नागरिकता कानून : पड़ोस से रहेंगे बेहतर संबंध

Last Updated 10 Jan 2020 05:22:36 AM IST

नये वर्ष के अभिनन्दन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी देशों के प्रधानमंत्री से बातचीत की, जिसमें बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना भी थी।


नागरिकता कानून : पड़ोस से रहेंगे बेहतर संबंध

प्रधानमंत्री ने उन्हें आवामी लीग के पुन: मुखिया चुने जाने की बधाई भी दी। भारत के कुछ  राजनीतिक दलों और विश्लेषकों का मानना है कि नागरिकता कानून की वजह से भारत के द्वारा शुरू किया गया प्रथम पड़ोसी देशों की विदेश नीति खटाई में पड़ जाएगी और हमारे सम्बन्ध बांग्लादेश और अफगानिस्तान से टूट जाएंगे। इस दलील में सच्चाई कम और अफवाह ज्यादा है। दरअसल, भारत के भीतर ही राजनीतिक विद्वेष की वजह से ऐसी बातें बोली और लिखी जा रही है। अगर नागरिकता कानून के अंतर्गत भ्रम फैलाया गया कि भारत में  तमाम घुसपैठियों को जबरदस्ती बांग्लादेश भेजा जाएगा।
यह स्थिति रोहिंग्या जैसी बन जाएगी जो 2017 में हुआ था। भारत ने बांग्लादेश को स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि नागरिकता कानून से किसी भी तरह की आंच भारत-बांग्लादेश सम्बन्ध पर नहीं पड़ेगा। जब शेख हसीना सितम्बर में अमेरिका में प्रधामंत्री मोदी से मिली थीं, उसके बाद नवम्बर में जब भारत आई थीं, उस दौरान भी इन मुद्दों पर बातचीत हुई थी। धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा हुआ। विभाजन के बाद से लेकर आज तक भारत की धर्म निरपेक्ष छवि बेदाग है। अल्पसंख्यक वर्ग के साथ भेदभाव नहीं हुआ। लेकिन क्या यही बात पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में भी है। आंकड़े और सबूत दुनिया के सामने हैं। तालिबान के शासनकाल में हिंदुओं पर घोर अत्याचार हुए। पाकिस्तान में हिंदू क्रिकेटर कनोजिया इस बात की ताकीद करता है कि टीम में हिंदू होने की वजह से उसके साथ भेदभाव किया जाता है। बांग्लादेश में भी अल्पसंख्यक समुदाय को हाशिये पर धकेला गया।

