झारखंड चुनाव : रोचक होगा सियासी रण
हाल ही में महाराष्ट्र और हरियाणा में संपन्न विधानसभा चुनावों के परिणाम ने प्रचंड बहुमत वाले सत्ताधारी दल भाजपा को चकित कर दिया था।
झारखंड चुनाव : रोचक होगा सियासी रण |
जहां हरियाणा में भाजपा के ‘अबकी बार पचहत्तर पार’ के चुनावी दावे की हवा निकल गई वहीं महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को बहुमत मिलने के बावजूद भाजपा सरकार बनाने से चूक गई। एक तरफ हरियाणा में जेजेपी के दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व में नवगठित दल, जो भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा, ही सरकार बनाने में सहायक बना तो दुसरी तरफ दशकों पुराने सहयोगी दल शिवसेना ने सीएम पद पर दोनों के बीच फिफ्टी-फिफ्टी कार्यकाल के मुद्दे पर सहमति नहीं बनने की स्थिति में अपने पुराने सहयोगी दल भाजपा से नाता ही तोड़ लिया। अब वह वहां सरकार बनाने के लिए शरद पवार की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) और कांग्रेस के साथ वैकल्पिक गठजोड़ करने की दिशा में बढ़ चुकी है।
राज्यों की राजनीति में मोदी-शाह की रणनीति के बरक्स क्षेत्रीय दलों के भारी पड़ने के दौर की शुरुआत हो चुकी मानी जा सकती है। हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव अभियान में धारा 370 जैसे मुद्दे ही छाए रहे लेकिन चुनाव परिणाम को खास प्रभावित नहीं कर पाए। विकास और सुशासन के मुद्दों पर सरकार का आकलन किए जाने के साथ-साथ क्षेत्रीय मुद्दे ही हावी दिखे। झारखंड चुनावी संग्राम में जो कुछ घट रहा है, उससे ऐसे ही संकेत मिल रहे हैं। राज्य में भाजपा के एकमात्र सहयोगी दल आजसू का साथ छूटना भाजपा के चुनावी गणित को बिगाड़ सकता है। इसके अलावा, बिहार में भाजपा के सहयोगी दल लोजपा और जदयू ने भी झारखंड चुनावी रण में भाजपा से अलग अपनी किस्मत आजमाने का फैसला किया है। जाहिर है कि इन दोनों को साधे रखने में केंद्रीय नेतृत्व विफल रहा। इसके परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं।
एनडीए का पूर्णरूपेण विखंडित दृश्य उसके मजबूत गठबंधन को खारिज करता नजर आ रहा है। वर्तमान मुख्यमंत्री रघुबर दास ही भाजपा के चेहरे होंगे और वह गैर-आदिवासी हैं। इनके खिलाफ चुनाव मैदान में इन्हीं की कैबिनेट में मंत्री सरयू राय ने ताल ठोक दी है। वह रघुबर दास सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार को ही अपने चुनाव अभियान का मुख्य बिंदु बना रहे हैं। इनका समर्थन झामुमो के अलावा जदयू नेता नीतीश कुमार ने भी कर दिया है। इस प्रकार गठबंधन और चेहरे, दोनों ही मामलों में विपक्ष के लिए भाजपा को घेरना आसान होगा जबकि भाजपा का प्रतिद्वंद्वी पक्ष झामुमो, कांग्रेस और राजद मजबूत और स्पष्ट गठबंधन बनाने में सफल रहा है, और इस गठबंधन ने हेमंत सोरेन की मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषणा भी कर दी है।
नेता प्रतिपक्ष की भूमिका में हेमंत सोरेन की छवि साफ और मजबूत रही है, और उनका आदिवासी सामाजिक पृष्ठभूमि से आना भी लोक विमर्श में सकारात्मक दिखाई देता है। झारखंड को बिहार से अलग राज्य बनाने में आदिवासी सांस्कृतिक पहचान भी महत्त्वपूर्ण पहलू थी। झारखंड मुक्ति मोर्चा सुशासन और विकास के मुद्दों पर आदिवासी क्षेत्रों को लेकर निरंतर मुखर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि गठबंधन और चेहरे के दृष्टिकोण से भाजपा चुनाव अभियान में पिछड़ती जा रही है जबकि विपक्षी गठबंधन के लिए अच्छे संकेत दिखाई देते हैं।
ऐसी स्थिति में शंका है कि कहीं भाजपा की तरफ से किए जाने वाले दावे ‘अब की बार पैंसठ पार’ कहीं एक बार फिर हरियाणा की तरह फिसड्डी तो साबित नहीं हो जाएगा। राज्य की मौजूदा परिस्थिति में यह शंका निराधार नहीं है।
वर्ष 2000 में झारखंड राज्य के गठन के बाद भाजपा का शासन तेरह साल रहा और रघुबर दास के अलावा बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के मुख्यमंत्रित्व कालों को मिलाकर भाजपा ने पांच बार राज्य सरकार का नेतृत्व किया। झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबु सोरेन दो बार और हेमंत सोरेन एक बार मुख्यमंत्री रहे हैं।
कुल मिलाकर झामुमो ने साढ़े तीन साल तक सरकार चलाई है। लगभग दो साल के लिए सरकार का नेतृत्व एक निर्दलीय उम्मीदवार मधु कोड़ा ने किया और करीब दो साल राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा। वर्तमान भाजपा सरकार से सवाल पूछने वालों की कतार में विपक्षी दलों के अलावा उसके सहयोगी दल आजसू और मंत्री सरयू राय भी शामिल हो गए हैं। भाजपा को रोजगार, भुखमरी से मौत, भीड़ हिंसा, सुशासन और विकास से जुड़े कई प्रश्नों से जूझना पड़ेगा। ऐसी परिस्थिति में विकल्प देने के लिए कई दलों के साथ-साथ यूपीए गठबंधन भी झारखंड के चुनावी मैदान में डटा है। अभियान और परिणाम, दोनों के रोचक रहने की संभावना है।
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