विश्लेषण : शारदा पीठ की मुक्ति चाहिए

Last Updated 13 Jan 2020 02:36:16 AM IST

आज हमारे कार्यालय में शारदापीठ कश्मीर के शंकराचार्य स्वामी अमृतनंद देव तीर्थ पधारे। उन्होंने इस विषय में निम्न जानकारी दी।


विश्लेषण : शारदा पीठ की मुक्ति चाहिए

1947 में जब भारत आजाद हुआ था, तब जम्मू-कश्मीर का कुल क्षेत्रफल था 2,22,236 वर्ग किलोमीटर। जिसमें से चीन और पाकिस्तान ने मिलकर लगभग आधे जम्मू-कश्मीर पर कब्जा किया हुआ है और भारत के पास केवल 1,02,387 वर्ग किमी कश्मीर भूमि शेष है। राज्य के जो भाग आज हमारे पास नहीं हैं, उनमें से गिलगिट, बाल्तिस्तान, बजारत, चिल्लास, हाजीपीर आदि हिस्से पर पाकिस्तान का सीधा शासन है और मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली और छंब आदि इलाके हालांकि स्वायत्त शासन में हैं परंतु ये इलाके भी पाक के नियंत्रण में हैं।
पाक नियंत्रण वाले इसी कश्मीर के मुजफ्फराबाद जिले की सीमा के किनारे से पवित्र ‘कृष्ण-गंगा’ नदी बहती है। कृष्ण-गंगा नदी वही है, जिसमें समुद्र मंथन के पश्चात शेष बचे अमृत को असुरों से छिपाकर रखा गया था और उसी के बाद ब्रह्मा जी ने उसके किनारे मां शारदा का मंदिर बनाकर उन्हें वहां स्थापित किया था। जिस दिन से मां शारदा वहां विराजमान हुई उस दिन से ही सारा कश्मीर ‘नमस्ते शारदादेवी कश्मीरपुरवासिनी/त्वामहंप्रार्थये नित्यम् विदादानम च देहि में’ कहते हुए उनकी आराधना करता रहा है और उन कश्मीरियों पर मां शारदा की ऐसी कृपा हुई कि आष्टांग योग और आष्टांग हृदय लिखने वाले वाग्भट वहीं जन्में, नीलमत पुराण वहीं रची गई, चरक संहिता, शिव-पुराण, कल्हण की राजतरंगिणी, सारंगदेव की संगीत रत्नकार सबके सब अद्वितीय ग्रन्थ वहीं रचे गए, उस कश्मीर में जो रामकथा लिखी गई उसमें मक्केर महादेव का वर्णन सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से आया। शैव-दार्शनिकों की लंबी परंपरा कश्मीर से ही शुरू हुई।

