शिशु मृत्यु : सरकार को संजीदा होना ही होगा
राजस्थान में कोटा शहर के जेके लोन अस्पताल में बच्चों की मौत का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस शहर में अब तक करीब 113 बच्चों की मौत हो गई हैं।
![]() शिशु मृत्यु : सरकार को संजीदा होना ही होगा |
स्थित की गंभीरता को देखते हुए राजस्थान हाईकोर्ट ने राज्य के अस्पतालों में हो रही बच्चों की मौत को एक गंभीर मामला बताते हुए राज्य सरकार से जवाब-तलब किया है और सरकार से सफाई मांगी है।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग यानी एनसीपीसीआर ने जेके लोन अस्पताल का दौरा करने के दौरान पाया था कि अस्पताल की खिड़कियों में शीशे नहीं हैं और दरवाजे टूटे हुए हैं, जिसके कारण बच्चों को ठंड लग गई। आयोग ने साथ ही यह भी पाया था कि अस्पताल का रखरखाव भी सही नहीं है। बाल आयोग ने इससे पहले राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था और संगठन के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो ने कहा था कि अस्पताल परिसर में सुअर घूम रहे थे और स्टाफ की संख्या काफी कम थी। इन सबके बावजूद अस्पताल में बदइंतजामी की स्थिति में कोई सुधार नहीं हो रहा है और हालत अब भी खराब है। आलम यह है कि पीडियाट्रिक आईसीयू वार्ड की छत से पानी का टपकना जारी है और मीडिया रिपोटरे के मुताबिक, इसे ठीक करने के बजाय इस खामी को छुपाने के लिए अस्पताल प्रशासन ने वार्ड के फर्श पर कपड़ा बिछा दिया। पिछले एक साल में कोटा के जेके लोन अस्पताल में भर्ती होने वाले 16,892 बच्चों में से 960 से ज्यादा बच्चों की मौत हो गई है। इस अस्पताल में छह सालों में छह हजार बच्चों ने दम तोड़ दिया है और इनमें से 4,292 बच्चों की मौत एनआईसीयू में हुई है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर कब तक खराब उपकरणों, स्वास्थ्य कर्मचारियों की कम संख्या और शासन का उदासीन रवैया इन जैसे लाखों बच्चों की मौत की वजह बनता रहेगा।
ऐसा नहीं है कि बच्चों की मौत की खबर एक शहर से अचानक से समाने आई है। इससे पहले भी देश के कई अन्य शहरों में एक साथ कई बच्चों की मौत की खबर सामने आती रही हैं। हाल ही में गुजरात के दो सरकारी अस्पतालों में 196 बच्चों की मौत की खबर सामने आई थी। इसमें राजकोट में 111 और अहमदाबाद में 85 नवजातों ने दम तोड़ दिया। इसके अलावा राजस्थान के बीकानेर में 35 दिनों में 162 बच्चों ने दम तोड़ दिया। जोधपुर में 146 बच्चों की जान गई जबकि रांची के सरकारी अस्पताल रिम्स में हर महीने 96 बच्चों की मौत होती है। इतना ही नहीं, भोपाल के हमीदिया अस्पताल में एक साल में 800 बच्चों की मौत हुई, जबकि लखनऊ के केजीएमयू में एक साल में 650 बच्चों की मौत हो गई। इस मामले में पुणे शहर का ससून अस्पताल भी अछूता नहीं है और यहां भी साल भर में 208 बच्चों ने दम तोड़ दिया। देश भर के इन सरकारी अस्पतालों को देखने से लगता है कि बच्चों की मौत का एक सिलसिला है जो थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर यह सिलसिला कब तक चलेगा? बच्चों की मौत के मामले पर आखिर हम नींद से कब जागेंगे और एक-दूसरे पर दोषारोपन बंद कर काम करना कब शुरू करेंगे? बहुत दिन नहीं हुआ है जब बिहार में मुजफ्फरपुर और आसपास के जिलों में चमकी बुखार के कारण हमारे करीब 150 बच्चों की मौत हो गई थी। बिहार का मुजफ्फरपुर ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश का गोरखपुर भी दिमागी बुखार से कई साल से प्रभावित रहा है। आलम यह है गोरखपुर में भी बच्चे असमय ही मारे जाते रहे हैं। इस बीमारियों के दौरान भी हमें डॉक्टरों, अस्पतालों और संसाधनों की भारी कमी का सामना करना पड़ता है। ऐसे में सवाल तो उठता ही है कि क्या डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने के लिए हमें प्रयास नहीं करनी चाहिए और क्या दिन-प्रतिदिन मरते इन बच्चों को बचाया नहीं जा सकता?
ऐसा नहीं है कि अगर सरकार चाहे तो इस क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक भारत में इस समय 1499 यानी करीब 1500 व्यक्तियों पर केवल एक डॉक्टर है जबकि यह अनुपात 1000 व्यक्ति पर एक डॉक्टर का होना चाहिए। ऐसे में इस समय हमारे देश में 4.3 लाख डॉक्टरों की और जरूरत है। इसके अलावा स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की भी सख्त जरूरत है। राज्यों को स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के लिए अपने जीडीपी का खर्च बढ़ाना चाहिए। विशेषग्यों के मुताबिक केंद्र सरकार को घरेलू उत्पाद का 2.5 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करना चाहिए, जबकि राज्यों को स्वास्थ्य पर राज्य जीडीपी का औसतन 4.7 प्रतिशत से बढ़ाकर आठ प्रतिशत खर्च करना चाहिए। स्वास्थ्य बजट बढ़ाने से इसमें सुधार की भरपूर गुंजाइश नजर आती है।
| Tweet![]() |