दिल्ली चुनाव : तिकोनी भिड़ंत में आप

Last Updated 09 Jan 2020 05:21:02 AM IST

दिल्ली असेंबली के लिए होने वाले चुनाव-आठ फरवरी को मतदान और ग्यारह फरवरी को मतगणना-बेहद रोचक रहने वाले हैं।


दिल्ली चुनाव : तिकोनी भिड़ंत में आप

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पिछले दो  दशकों से सत्ता से बाहर है, और इस बार उसके पास सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट (एसीसी) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) जैसे राष्ट्रीय मुद्दों तथा जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में हिंसा जैसे उसके भगवा एजेंडा के लिए मुफीद महत्त्वपूर्ण स्थानीय मुद्दे के बल पर फायदा उठाने का मौका होगा।
दशकों से दिल्ली में दुतरफा चुनावी मुकाबले-कांग्रेस और भाजपा के बीच-होते रहे हैं। लेकिन 2013 में आम आदमी पार्टी (आप) के आविर्भाव के बाद से स्थिति बदली है। आप ने दिल्ली की राजनीतिक जमीन को पूरी तरह ढांप लिया है। 2015 के असेंबली चुनाव में आप ने कुल 70 में से 67 सीटें जीती थीं। कहने की जरूरत नहीं कि आप का जलवा कांग्रेस की कीमत पर है। लेकिन इस दफा मुकाबला इस मायने में रोचक रहने वाला है कि कांग्रेस उत्साह से सराबोर है, और भाजपा में कुछ राज्यों में चुनावी शिकस्त के चलते निराशा की स्थिति है। गौरतलब है कि बीते 15 महीनों के दौरान भाजपा के हाथों से पांच राज्यों में सत्ता फिसल चुकी है। आप भी 2015 के असेंबली चुनाव की अप्रत्याशित जीत को 2019 के लोक सभा चुनाव में दोहरा नहीं सकी। 

