अर्थव्यवस्था : मंदी को स्वीकारना होगा

Last Updated 22 Nov 2019 12:20:16 AM IST

आर्थिक स्थिति खराब होने, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा रेटिंग गिराने और अब खेतिहर मजदूरों के आत्महत्या की संख्या किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों से आगे निकलने जैसी डरावनी सूचनाएं रोज आ रही हैं।


अर्थव्यवस्था : मंदी को स्वीकारना होगा

उधर, सरकार के मुखिया चीन और आसियान देशों के साथ बन रहे नये क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग संगठन की सदस्यता लेने से इंकार कर दिया। उन्होंने भारत के आर्थिक महाशक्ति का अपना दावा भुलाकर तर्क दिया दिया कि हम चीन ही नहीं, इन छोटे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों से अभी मुकाबला नहीं कर सकते और इनके साथ व्यापार भारत के लिए बड़े घाटे का सौदा बन गया है। उल्लेखनीय है कि पहली बार भारत का विदेश व्यापार 2000 में पश्चिम की तुलना में पूरब से पिछड़ा था। आसियान के साथ जुड़ने की भागादौड़ी कर रहा था। अब अवसर आया तो उसने खुद से मना कर दिया।

पर इन कदमों को भारत की बदहाल आर्थिक स्थिति स्वीकार करने का प्रमाण भी माना जा सकता है क्योंकि अभी तक सरकार मंदी जैसी स्थिति न होने का दावा ही कर रही थी। सरकार की यह जिद क्यों है, समझना मुश्किल है क्योंकि वह इसके चलते टुकड़े-टुकड़े में जो फैसले ले रही है वे मंदी दूर करने की जगह साधनों की बर्बादी साबित हो रहे हैं। बजट पेश हुए छह महीने नहीं हुए और सरकार ने अमीरों पर कर से लेकर शेयर बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम पर हो रहे छल को रोकने के लिए जो कदम उठाए थे, वे सब उठा लिए गए हैं। चुनाव के पहले अंतरिम बजट की चर्चा तो छोड़ ही दें तब भी सरकार कई खेप में लाख करोड़ से ज्यादा का राहत दे चुकी है, जिसका बड़ा हिस्सा सीधे अमीरों की जेब में गया है, या बड़ी कंपनियों को दिया गया है।
विकास दर गिर रही है, पांच साल से विदेश व्यापार जस का तस पड़ा है। निवेश, आर्थिक उत्पादन (खासकर करखनिया) गिर रहा है, संरचना क्षेत्र का प्रदर्शन खराब है, रोजगार गिर रहा है, निवेश रिकॉर्ड गिरावट पर है, और बिक्री के आंकड़े उद्यमियों का हौसला गिरा रहे हैं, जिससे वे ‘महाबली’ सरकार की नाराजगी का खतरा उठाकर भी अपने दुख का सार्वजनिक इजहार करने लगे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की लगभग सभी कंपनियों की हालत खराब है, और बारी-बारी सबके बिकने या पस्त होने की खबरें आ रही हैं। कथित नौरत्न कंपनियों के ऑर्डर भी विदेशी या अपनी पसंद की निजी कंपनियों को देने से उनकी भी हालत खराब होने की खबरें हैं। बैंकों का एनपीए बारह लाख करोड़ पर आ गया है। नोटबंदी और जीएसटी ने जो कमर तोड़ी थी, सीधी होने का नाम नहीं ले रही। हमारे पड़ोसी और अभी तक पिछड़े रहे बांग्लादेश, वियतनाम, श्रीलंका भी हमसे आगे हो गए हैं पर मंदी को स्वीकार न करके भी सरकार जो कदम उठा रही है, वे मंदी से लड़ने की उल्टी दिशा हैं। कई बार लगता है कि यह समझ का फेर या गलती न होकर अपने प्रिय लोगों का खजाना भरने और बाकी सभी को भगवान भरोसे छोड़ने की सोची-समझी रणनीति है।