चिकित्सा, खगोलशास्त्र, ज्योतिष, दर्शन, विधि, न्यायशास्त्र, पाककला, चित्रकला और भवन शिल्प विधाओं का भी प्रसिद्ध केंद्र था कश्मीर। क्योंकि उस पर मां शारदा का साक्षात आशीर्वाद था। ह्वेनसांग के अपने यात्रा विवरण में लिखा है शारदा पीठ के पास उसने ऐसे-ऐसे विद्वान देखे, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। शारदापीठ के पास ही एक बहुत बड़ा विद्यापीठ भी था, जहां दुनिया भर से विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे। मां शारदा के उस पवित्र पीठ में न जाने कितने सहस्त्र वर्षो से हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पक्ष अष्टमी के दिन एक विशाल मेला लगता था, जहां भारत के कोने-कोने से वाग्देवी सरस्वती के उपासक साधना करने आते थे। भाद्रपद महीने की अष्टमी तिथि को शारदा अष्टमी इसीलिए कहा जाता था। शारदा तीर्थ श्रीनगर से लगभग सवा सौ किलोमीटर की दूरी पर बसा है और वहां के लोग तो पैदल मां के दर्शन करने जाया करते थे। शास्त्रों में एक बड़ी रोचक कथा मिलती है कि कथित निम्न जाति के एक व्यक्ति को भगवान शिव की उपासना से एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम उस दंपति ने शांडिल रखा। शांडिल बड़े प्रतिभावान था। उनसे जलन भाव रखने के कारण ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवित संस्कार करने से मना कर दिया। निराश शांडिल को ऋषि वशिष्ठ ने मां शारदा के दशर्न करने की सलाह दी और जब वो वहां पहुंचे तो मां ने उन्हें दर्शन दिया उन्हें नाम दिया ऋषि शांडिल्य।
आज हिन्दुओं में हरेक जाति में शांडिल्य गोत्र पाया जाता है। हिन्दू धर्म का मंडन करने निकले शंकराचार्य जब शारदापीठ पहुंचे थे तो वहां उन्हें मां ने दर्शन दिया था और हिन्दू जाति को बचाने का आशीर्वाद भी। उन्हीं मां शारदा की कृपा से कश्मीर के शासक जैनुल-आबेदीन का मन बदल गया था। जब वो उनके दर्शन के लिए वहां गया था और उसने कश्मीर में अपने पिता सकिंदर द्वारा किये हर पाप का प्रायश्चित किया। इतिहास की किताबों में आता है कि मां शारदा की उपासना में वो इतना लीन हो जाता था कि उसे दुनिया की कोई खबर न होती थी। भारत के कई हिस्सों में जब यज्ञोपवीत संस्कार होता है तो बटु को कहा जाता है कि तू शारदा पीठ जाकर ज्ञानार्जन कर और सांकेतिक रूप से वो बटुक शारदापीठ की दिशा में सात कदम आगे बढ़ता है और फिर कुछ समय पश्चात इस आशय से सात कदम पीछे आता है कि अब उसकी शिक्षा पूर्ण हो गई है और वो विद्वान बनकर वहां से लौट आ रहा है। एक समय था जब ये सांकेतिक संस्कार एक दिन वास्तविकता में बदलता था क्योंकि वो बटुक शिक्षा ग्रहण करने वहीं जाता था मगर दुर्भाग्य से हमारी ‘मां शारदा’ हमारे पास नहीं है और हम उनके पास जाएं ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है तो शायद अब यज्ञोपवीत की ये रस्म सांकेतिक ही रह जाएगी।
संतों, भक्तों, कश्मीरी पंडितों की भारत सरकार से मांग है कि हमको शारदापीठ की मुक्ति चाहिए, हमको शारदा पीठ तक जाना है। हमें दुनिया को बताना है कि ‘केवल शारदा संस्कृति ही कश्मीरियत’ है और इसलिए शारदापीठ पर भारत का पूर्ण नियंत्रण हो ऐसी मांग उठाई जा रही है। जब तक ये नहीं होता कम से कम तब तक करतारपुर साहिब कॉरिडोर की तर्ज पर ‘शारदादेवी कॉरिडोर’ अविलम्ब आरंभ हो इसकी मांग की जा रही है।
शारदा पीठ मंदिर एक स्थानीय लाल बलुआ पत्थर से बना है, जिसे मंदिर की वास्तुकला की शास्त्रीय कश्मीरी शैली में बनाया गया है। यह एक पहाड़ी पर है और पत्थर की सीढ़ी के माध्यम से एक मोटी पत्थर की दीवार और खंडहर गेटवे के अवशेषों से यहां  प्रवेश किया जाता है। खंडहर एक आयताकार क्षेत्र को घेरते हुए दिखाई देते हैं, जिसके एक बिंदु पर इसके कोनों को कम्पास के कार्डिनल बिंदुओं के साथ जोड़ दिया गया होगा।
मंदिर योजना में वर्गाकार है, और एक चौकोर चबूतरा है, जिसका द्वार पश्चिम की ओर है। मैदान और प्रवेश द्वार के बीच पांच चरण हैं, जो एक बिंदु पर एक अर्ध-छत वाली छत होती, जिसके पीछे एक ट्रेओफिल आर्क लगा होता था, जो आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता था। आज, यह क्षेत्र आकाश के संपर्क में है। इसका डिजाइन सरल है। स्थानीय उपासकों के लिए मार्तड सूर्य मंदिर के लिए एक सादे वास्तुशिल्प के रूप में मंदिर को डिजाइन किया गया था (या अधिक संभावना है, बाद में पुनर्निर्माण किया गया)। मार्तड सूर्य मंदिर और मालोट किले दोनों को समान रूप से डिजाइन किया गया है । जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने इसके लिए धन स्वीकृत किया था। पर मूल मंदिर अभी भी ध्वस्त है। स्थानीय मुसलमान भी इसे शारदा माई का मंदिर कहते हैं और चाहते हैं कि ये पुन: आबाद हो।

विनीत नारायण


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