आरटीआई एक्ट : दोटूक सुप्रीम फैसला

Last Updated 15 Nov 2019 12:27:56 AM IST

तेरह नवम्बर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आरटीआई एक्ट पर ऐतिहासिक फैसला दिया।


आरटीआई एक्ट : दोटूक सुप्रीम फैसला

सभी पांचों न्यायाधीशवृंद ने एकमत से कहा कि पारदर्शिता कानून के तहत भारत के प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय लोगों के प्रति जवाबदेह है। गौरतलब है कि एक दशक से ज्यादा समय तक चली अदालती कार्यवाही के पश्चात इस मामले का फैसला हो सका है।

जनवरी, 2009 में केंद्रीय सूचना आयुक्त ने सुप्रीम कोर्ट के जन संपर्क अधिकारी को निर्देश दिया था कि वे एक आवेदक को बताएं कि सुप्रीम कोर्ट के 1997 में पारित प्रस्ताव के अनुरूप क्या सुप्रीम कोर्ट या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों ने अपने-अपने प्रधान न्यायाधीशों के समक्ष अपनी-अपनी संपत्तियों की घोषणा की है। केंद्रीय सूचना आयुक्त के आदेश को सुप्रीम कोर्ट के जन संपर्क अधिकारी ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी। चुनौती का आधार था कि यह सूचना सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री के पास या नियंत्रण में नहीं होती बल्कि भारत के प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय के पास होती है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने पारदर्शिता के पक्ष में फैसला देते हुए कहा कि भारत के प्रधान न्यायाधीश सूचना का अधिकार कानून के तहत सार्वजनिक प्राधिकार हैं। इसलिए उनके समक्ष संपत्ति संबंधी जो भी घोषणाएं की जाती हैं, वे सूचना का अधिकार कानून के तहत ‘जानकारियां’ के रूप में परिभाषित हैं। इन्हें मुहैया कराने से इनकार नहीं किया जा सकता। इस फैसले के खिलाफ  सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जन संपर्क अधिकारी ने सुप्रीम कोर्ट  का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट के जन संपर्क अधिकारी को मुख्य सूचना आयुक्त ने जानकारी मुहैया कराने संबंधी दो और आदेश भी दे रखे थे, उन्हें भी सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। एक मामले में एक आवेदक ने आरटीआई एक्ट के तहत जस्टिस एपी शाह, जस्टिस एके पटनायक और जस्टिस वीके गुप्ता की वरिष्ठता को नजरंदाज करते हुए जस्टिस एचएल दत्तु, जस्टिस एके गांगुली और जस्टिस आरएम लोढ़ा को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किए जाने संबंधी जानकारी मांगी गई थी। पूछा गया था कि इस सिलसिले में प्रधान न्यायाधीश और अन्य संवैधानिक प्राधिकारों के बीच क्या खतो-किताबत हुई। लेकिन यह जानकारी सुप्रीम कोर्ट  के मुख्य जन संपर्क अधिकारी ने मुहैया कराने से इनकार कर दिया था। मुख्य सूचना आयुक्त ने आवेदक के आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य जन संपर्क अधिकारी को यह जानकारी मुहैया कराने का निर्देश दिया था।

इसके खिलाफ मुख्य जन संपर्क अधिकारी ने शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया। दूसरे मामले में एक मीडिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए प्रधान न्यायाधीश और मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश के बीच हुई खतो-किताबत की जानकारी आरटीआई आवेदन के जरिए मांगी गई थी। मीडिया में खबर थी कि एक केंद्रीय मंत्री ने अपने  प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायिक फैसलों को प्रभावित किया था। आवेदक संबद्ध मंत्री का नाम जानना चाहता था। सुप्रीम कोर्ट के जन संपर्क अधिकारी ने जानकारी देने से इनकार कर दिया था। यह कहते हुए कि यह जानकारी न तो सहेज कर रखी गई है, और न ही सुप्रीम कोर्ट  की रजिस्ट्री के पास उपलब्ध है। मुख्य सूचना आयुक्त ने अपने आदेश में जन संपर्क अधिकारी के फैसले को पलट दिया था।

