महाराष्ट्र : अनिश्चितता के भंवर में
महाराष्ट्र की राजनीति का महादुर्भाग्य यह है कि स्पष्ट बहुमत का जनादेश मिलने के बावजूद भी वह राजनीतिक अस्थिरता का शिकार बन रहा है।
महाराष्ट्र : अनिश्चितता के भंवर में |
हमारे देश की राजनीति की सबसे बड़ी बीमारी वंशवाद है, और उसने अब महाराष्ट्र की राजनीति को भी डस लिया है। कभी कैकयी के पुत्रमोह ने अयोध्या को राजनीतिक संकट में धकेल दिया था। इस घोर कलयुग में एक बार त्रेता युग की कहानी दोहराई जा रही है। इस बार एक पिता के पुत्रमोह ने महाराष्ट्र की राजनीति को अस्थिरता की मझधार में डाल दिया है।
हम जिस कहानी का जिक्र कर रहे हैं, उस कहानी के नायक हैं ठाकरे कुलदीपक उद्धव ठाकरे। वह भी भारत के अन्य राजनीतिज्ञों की तरह ही वंशवाद के असाध्य रोग से ग्रस्त हैं। उनकी हार्दिक इच्छा है कि उनका पुत्र येनकेन प्रकारेण राज्य का मुख्यमंत्री बने। यह अनोखी इच्छा भी पूरी हो सकती थी यदि उनकी पार्टी के पास बहुमत होता। मगर उनकी पार्टी महाराष्ट्र के एनडीए की छोटी भागीदार है। बड़ी भागीदार भाजपा के पास 105 सदस्य हैं, शिवसेना के पास लगभग आधे 56 विधायक। मगर उद्धव ठाकरे की जिद थी कि उनका ही बेटा मुख्यमंत्री बने। भाजपा ने इस जिद को नहीं माना तो उद्धव ने केसरिया गठबंधन को ही छोड़ दिया, अपनी हिंदुत्व की विचारधारा को भी अलविदा कह दिया और अब यूपीए के साथ गठबंधन कर सरकार बनाने की जुगत में हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि वंशवाद किस तरह से हमारी राजनीति को विचारधाराविहीन और अलोकतांत्रिक बना रहा है, जहां कार्यकर्ताओं के काम और संघर्ष से ज्यादा महत्त्व इस बात का है कि वे किस वंश में पैदा हुए हैं। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर राज्य को राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति में ढकेल दिया है।
भाजपा के नेता और राजग के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस के कारण राज्य ने राजनीतिक स्थिरता का दौर देखा था। उनसे पहले केवल राज्य के मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक ही ऐसे मुख्यमंत्री रहे जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इस बार तो राजग के स्पष्ट जनादेश प्राप्त करने के बावजूद महाराष्ट्र में सरकार नहीं बन पाई क्योंकि उसे उद्धव की पुत्रमोह की राजनीति का ग्रहण लग गया। शिवसेना ने राजग का तीस साल पुराना गठबंधन भी छोड़ दिया जिसके बारे में कहा जाता था कि यह प्राकृतिक गठबंधन है क्योंकि समान विचारधारा पर आधारित है।
इसके अलावा, वैचारिक रूप से विरोधी दो दलों कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ गठबंधन किया मगर साद्य कुछ नहीं हुआ। सरकार बनना संभव नहीं हो पाया। और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। हालांकि विपक्षी दल राज्यपाल पर आरोप लगा रहे हैं कि उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हुआ। उन्हें पर्याप्त समय नहीं दिया गया। मगर उनके तर्क में इसलिए दम नहीं है कि नतीजे आए अठारह दिन हो गए थे मगर वे बहुमत जुटा नहीं पाए। वैसे भी राष्ट्रपति शासन कोई पत्थर की लकीर नहीं है कि जिसके बाद सरकार बनाने की सारी संभावनाएं खत्म हो जाती हों। विपक्षी दल जब भी बहुमत सिद्ध कर सकें तो उनकी सरकार बन सकती है। दरअसल, विपक्षी दल भले ही राष्ट्रपति शासन का विरोध कर रहे हैं मगर उनके नेता यह भी कह रहे हैं कि उन्हें बहुमत साबित करने के ले पर्याप्त समय मिल गया है।
