सरोकार : चश्मा कमजोरी नहीं, स्त्री-सशक्तिकरण

Last Updated 17 Nov 2019 12:08:08 AM IST

जापान में सुंदरता के घिसे-पिटे फॉर्मूले ने पैर पसार लिए हैं। इसलिए वहां कई कंपनियों ने अपनी महिला कर्मचारियों के चश्मा लगाकर काम पर आने पर पाबंदी लगा दी है।


सरोकार : चश्मा कमजोरी नहीं, स्त्री-सशक्तिकरण

कंपनियों का कहना है कि चश्मा लगाने से महिला कर्मचारियों की सुंदरता प्रभावित होती है। इससे उनकी भाव-भंगिमा ‘कोल्ड’ दिखती है। इस वजह से ग्राहकों पर कंपनियों का अच्छा इंप्रेशन नहीं पड़ता। नतीजतन, उनके कारोबार को नुकसान होता है। हां, पुरुष कर्मचारियों पर ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया है। वे चाहें तो चश्मे पहनकर आ सकते हैं। कुछ दिन पहले जापान के एक कंपनी में काम करने वाली महिलाओं के लिए हाई हील न पहनने का फरमान जारी हुआ था। एक अन्य कंपनी ने अपने यहां कार्यरत महिला कर्मचारियों को वजन कम करने का निर्देश दिया था। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि वे मेकअप करके ही दफ्तर आएं ताकि ज्यादा स्मार्ट दिखलाई पड़ें। इस प्रकार जापान की अनेक कंपनियों ने फरमान जारी किए हैं, जो केवल उनकी महिला कर्मचारियों के लिए ही जारी किए गए हैं। 

इन खबरों से अपना वह दौर याद आ जाता है, जब चश्मे वाली लड़कियों के प्रति लोगों का पूर्वाग्रह वर चुनने के समय साफ नजर आता था। लड़के वाले देखने आएं तो लड़कियों की नुमाइश चश्मा निकाल कर कराई जाती थी। चूंकि चश्मे वाली लड़कियों को लड़के वाले पसंद नहीं करते थे। 1993 की फिल्म ‘आइना’ की तो कहानी ही यह थी कि दो बहनों में एक तेज-तर्रार ‘सुंदर’ है-बिना चश्मे वाली। दूसरी बहन सीधी-साधी, साधारण नैन-नक्श वाली, सिर में तेल चुपड़े, चश्मे वाली। हीरो बिना चश्मे वाली को पसंद करता है, चश्मे वाली हीरो पर लट्टू है पर अपने चेहरे-मोहरे को देखकर चुप रह जाती है। इस नॉर्म को स्थापित करने के बाद ही बताया जाता है कि बदसूरती भीतर की होती है, ऊपर की नहीं। पर ऊपरी सुंदरता-बदसूरती को रेकग्निशन तो दी ही जाती है!

कई साल पहले महाराष्ट्र में समाजशास्त्र की 12 वीं क्लास की किताब में सुंदर-बदसूरती की परिभाषा सेट की गई थी। किताब में कहा गया था कि अगर लड़की ‘बदसूरत’ है तो उसके माता-पिता को दहेज देकर कंपनसेट करना पड़ता है। किताब में दहेज को सामाजिक बुराई बताया गया था और उसके कुल बारह कारण दिए गए थे। इनमें से एक ‘अग्लीनेस’ यानी ‘बदसूरती’ था। आप ‘बदसूरत’ हैं, तो आपके माता-पिता को दहेज देकर आपसे पल्ला छुड़ाना पड़ेगा।

दरअसल, ‘अग्लीनेस’ पर एक नये सिरे से बहस छेड़े जाने की जरूरत है। यह माइंडसेट किसी का भी, कहीं भी हो सकता है। आखिर, कंपनी के नियम बनाने वाले या किताब लिखने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं। उनमें भी तरह-तरह के पूर्वाग्रह हो सकते हैं। निर्देश जारी कर दिया या लिख दिया तो कोई फांसी तो चढ़ा नहीं सकता। लिखा है तो दुरुस्त भी किया जा सकता है। हो सकता है, कि कंपनी इस नियम को हटा दे। पर क्या उस माइंडसेट को भी आप हटा कर सकते हैं। वह तो आपके दिमाग में गहरे समाया हुआ है।

इस माइंडसेट वाले हर जगह हैं। विज्ञापनों का पूरी चकाचौंध से भरा कारोबार तो इसी सोच पर फला-फूला है। फलां क्रीम लगाओ तो आप सुंदर बन जाएंगी। विज्ञापन कहीं यह एस्टेबलिश नहीं करता कि समाज को किसी के लुक्स की परवाह किए बिना उसे स्वीकार करना चाहिए। लेकिन अगर यह एस्टेबलिश हो जाएगा तो सौन्दर्य प्रसाधनों का अंतरराष्ट्रीय बाजार धड़ाम से ही नहीं गिर जाएगा!

माशा


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