही न बचे। फिर भी रेप की उन्हीं चुनिन्दा खबरों को प्रकाशित किया जाता है, जिनमें कुछ अतिरिक्त हो। जिनमें पीड़िता को घिनौनी हैवानियत से जूझना पड़ा हो। टीवी वालों को तो और भी रोचक सामग्री की मांग होती है। प्राइम टाइम में बलात्कार के लिए कोई स्थान ही नहीं है। कौन हैं ये लोग, जो इन खौफनाक खबरों से ऊपर नेताओं के फिजूल बयान रखते हैं। सड़क दुर्घटनाओं को भी रेप की वारदातों से ज्यादा तवज्जो मिल जाती है।
सच तो यह है कि सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली खबरों में क्राइम और खेल अव्वल रहते हैं। अपराध की खबरों में रेप भी शामिल है। लेकिन इनको लिखने और इनमें प्रयोग होने वाले शब्दों में मर्दाना बू शामिल होती है। क्राइम रिकार्ड ब्यूरो व पुलिस की सलाना रपट में हर दफा साफ होता है कि बलात्कारियों में 90 फीसद तक पहचानी, रिश्तेदार या पड़ोसी होते हैं। अमेरिका में 2018 के दौरान दुष्कर्म के 1 लाख 27 हजार मामले पुलिस में रिपोर्ट किये गए। हैरत की बात है कि वहां भी 80 फीसद बलात्कारी पहचान के निकले। इंग्लैंड और वेल्स में 2017 के सव्रे में उजागर हुआ कि 39 फीसद अपराध पीड़िता के घर में हुए, जबकि 24 फीसद तो अपराधी के घर में हुए। इन इर्द-गिर्द के पुरुषों की नीयत कैसे पहचानी जाए? कैसे उन्हें उनकी हद में रहने की नसीहतें दी जाएं?
कैसे उन्हें यह समझाया जाए कि फांसी के फंदे उन्हें मुक्त नहीं करेंगे, बल्कि जिन्दगी भर उन्हें आत्मग्लानि और पश्चाताप को भोगना होगा, नासूर की तरह। उन्हें जख्मी करके, नमक छिड़कना होगा, सामूहिकता से। बार-बार, लगातार। चुटहिल करते हुए। बलात्कार स्त्री के जिस्म को ही तार-तार नहीं करता, बल्कि उसके समूचे वजूद को किरची-किरची कर डालता है। पीड़ित स्त्री का समूचा परिवार इस त्रासदी की पीड़ा ता-उम्र झेलता है। वे अपराधियों के खिलाफ थाना-कचहरी कर रहे हों तो भी उन्हें दुारियों से जूझना होता है। किसी कारण बलात्कारियों के खिलाफ आवाज ना उठा पाने वाले भी जबरदस्त छटपटाहट को जीते हैं। ये जो मामले मीडिया की जद में आ गए। जिन्हें लाखों लोगों का सहारा मिला। इनके अलावा उन घटनाओं के बारे में विचार करें, जिनकी किसी को कभी भनक तक नहीं लगी। हजारों-लाखों की तादाद में पुरुषों की आक्रामकता की शिकार लड़कियां गुपचुप सिसकते हुए जिन्दगी काटने को बेबस हैं। जिन्हें लगता है, बलात्कारियों को फांसी देने से भय फैलेगा, उन्हें थोड़ा ठहर कर सोचना होगा। काम पिपासु बलात्कार नहीं करते, ये स्त्री विरोधी पुरुष हैं, जिनकी नजर में स्त्री सिर्फ कमर से नीचे की वस्तु है। इनकी सोच पर प्रहार करना होगा। इन्हें तड़पाना होगा।
उस तड़पन का प्राचार भी करना होगा। जिन अपराधियों को अदालतों द्वारा फांसी पर लटकाने की सजा होती है, उनकी मानसिक स्थिति का सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। जब तक उन्हें फंदे पर चढ़ाया जाता है, तब तक वे रोज मरते हैं। किसी की मौत दूसरे के आनन्द का जरिया नहीं हो सकती। रेपिस्ट को जिन्दा रख कर मारने के लिए मजबूर करना होगा। उन लोगों के लिए मिसाल बनानी होगी, जिनके मगज में स्त्री देह के खिलाफ गलीचता भरी है। उसे मौत के घाट उतार कर, उस घुटन, उपेक्षा, तिरस्कार व लानत से बचा ना लिया जाए, जो उसने ऐंठ में फैलाये। बलात्कारियों की इस दुगर्ति को समाज के हर उस हिस्से तक गहरे से पहुंचाया जाए, जहां स्त्री का नामो-निशान है। नासूर को काट फेंकने की बजाए, उस पर घाव किये जाएं। ताकि नासूरों को पालने वाले भयभीत हों। उनकी मंशा भोथरी हो जाए। वे दहशत से खुद-ब-खुद मर जाएं।
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