आर्थिक सलाहकार सलाह न मांगे जाने से परेशान होकर भाग रहे हैं, और सारे फैसले अनपढ़ लोग ले रहे हों तो इसे मात्र समझ का फेर मानना भी मूर्खता ही होगा। कायदे से आम लोगों को काम और धन उपलब्ध कराके उनकी आर्थिक और श्रम की भागीदारी बढ़ाना ही मंदी भगाने का सही तरीका है। सरकार ने मनरेगा जैसी पुरानी योजना के खर्च में हल्की तेजी लाने के अलावा इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। इसी के चलते ग्रामीण इलाके से मजदूरों के पलायन के साथ ही ग्रामीण उपभोग में तेज गिरावट की खबरें लगातार आ रही हैं। बेरोजगारी बढ़ने और खपत घटने का रिश्ता भी साफ है। सरकार का खंडन-मंडन चुनाव के हिसाब से ठीक हो सकता है, लेकिन जब हर कहीं से आर्थिक विकास दर गिरते जाने की खबर आ रही है, तो पांच ट्रिलियन की इकनॉमी लाने का दावा करने वाली सरकार को कुछ चीजें स्वीकार करके गंभीर कोशिश शुरू करनी चाहिए। एक पुराने मुख्य आर्थिक सलाहकार तो विकास दर के सात फीसदी के करीब के सरकारी अनुमान में ढाई फीसदी तक का खोट मानते हैं। यहां हम नये सूचकांक बनाने के समय करीब दो फीसदी का मार्जिन छोड़ने को लेकर हुई चर्चा को याद कर सकते हैं, बल्कि मोदी राज में सारे सरकारी आंकड़ों का संदिग्ध हो जाना ही सबसे बड़ी आर्थिक त्रासदी है। मोदी और उनकी मंडली को लगता है कि राजनैतिक लुकाछुपी, बालाकोट जैसी चालाकी से चुनाव जीतने जैसे कारनामे हो सकते हैं, तो आर्थिक आंकड़ों की लुकाछिपी क्यों नहीं हो सकती। पर इस चक्कर में हो यह रहा है कि अंगरेजी हुकूमत और फिर नेहरू राज में महालोबनीस जैसे लोगों द्वारा पूरी स्वतंत्रता के साथ सांख्यिकी का जो जबरदस्त जाल बनाया गया था आज पूरी तरफ ध्वस्त हो गया है। सरकार खुद आंकड़े जुटाना रोकने की पैरवी करने लगी है। मोदी राज में सामने आए सारे आंकड़े दुनिया की नजर में अविसनीय बन गए हैं। इसके बावजूद हर बार नया महीना शुरू  होने के बाद भी जितने आंकड़े आ रहे हैं, वे अर्थव्यवस्था की बदहाली ही उजागर कर रहे हैं। छह संरचना क्षेत्र का प्रदशर्न तो दूरगामी नुकसान का सबसे पक्का संकेत देता है। कोयले के उत्पादन में तीस फीसदी तक की गिरावट आ गई तो भगवान ही मालिक हैं। इसका मतलब है कि दुनिया का सबसे बड़ा कोयले का भंडार रखते हुए भी हम इसी मद में कंगाल बनते जा रहे हैं। त्यौहारी सीजन में गाड़ियों की खपत घटी है। ट्रक, ट्रैक्टर ही नहीं, मोटरसाइकिलों तक की बिक्री में आई भारी गिरावट संकट के आगे और गहराने का संकेत दे रही है।
सरकार सच्चाई  स्वीकारने और एकमुश्त पैकेज देकर सबको काम पर लगाने की मुहिम छेड़ने की जगह बेमतलब दांवपेंच और अपने ‘लोगों’ को लाभ देने में लगी है। इन अपने लोगों की पहचान छुपी नहीं है। कुल कितने घरानों का कारोबार इस दौर में तेजी से बढ़ा है (वैसे पिछले शासन में भी ऐसे ही अधिकांश लोगों की संपत्ति तेजी से बढ़ी थी), उसका हिसाब छुपा नहीं है। अडानी समूह सर्वाधिक प्रिय हो सकता है पर अंबानी बंधुओं की भी कम नहीं चल रही। बीएसएनएल और एमटीएनएल का धंधा तो डूब ही गया है, या डुबो दिया गया है, अब उनकी सारी बेशकीमती संपत्ति और इंटरनेट नेटवर्क हड़पने की तैयारी है। सारी दूसरी निजी कंपनियां भी जियो के आगे दम तोड़ रही हैं, और उनका घाटा डेढ़ लाख करोड़ के आसपास पहुंच गया है। वोडाफोन प्रमुख ने काम छोड़ने तक की घोषणा कर दी थी तो उसके देसी पार्टनर बिड़ला भी हाथ खड़े कर चुके हैं। गिनती के लोग फल-फूल रहे हैं, और मुश्किल यह है कि सरकार मंदी से लड़ने के नाम पर जो कदम उठा रही है, वे ज्यादातर इन्हीं लोगों को लाभ दे रहे हैं।

अरविन्द मोहन


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