पाकिस्तान में तो पूरा शासन तंत्र ही धर्म परिवर्तन में जुटा हुआ है। इस धतकर्म को अभियान की तरह अंजाम दिया जाता है। जो लोग इसका विरोध करते हैं उन्हें जान से मार दिया जाता है। मुल्ला-मौलवी की शासन-सत्ता तक पहुंच होती है, जिसके कारण स्थानीय पुलिस उनका साथ देती है। पाकिस्तान स्थित अमरकोट की सरहिंदी मस्जिद, सिंध की अमरोथ शरीफ और भरचुंडी शरीफ कनवर्जन के लिए कुख्यात जगह हैं। ‘ह्यूमन राइट्स कमीशन ऑफ पाकिस्तान’ अपने एक शोध में बताता है कि जबरदस्ती कनवर्जन और निकाह के सबसे ज्यादा मामले सिंध एवं दक्षिणी पंजाब में होते हैं। बांग्लादेश भारत में निरंतर हो रहे घुसपैठ को मानने से इनकार करता है, जबकि इस बात के प्रमाणिक सबूत हैं। बांग्लादेशी अर्थशास्त्री और कई दशकों से शोध करने वाले डॉ. अबुल बरकत ने अनुसार, ‘बांग्लादेश में रोजाना 632 हिंदू गायब हो जाते हैं, घट जाते हैं और साल में इनकी संख्या 2,30,612 हो जाती है। हिंदुओं के पलायन का मुख्य कारण मजहबी उत्पीड़न और भेदभाव रहा है।’ 1947 में भारत और पाकिस्तान के विभाजन के समय पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में हिंदुओं की संख्या 28 प्रतिशत थी। 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद 1981 में वहां पहली जनगणना हुई।
उसमें हिंदू आबादी महज 12 प्रतिशत रह गई। वर्ष 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी घटकर नौ प्रतिशत से कम रह गई।  अगर बांग्लादेश को इस बात की फिकर है कि भारत ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के श्रेणी में बांग्लादेश को शामिल किया जहां पर अल्पसंख्यक समुदाय के साथ घोर अत्याचार होता है, तो इसमें सम्बन्ध बिगड़ने वाली कोई बात नहीं है। बांग्लादेश के सरकारी रिपोर्ट और यूनिसेफ की तमाम दस्तावेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि 2001 से लेकर 2007 तक जब बांग्लादेश में बी.एन.पी. की सरकार थी तो हिंदुओं के साथ हर स्तर पर बदसलूकी की गई। हजारों की संख्या में हिन्दू भागकर भारत में शरण लेने के लिए बाध्य हुए। शेख मुजीबुर्र रहमान के कत्ल के बाद बांग्लादेश कट्टर इस्लामिक  संगठनों के चंगुल में फंसता चला गया। जनरल इरशाद ने बांग्लादेश को एक इस्लामिक देश में तब्दील कर दिया। उसके बाद से वहां का समाज निरंतर विघटित होता चला गया। शेख हसीना ने भी अपने लम्बे कार्यकाल में भारत के साथ सम्बन्ध को मजबूत बनाने की पहल जरूर की, लेकिन धार्मिंक उन्माद और अल्पसंख्यक समुदाय पर हो रहे अत्याचार को मजबूती से रोकने में विफल रही। भारत की अंतराष्ट्रीय छवि भी नागरिकता कानून से प्रभावित नहीं होगा।
भारत ने पश्चिमी देशों और बेहद अहम इस्लामिक देशों के बीच अपनी बात कूटनीतिक तरीके से विश्वास दिला दिया है कि नागरिकता कानून भारत का आंतरिक निर्णय है, इससे भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर कोई कुठाराघात नहीं होने वाला है। भारत की आर्थिक स्थिति निश्चित रूप से मुश्किल में है, विकास दर गिरता जा रहा है, लेकिन पूरी उम्मीद है कि यह व्यवस्था बदलेगी। स्थिति बेहतर बनेगी। अगर पड़ोसी देशों के साथ आर्थिक सोच के आधार पर नाप तौल करे तो चीन का उदाहरण दुनिया के सामने है। जब साम्यवादी चीन का जन्म हुआ तो पूर्वी एशिया के अधिकांश देश चीन के साथ सम्बन्ध बनाने को इच्छुक नहीं थे, वही चीन जब 70 के दशक में आर्थिक बदलाव के जरिये एक शक्ति के रूप में उभरने लगा तो सभी पड़ोसी देश चीन की तरफ देखने लगे, तमाम सीमा विवाद के बावजूद चीन उनका सबसे महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश बना रहा। तकरीबन यही स्थिति भारत की भी है। चीन पिछले तीन दशकों से दक्षिण एशिया के देशों में अपनी धाक बढ़ाकर भारत विरोधी मुहिम चलाने की कोशिश में लगा रहा, लेकिन पिछले 5 वर्षो में चीन की दीवार में दरार पड़ चुका है। अब चीन के लिए संभव नहीं है कि नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और भारत के पड़ोसी देशों में अकूत सम्पति के बूते पर भारत विरोधी घेराबंदी कर सके। इसलिए भारत के पड़ोसी देशों को सुकून भारत के साथ मित्रवत सम्बन्ध बनाने में ही है। 
भारत की विदेश नीति में आंतरिक पक्ष की भूमिका पिछले दशकों में बढ़ी है। 1983 में जो हालात असम के उग्र आंदोलन को लेकर बने थे, उससे 2020 का राजनीतिक समीकरण बिल्कुल भिन्न है। भारत की प्रतिष्ठा और शक्ति अपने पड़ोसी देशों के सम्बन्धों पर निर्भर करता है। महाशक्तियों का हस्तक्षेप भारत के लिए मुश्किल पैदा कर सकता है। पड़ोसी देशों का विश्वास भी भारत से दूर होना चिंता का कारण बन सकता है। अफगानिस्तान में फिर से तालिबानी शक्तियां मजबूत होकर सत्ता के लिए दस्तक दे रही है। भारत का सम्बन्ध इस्लामिक देशों के साथ भी बेहतर हुआ है, उसे भी विकसित करने की चुनौती है। 2020 कई मानकों को तय करेगा। क्या भारत के आंतरिक राजनीतिक परिवर्तन से भारत की विदेश नीति आहत होगी? या भारत अपनी विदेश नीति को राजनीतिक परिवर्तन से बचाने में सफल होगा।

प्रो. सतीश सिंह


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