माना जा रहा है कि आप स्पष्ट बहुमत से जीतेगी। उसकी सीटों की संख्या 45 से 50 के बीच रह  सकती है। लेकिन उसकी मुख्य चिंता यह है कि 2019 के आम चुनाव में तिकोने मुकाबले में वह सबसे पीछे रह गई। मत प्रतिशत भी खासा गिरकर मात्र 18.1 प्रतिशत (जबकि 2015 के असेंबली चुनाव में 54.3 प्रतिशत था) रह गया। कांग्रेस का मत प्रतिशत जहां 2015 के असेंबली चुनाव में 9.7 प्रतिशत था, वहीं 2019 के लोक सभा चुनाव में खासा बढ़कर 22.5 प्रतिशत पर जा पहुंचा। दूसरी तरफ, बीते पांच वर्षो में भाजपा का मत प्रतिशत कमोबेश स्थिर रहा है। 2015 के असेंबली चुनाव में भाजपा ने 54.3 प्रतिशत हासिल किए थे वहीं 2019 के लोक सभा चुनाव में उसका मत प्रतिशत 56.6 रहा। कहना गलत न होगा कि आगामी चुनाव के नतीजे बहुत हद तक कांग्रेस के प्र्दशन पर निर्भर करेंगे। यदि कांग्रेस 2019 के आम चुनाव जैसा प्र्दशन भी करती है, तो बहुमत पाने की दृष्टि से नाकाफी होगा। अलबत्ता, वह खाता जरूर खोल सकती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी अपनी हालिया चुनाव जीत (राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखंड) पर निर्भर नहीं रह सकती। उसे हर हाल में अपने मत प्रतिशत में कम से कम 20 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी करनी होगी। करने से कहना आसान होता है। इतना मत प्रतिशत हासिल करने के लिए कांग्रेस को अपने पक्ष में सुनामी पैदा करनी होगी। लेकिन वह एक छोटी लहर तक पैदा करती नहीं दिख रही। उपरोक्त राज्यों में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता हासिल करने से रोक दिया हो लेकिन दिल्ली में आप ही भाजपा को सत्ता से दूर सकती है, कांग्रेस नहीं।
जहां तक भाजपा की बात है तो उसके लिए राजनीतिक दिल्ली में कुछ खास नहीं बदला है। पिछली बार भाजपा ने पूर्व पुलिस अधिकारी किरन बेदी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश करके भारी भूल कर दी थी और उसे मात्र तीन सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। किरन बेदी अपनी सीट तक नहीं जीत सकी थीं। इस बार भाजपा ने मुख्यमंत्री  पद के लिए कोई चेहरा पेश नहीं किया है। यहीं आप अपनी प्रतिद्वंद्वी भाजपा से बाजी मारती दिखने लगती है। आप नेता एवं मुख्यमंत्री न केवल अपनी पार्टी के निर्विवाद शीर्ष नेता हैं, मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पार्टी के चेहरे हैं, बल्कि उन्होंने बिजली-पानी तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में अपने शानदार काम से गरीब तथा निम्न मध्यम तबकों का दिल जीत लिया है। लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 5 जनवरी की रात हुई व्यापक हिंसा सबसे बड़ा मुद्दा बन सकती है। जेएनयू परिसर में विचित्र स्थिति पैदा हो गई थी जब हथियारबंद बेखौफ नकाबपोश बदमाश विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर पुलिस की मौजूदगी के बावजूद काफी देर तक विश्वविद्यालय प्रांगण में हिंसा बरपाते रहे। इस दौरान सड़क और हॉस्टलों की बिजली काट दी गई थी। नकाबपोश लोहे की छड़ों, हाकियों आदि से लैस थे। आरोप  है कि वे भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) से संबद्ध थे। इस हमले ने मुंबई में 2008 में हुए खौफनाक हमलों की याद दिला दी जब आतंकवादियों ने कमरे-कमरे जाकर मेहमानों को मौत के घाट उतार दिया था। उसी तरह जेएनयू में भी नकाबपोशों ने हॉस्टल-हॉस्टल जाकर तोड़फोड़ मचाई। छात्रों को मारा-पीटा। घंटों चले इस घटनाक्रम के दौरान पुलिस  मूकदर्शक बनी रही। उन्मादी लोगों के सुनियोजित लग रहे हमले को रोकने का पुलिस ने कुछ नहीं किया। न तो हमले से पहले और न  ही उसके बाद।
यदि भाजपा का वास्तव में जेएनयू में हुई हिंसा से कोई लेना देना नहीं है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सुनिश्चित करना होगा कि दिल्ली पुलिस इस हमले की तह तक  जाकर जांच करे। अपराधियों को हर हाल में कानून की गिरफ्त में लाया जाना सुनिश्चित करें। अभी तक तो ऐसा होता कुछ नहीं दिख रहा है। इसीलिए आम लोगों में  यह धारणा बनती जा रही है कि कहीं जेएनयू में हिंसा दिल्ली के असेंबली चुनाव को ध्यान में रखकर तो अंजाम नहीं दी गई। कहने की जरूरत नहीं कि जेएनयू में हिंसा से विश्व में भारत की छवि को गहरा झटका लगा है। वह भी तब जब इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन (इसरो) ने अपनी सफलता से विश्व भर में अपना लोहा मनवाया है। ये दो  घटनाक्रम भारत की दो तस्वीर पेश करते हैं। ग्यारह फरवरी को दिल्ली असेंबली के जो नतीजे आएंगे उनसे पता चलेगा कि इन दोनों तस्वीरों में  से उम्दा भारत की तस्वीर कौन सी है। दिल्ली में अधिकार-संपन्न पूरी विधानसभा नहीं  है। दिल्ली पुलिस व दिल्ली डवलपमेंट अथॉरिटी (डीडीए) जैसे विभाग सीधे केंद्र सरकार के अधीन हैं। एक तरह से दिल्ली राज्य ऐसा केंद्रशासित प्रदेश है, जिसकी अपनी विधानसभा है। लेकिन ऐेसे स्वरूप वाले पुडुचेरी से दिल्ली की तुलना ठीक नहीं होगी। दिल्ली की जनसंख्या दो करोड़ है, और आबादी के लिहाज से यह 150 देशों से बड़ा शहर है। दिल्ली का राजनीतिक महत्त्व इस तथ्य में निहित है कि यहां के चुनावी नतीजों से देश का राजनीतिक मूड झलकता है। कहना गलत न होगा कि नई दिल्ली में सत्ता का रास्ता दिल्ली से होकर गुजरता है।

राजीव शर्मा


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