सबरीमला : कोर्ट से न्याय की उम्मीद

Last Updated 21 Nov 2019 05:14:05 AM IST

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अहम फैसले सुनाए। साथ ही, सबरीमला मंदिर में 5 से 50 की उम्र की औरतों के प्रवेश के फैसले को पुन: समीक्षा के लिए सात जजों की बेंच को सौंपने का निर्देश दिया।


सबरीमला : कोर्ट से न्याय की उम्मीद

पिछली बेंच ने 3-2 के बहुमत से औरतों के मंदिर में प्रवेश के हक में फैसला दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अन्य मामले जैसे की औरतों का मस्जिद प्रवेश, पारसी औरतों का उनके धार्मिंक स्थल में प्रवेश, बोहरा औरतों का एफजीएम इत्यादि सभी याचिकाओं में धार्मिंक भावना का प्रश्न होने से इन सभी मामलों में अतिरिक्त गौर करना जरूरी है। सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये से हमारे लोकतंत्र एवं भारतीय समाज के बारे में गंभीर सवाल उठ खड़े होते हैं।
वैसे तो देश का संविधान सभी नागरिकों को समानता और न्याय देता है। आर्टकिल 13, 14 में विशेष रूप से औरतों के न्याय एवं लिंग भेदभाव के खिलाफ धाराएं साफ हैं। साथ ही, धर्मनिरपेक्ष देश में सभी नागरिकों को अनुच्छेद 24, 25 के तहत धर्म स्वातंत्र्य दिया गया है। यह अधिकार सभी को यानी कि महिला नागरिक हो या पुरु ष, दोनों को सामान रूप से दिया गया है। यह अधिकार हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी- यानी कि सभी धर्मो के नागरिकों को दिया गया है। दु:ख इस बात का है कि हमारे देश में मजहब या धर्म के नाम पर औरतों के प्रति अन्याय और भेदभाव का चलन चला आ रहा है। पुरुषवादी समाज ने धर्म को औरत के खिलाफ एक ऐसा हथियार बना दिया है, जो मन-मर्जी से उपयोग में लाया जा सकता है।

