स्मृति शेष : दुख ही जीवन की गाथा रही

Last Updated 15 Nov 2019 12:24:11 AM IST

अमेरिकी अर्थशास्त्री एवं गणितज्ञ जॉन फोब्रस नैश 1928-2015 करीब एक दशक तक सिजोफ्रेनिया से पीड़ित रहे।


स्मृति शेष : दुख ही जीवन की गाथा रही

उचित इलाज के बाद ठीक भी हो गए थे। बाद में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला। यहां के कुछ लोग सवाल पूछते रहे कि नैश ठीक हो सकते हैं, तो फिर बिहार के गौरव डॉ. वशिष्ठ नारायण सिंह क्यों नहीं? इसका जवाब यही हो सकता है कि भारत न तो अमेरिका है, और न ही यहां की सरकारें अमेरिका जैसी हैं।
दरअसल, अद्भुत प्रतिभा के धनी रहे गणितज्ञ डॉ. सिंह के साथ विडंबना रही कि बीमार होने के बाद वे लगातार तरह -तरह की उपेक्षा के शिकार रहे। ऐसी प्रतिभा की भी उपेक्षा  शायद हमारे सिस्टम की भी देन है। 14 नवम्बर, 2019 की सुबह जब डॉ. सिंह की तबियत बिगड़ी तो उन्हें पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाया गया। वहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। सत्तर के दशक में मानसिक रूप से बीमार हो जाने के साथ ही सिंह की पत्नी वंदना सिंह ने उन्हें तलाक दे दिया। 1944 में बिहार के भोजपुर जिले के गांव बसंत पुर में जन्मे वशिष्ठ नारायण सिंह को उनके जीवन के प्रारंभिक साल में खूब प्रसिद्धि मिली। उनकी अद्भुत प्रतिभा से पहले पूरा बिहार और बाद में बाहर के लोग चमत्कृत हुए पर जब सिजोफ्रेनिया के कारण कुछ करने लायक नहीं रहे तो उनके कांस्टेबल पिता लाल बहादुर सिंह ने कहा था, ‘मेरा तो सोने का जहाज डूब गया।’ उसी दुख के साथ वे गुजर गए। वशिष्ठ जी के भाई और बहनोई ने उनकी देखभाल की। हम लोग तो अद्भुत प्रतिभा के धनी गणितज्ञ वशिष्ठ बाबू के जमाने के छात्र थे और उनसे मिले बिना भी उनसे प्रेरित होते थे। उन दिनों राज्य भर की शिक्षण संस्थाओं में वशिष्ठ जी की यदाकदा चर्चा होती रहती थी। वे बिहार के गांवों में भी दंतकथा के पात्र थे। हों भी क्यों नहीं?

उनके लिए पटना विश्वविद्यालय ने पहली बार नियम बदल कर जल्दी-जल्दी उन्हें एम.एससी. करवा दी थी। उन्होंने 1962 में हायर सेकेंड्री परीक्षा पास की थी। प्रतिष्ठित नेतरहाट स्कूल में पढ़े वशिष्ठ जी बिहार बोर्ड के टॉपर थे पर जब पटना साइंस कॉलेज में दाखिला लिया तो शिक्षकों ने पाया कि ये तो ऊंची कक्षाओं के विषयों में भी पारंगत हैं। वशिष्ठ जी को पटना साइंस कॉलेज के प्राचार्य नागेंद्र नाथ और कुलपति जैकब से मिलवाया गया। उन्होेंने पाया कि वशिष्ठ को एम.एससी. कराने के लिए 5 साल का लंबा समय लगाना निर्थक है। समय से पहले ऊंचे क्लास की परीक्षा में बैठाने के लिए पटना विश्वविद्यालय के नियम में परिवर्तन किया गया। नतीजतन, वे 1965 में ही एम.एससी. कर गए। इस बीच, वर्कले  विश्वविद्यालय के गणितज्ञ जॉन एल. केली एक सेमिनार के सिलसिले में पटना आए। पटना साइंस कॉलेज के प्रिंसिपल नागेंद्र नाथ ने वशिष्ठ जी को केली से मिलवाया। केली ने उनकी प्रतिभा देखी तो उन्हें अमेरिका ले गए।  वहां 1969 में तो उन्होंने  पीएच.डी. कर ली। कुछ समय ‘नासा’ के लिए भी काम किया।
चर्चा थी कि वशिष्ठ आइंस्टीन की सापेक्षता थ्योरी को चुनौती दे रहे थे। यह भी चर्चा रही कि केली उन्हें अपना दामाद बनाना चाहते थे पर वशिष्ठ के भारतीय पिता इस शादी के खिलाफ थे। 1973 में वशिष्ठ जी की शादी भोजपुर के ही पास के सारण जिले के खलपुरा गांव के डॉ. दीपनारायण सिंह की पुत्री वंदना से हुई। अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने आई.आई.टी., कानपुर, टी.आई.एफ.आर., मुम्बई और इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टीट्यूट, कोलकाता में बारी-बारी से काम किया। संस्थान में अनेक शोधार्थी वशिष्ठ नारायण सिंह से मार्गदशर्न ले रहे थे पर कुछ ही साल बाद उनके दिमाग के तंतु उलझ गए यानी वे सिजोफ्रेनिया के मरीज हो गए। जिनके ज्ञान से ‘नासा’ ने अंतरिक्ष मिशन को आगे बढ़ाया, वह अपने गांव में वर्षो तक गुमनामी में जीते रहे थे। बीच -बीच में रांची और बेंगलुरू में उनका इलाज भी चला पर लोगों की धारणा थी कि सरकार को उनका बेहतर इलाज कराना चाहिए था। 1989 में एक ट्रेन यात्रा के दौरान वशिष्ठ जी अपने भाई से बिछुड़ गए थे। लगातार चार साल तक  गायब रहे। 1993 में नाटकीय ढंग से अपनी सुसराल के पास के एक गांव में पाए गए। उन्हें उनके गांव बसंत पुर के युवकों ने पहचान लिया था।
हाल के वर्षों में ‘नोवा’ ने वशिष्ठ जी  के  पटना में रहने की व्यवस्था कर दी थी।  नोवा यानी नेतरहाट के पूर्ववर्ती छात्रों का संगठन। इसके सदस्य बड़े-बड़े पदों पर रहे हैं। वशिष्ठ जी का उदाहरण इस बात की जरूरत बताता है कि ऐसी प्रतिभाओं के लिए सरकार पेंशन का प्रावधान करे।

सुरेन्द्र किशोर


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