इन तीनों मामलों को एक साथ मिलाकर शीर्ष अदालत में दायर किया गया। 2016 में तीन सदस्यीय पीठ यह मामला संविधान पीठ के पास भेज दिया क्योंकि इस मामले में महत्त्वपूर्ण  संवैधानिक मुद्दे जुड़े होने की बात महसूस की गई। यह भी महसूस किया गया कि क्या नागरिकों को वह जानकारी हासिल करने का अधिकार है, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेपकारी हो। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने तीन पृथक लेकिन एक साथ फैसले दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सुप्रीम कोर्ट संस्था से जुदा नहीं है, इसलिए आरटीआई एक्ट की परिधि में आता है। सैद्धांतिक रूप से इसका अर्थ हुआ कि सूचना प्रधान न्यायाधीश के पास है, या प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय के पास है, या सुप्रीम कोर्ट  की रजिस्ट्री के पास है कहकर मांगी गई जानकारी मुहैया कराने से इनकार नहीं किया जा सकता।

शीर्ष अदालत ने दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला बदल दिया  और अब न्यायाधीशों की संपत्ति संबंधी घोषणा को सार्वजनिक किया जा सकता है। इस फैसले ने इस मुद्दे का भी निर्णायक रूप से समाधान कर दिया है कि आरटीआई एक्ट के तहत मांगी गई जानकारी से क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। महत्त्वपूर्ण यह कि इस फैसले ने पुष्टि कर दी है कि पारदर्शिता से न्यायिक स्वतंत्रता कमतर नहीं होगी तथा यह तथ्य उद्घाटित किया है कि दरअसल, न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही में चोली-दामन का साथ है, और सही मायने में पारदर्शिता न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। न्यायिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता के मद्देनजर यह फैसला दूरगामी रूप से प्रभाव छोड़ने वाला है। गौरतलब है कि न्यायिक स्वतंत्रता का नाम लेकर प्राय: न्यायपालिका के कामकाज में ज्यादा पारदर्शिता लाने के प्रयासों के सामने अड़चन पैदा की जाती रही है। संविधान पीठ ने यह बात खत्म कर दी है कि न्यायाधीशों के बीच होने वाले पत्राचार या न्यायिक नियुक्तियों या न्यायिक फैसलों संबंधी हस्तक्षेपों के मामलों में न्यायाधीशों तथा अन्य प्राधिकारों के बीच होने वाले पत्राचार को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है। 

संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के जन संपर्क अधिकारी को निर्देश दिया है कि सुप्रीम कोर्ट आरटीआई एक्ट द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार तीसरे पक्ष को गोपनीय जानकारी मुहैया कराने संबंधी अपने तौर-तरीकों में बदलाव लाए। हालांकि अदालत इस बाबत कोई विशेष निर्देश देने से बची है क्योंकि उसका मानना था कि उसे ऐसे मामलों से जुड़े किसी तीसरे पक्ष को सुनने का अभी तक कोई अवसर नहीं मिला है।

इसी प्रकार अदालत ने स्पष्ट कहा है कि न्यायाधीशों की संपत्ति संबंधी जानकारी मामला-दर-मामला आधार पर दी जानी चाहिए यानी एक तरफ सार्वजनिक हित और दूसरी तरफ निजता का ख्याल रखा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत के बाद से अब लोगों को न्यायपालिका के कामकाज संबंधी जानकारी हासिल करने की सहूलियत मिलेगी। उम्मीद है कि संविधान पीठ का फैसला सरकार तथा सार्वजनिक प्राधिकारों तक यह सख्त संदेश पहुंचाएगा कि वे आरटीआई कानून की परिधि से बच नहीं सकते। इस बाबत उनके द्वारा किया जाने वाला कोई भी प्रयास न केवल बेमानी है, बल्कि न्यायिक तकाजों पर भी खरा नहीं उतरता।

अंजलि भारद्वाज


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