दु:ख इस बात का है कि हमारे देश में विभिन्न समाजों में पुरु ष-प्रधानता के चलते मदरे ने अपने आपको औरतों से उच्चतर मान कर सदियों से कई रीति-रिवाज बना रखे हैं। यही वजह है कि हाजी अली दरगाह हो या शनि मंदिर, सबरीमाला हो या पारसी टावर ऑफ साइलेंस, औरतों के प्रवेश पर मनमानी पाबंदियां लगाई जाती रही हैं। देश भर में सारे ही मजहब में धर्म से जुडी हर बात पर पुरुषों का कब्जा है। मंदिर, मस्जिद, गिरिजा एवं और धार्मिंक स्थानों का कारोबार चलाने वाले ट्रस्ट या संस्थानों में पुरु षों का वर्चस्व होता है। यदि कोई महिला सभ्य भी हो तो उसकी आवाज में ज्यादा ताकत नहीं होती। फिर धर्मगुरु  हों या मौलवी, पादरी हो या पंडित- धार्मिंक वर्ग के करता-हरता पुरु ष ही होते हैं। हालांकि धरती पर जन्म मां देती है, लेकिन सभी धर्मो में ईश्वर की परिकल्पना नर के रूप में है। इन हालात में हर धर्म में औरत का दरजा पुरु ष की तुलना में दोयम दरजे का ही होना स्वाभाविक है। कोर्ट और कानून से समाज की बंदिशों से आम लोगों को निजात मिल सकती है, और मिलती आई है। सती प्रथा, दहेज प्रथा, पत्नी की मार-पीट, बूढ़े मां-बाप से र्दुव्‍यवहार इत्यादि सभी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ देश में कानून है। धर्म के नाम पर औरतों से भेदभाव करने वाले समाज को यदि सुप्रीम कोर्ट भी नहीं सुधार सकता तो फिर देश की महिला नागरिक न्याय के लिए कहां जाएं? सरकारों से इस मामले में उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि राजनीतिक पार्टयिों की निगाह हमेशा वोट पर रहती है। ताकतवर धार्मिंक स्थापित हितों को सरकारें कभी चुनौती नहीं देतीं।
दूसरी ओर, पितृसत्तात्मक सोच वाले धर्मगुरु  या धर्मो के मठाधीश पुरु ष वर्ग से तो उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती। ऐसे हालात में न्याय और समानता की संविधानिक धाराएं और भेदभाव से संरक्षण देते अनुच्छेद काला अक्षर मात्र बना के रख दिए जाते हैं। क्या यहां वाकई में बात मजहब की है, या मजहब की आड़ में पुरु ष वर्चस्व को आगे किया जा रहा है? यह तो सब मानते हैं कि ईश्वर या अल्लाह या भगवान या गॉड ने सृष्टि बनाई और इस सृष्टि में मानव प्रजाति एवं अन्य जीव बनाए। ईश्वर या सर्जनहार ने भेदभाव नहीं किया। नर और मादा दोनों बराबर को बनाया। चलते चलते विश्व भर में समाजों ने औरत को घर की चारदीवारी में कैद करना शुरू किया। पुरु षों एवं राज्य संस्थानों तथा पुरु षवादी धार्मिंक संस्थानों ने मिलकर औरत का स्थान तय किया। औरत की भूमिका की सीमाएं तय कीं। औरत को घर में, समाज में, देश में-हर क्षेत्र में भेदभाव की नजर से देखा गया। और धर्म पर तो जैसे की पुरुष ने पैदाइशी कब्जा जमा लिया। औरत के शरीर और जैविक हकीकतों के आधार पर औरत को अशुद्ध या नापाक घोषित कर  दिया गया। फिर धर्मगुरु  तो पुरु ष ही हो सकता है। फिर औरतों को मंदिर-मस्जिद-गिरिजाघर में सीमित प्रवेश ही मिल सकता है।  धर्म  के नाम पर औरत विरोधी किस्से कहानियां, विधियां, रस्म-ओ-रिवाज, दस्तूर, चलन इत्यादि खूब प्रचलित हुए। यह हाल दुनिया के सभी धर्मो का है। अगर 21वीं सदी के इंटरनेट युग में भी यह ही पैमाना चलता रहे और संविधान की तौहीन हो तो क्या सुप्रीम कोर्ट खामोश रह सकता है? यह बात सही है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का बुनियादी उसूल है, और इस नाते सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि उसे धार्मिंक मामलों में दखल नहीं देना चाहिए। मुझे मूलत: इस उसूल से आपत्ति नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कई धार्मिंक मामलों में फैसले सुनाए हैं।
दु:ख इस बात का है कि जब औरतों के सामान हकों की बात आती है, तो संविधान के बावजूद और धर्म स्वतंत्र के अधिकार के बावजूद कुछ न कुछ अड़चन खड़ी हो जाती है। अगर एसेंशियल प्रैक्टिस के नाम पर लगातार औरत के साथ अन्याय होता रहे तो कोर्ट की क्या भूमिका होनी चाहिए? अगर औरत की रूह या अंतरात्मा उसे कह रही हो कि मैं हाजी अली मजार में जाकर ज्यारत पढ़ना चाहती हूं, या शनि मंदिर के गर्भगृह में जाकर पूजा करना चाहती हूं तो उसे प्रवेश न देना क्या उसके धार्मिंक अधिकार का हनन नहीं होगा? फिर किसी पुरु ष के धार्मिंक अधिकार से यदि लगातार औरत के अधिकार की अवहेलना होती रहे तो क्या यह सही है?
साफ जाहिर है कि मदरे ने अपनी सोच के मुताबिक ईश्वर या अल्लाह को ढाल दिया है। अपनी सोच के मुताबिक ईश्वर की परिकल्पना कर रखी है। जाहिर सी बात है कि यह मामला धर्म का कम है, और पुरुष-प्रधानता का ज्यादा। कई औरतें घर में पूजा-प्रार्थना-इबादत करके संतुष्ट हैं, लेकिन सभी धर्मो की कुछ औरतों ने इस अन्याय के खिलाफ कानूनी एवं सामाजिक मुहिम छेड़ रखी है। कानून बदलेगा तो धीरे-धीरे समाज भी बदलेगा। आज हमारे देश में सती प्रथा या विधवा उत्पीड़न या तीन तलाक पर पाबंदी है। कोर्ट से यही उम्मीद है कि वह न्याय करके देश को बेहतर बनाने में योगदान दे।

जकिया सोमन


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