राष्ट्रपति शासन से राजनीतिक दलों को भले ही बहुमत साबित करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया हो मगर उससे राज्य को स्थिर सरकार मिल पाएगी, इसकी संभावना कम है। महाराष्ट्र के पड़ोसी राज्य कर्नाटक में कांग्रेस और जद(एस) ने सरकार बनाई थी मगर वह लंबे समय तक चल नहीं पाई। महाराष्ट्र में तो तीन राजनीतिक दल होंगे जिनकी विचारधारा भी एक दूसरे से नहीं मिलती। न ही उनकी नीतियों में समानता है। वे दल कैसे स्थिर सरकार दे पाएंगे। पहले चर्चा थी कि शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी सरकार बनाएंगे और कांग्रेस बाहर से समर्थन देगी। मगर अब कांग्रेस भी सत्ता की होड़ में शामिल हो गई है। इसलिए तीन दलों के बीच सत्ता की होड़ शुरू होगी। अब तीन दलों को बीच यह तय होगा कि किसके पास कितने समय के लिए मुख्यमंत्री पद रहेगा..इसके अलावा, किसको कौन-सा मंत्रालय मिले। इस पर भी संघर्ष होगा। अभी भले ही कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने को तैयार हो गई हो मगर अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि मुख्यमंत्री कौन होगा। यदि शिवसेना आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाती है, तो क्या ये दल आदित्य ठाकरे के मातहत काम करने को तैयार होंगे। फिर इनका अभी तक न्यूनतम कार्यक्रम भी तय नहीं है।
एक तरफ राजनीतिज्ञ सरकार बनाने में मशगूल हैं, तो दूसरी तरफ जनता का धैर्य खत्म होता जा रहा है। जनता में इस बात को लेकर आक्रोश है कि नतीजे आने के बीस दिन बाद भी सरकार नहीं बनी। नेता समस्याओं को सुलझाने के बजाय अपनी महत्त्वाकाक्षाएं पूरी करने में लगे हैं जबकि किसान कई तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं। यह सब देखकर जनता को लग रहा है कि उसने वोट देकर गलती की। शिवसेना, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की महाशिवआधाडी गठबंधन की सरकार को लेकर जनता बहुत आस्त नहीं है। उनके सामने सवाल है कि अब तक एक दूसरे के घोर विरोधी रहे राजनीतिक दल क्या एक दूसरे के साथ सरकार चला पाएंगे। आखिरकार, शिवसेना और कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की नीतियां और कार्यक्रम बिल्कुल अलग हैं। ऐसे में उनमें कैसे तालमेल बैठेगा। यह भी कहा जा रहा है कि इनमें से किसी ने अपने पुराने कार्यक्रमों को छोड़ने की बात नहीं कही है। जैसे समान नागरिकता कानून पर शिवसेना की सोच कांग्रेस से बिल्कुल अलग है। वह कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ कैसे तालमेल बिठाएगी। कर्नाटक का अनुभव सबके सामने है। कांग्रेस और जद(एस) तो समान विचार वाले और सेक्युलर दल हैं। उनकी सरकार मतभेदों और मनभेदों की शिकार हो गई।
ऐसे में तीन दलों की सरकार कब तक टिक पाएगी, जिनमें एक कट्टर हिंदुत्ववादी है, तो दो दल सेक्युलर। उनका सरकार चला पाना लगभग असंभव है। मगर सत्ता के लिए राजनीतिक दल कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। ऐसे में आदित्य ठाकरे जैसे अनुभवहीन युवा के नेतृत्व में सरकार चलाना गठबंधन के लिए आसान नहीं होगा। मगर भाजपा को सत्ता में आने से रोकने में विरोधी दल कुछ भी कर सकते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि तीनों दल एक दूसरे से कह रहे हैं कि हम तो डूबेंगे सनम, तुमको भी लेकर डूबेंगे। और फिर कर्नाटक की नवीनतम मिसाल उनके सामने है ही।
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