हरियाणा : दिखेगा ’आया राम, गया राम‘!
हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजों ने चुनावी पंडितों को हैरत में डाल दिया है।
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एकाध को छोड़कर किसी ने भी ऐसे परिणामों का अनुमान नहीं जताया था, बल्कि भाजपा की एकतरफा जीत के दावे किए जा रहे थे। तो हरियाणा से उभरे इस ‘साफ और चौंका देने वाले’ राजनीतिक मॉडल के सबक क्या हो सकते हैं?
पहला, नतीजों से यह तो स्पष्ट हो गया है कि इस बार हरियाणा में त्रिशंकु असेंबली होगी। संभव है कि हरियाणा तो वह राज्य है, जहां ‘आया राम गया राम’ का पहले पहल पेटेंट हुआ था। अब वही पेटेंट फिर से जलवा दिखाने लगे तो अचंभा नहीं होना चाहिए। पिछली बार इसने 2010 में झलक दिखाई थी, जब जनहित कांग्रेस के विधायकों ने अपने नेता कुलदीप बिश्नोई को मझधार में छोड़ते हुए कांग्रेस का दामन थाम लिया था। इसलिए जननायक जनता पार्टी (जजपा), जो तीसरी बड़ी पार्टी बन कर उभरी है, को चौकस रहना होगा। जजपा नेता दुष्यंत चौटाला और उनका परिवार कांग्रेस या भाजपा के पक्ष में जाने का फैसला करता है, तो उन्हें अपने विधायकों पर नजर रखनी होगी। वैसे भी उन्हें दोनों में से किसी एक पार्टी के पक्ष में जाना होगा कि सत्ता से बाहर बना रहना कोई बुद्धिमत्ता की बात न होगी। पार्टी नेतृत्व के लिए सत्ता से दूरी बना लेना सही कदम और विकल्प करार नहीं दिया जा सकता। दूसरा, नतीजों से साफ है कि इंडियन नेशनल लोक दल (इनेलो)/जजपा को छोड़कर कोई अन्य पार्टी अपने सामाजिक आधार खास दावा नहीं कर सकती।
हालांकि इन पार्टियों के मामले में भी मतदाताओं को कोई स्पष्ट और मजबूत निष्ठा या वफादारी दिखाई नहीं दे रही। अलबत्ता, पीढ़ियों से राजनीति करते चले आ रहे परिवारों की पार्टियों में कुछ न कुछ जातीय अपनापा या वफादारी जैसा कुछ होता तो है, लेकिन आस्त हो लेने वाली बात नहीं होती। यही कारण रहा जो लोक सभा चुनावों में शिकस्त के बाद लगने लगा था कि जैसे बंसी लाल, चौटाला और भजन लाल के परिजनों की वंशवादी राजनीति चला-चली के दौर में है, लेकिन जजपा के निर्णायक स्थिति में आने से लगता है कि वंशवादी राजनीति फिर से मजबूती से उभरने की तैयारी में है।
तीसरा, राज्य में राजनीतिक नेतृत्व एक महत्त्वपूर्ण चुनावी कारक है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। कुछ महीनों पहले लुंज-पुंज हालत में जा पहुंची कांग्रेस को जिस तरह राज्य के दो बार मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने नये सिरे से जीतने का स्वाद चखाया है, उससे असंभव को संभव बना देने की उनकी कुव्वत का पता चलता है। अब संभवत: कांग्रेस के आला नेतृत्व को भी अपनी गलती का अहसास हो रहा होगा कि कुछ पहले हुड्डा को इतना फ्री हैंड दिया होता तो आज कांग्रेस की स्थिति और भी ज्यादा बेहतर होती। आला नेतृत्व को यह गलती भी महसूस हो रही होगी कि उसने बेवजह कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष अशोक तंवर को तरजीह देना जारी रखा। उनसे पिंड छुड़ा कर हुड्डा पर विश्वास किया होता तो न तो कांग्रेस की हालत कमजोर दिखती और न ही कार्यकर्ताओं में उत्साह की कमी आती। हुड्डा के आने से ये दोनों बातें सधी तो मतदाताओं ने कांग्रेस को अच्छी संख्या में सीटें नवाजने से गुरेज नहीं किया।
पिछले असेंबली चुनाव में भाजपा ने गैर-जाट नेता को मुख्यमंत्री के तौर पर कमान सौंपना भी भाजपा के पक्ष में नहीं गया। इसका राज्य के अधिकांश मतदाताओं में इसे लेकर नाराजगी महसूस की गई। फिर, निवर्तमान मनोहर लाल खट्टर सरकार के ये दावे भी मतदाताओं के गले नहीं उतरे कि उनकी सरकार ने कामकाजी पारदर्शिता का माहौल बना दिया है। नौकरियों के मामले में ‘पर्ची-खर्ची’ के दौर को रुखसत कर दिया है। लेकिन ये दावे काम नहीं आए। खट्टर सरकार के अनेक मंत्रियों के हार जाने से इसकी तस्दीक होती है। फिर 2016-2017 में राज्य में हुई हिंसा को नहीं रोक पाने से भी खट्टर सरकार खासी किरकिरी हुई। गैर-जाट मतदाताओं को भी उनकी सरकार लाचार दिखने लगी।
चौथा, इन नतीजों से सबक लेते हुए भाजपा की अब कोशिश होगी कि उस धारणा से निजात पाए जिसके चलते उसे ‘गैर-जाट पार्टी’ करार दिया जाने लगा था। गौरतलब है कि यूनियनिस्ट पार्टी/जमींदार लीग के समय से ही राज्य में जाट बिरादरी का राजनीति में वर्चस्व रहा है। न केवल इस बिरादरी की संख्या ज्यादा (22प्रतिशत) है, बल्कि भूमि और कृषि आदि पर भी उनका स्वामित्व रहा है। नतीजों से जाहिर है कि जाट मतदाताओं ने ताकतवर जाट नेता के नेतृत्व वाली कांग्रेस-जजपा को तरजीह दी है। पांचवां, जहां तक कांग्रेस की बात है, तो दिखलाई पड़ रहा है कि नेहरू-गांधी परिवार के जनता पर कम होते प्रभाव के चलते क्षेत्रीय क्षत्रपों के दिन लौट आए हैं। कांग्रेस के आला नेतृत्व को समय रहते हवाओं के रुख को भांप लेना चाहिए। यदि उसे भाजपा से मुकाबला करना है, तो क्षेत्रीय और राज्यस्तरीय नेताओं की पूरी कतार तैयार कर लेनी चाहिए। छठा, यदि राज्य में चुनाव से पहले कांग्रेस ने क्षेत्रीय दलों से चुनाव पूर्व गठबंधन कर लिया होता तो आज उसकी स्थिति और भी बेहतर होती। उसे जजपा के साथ ही बसपा के साथ गठबंधन कर लेना चाहिए था। सातवां, तमाम पार्टियों खासकर भाजपा को समझ लेना चाहिए कि ‘हवाहवाई राजनीति’ से बात नहीं बनेगी। स्थानीय मुद्दे कहीं अहम होते हैं, खासकर हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्य में। बेशक, अनुच्छेद 370 का खात्मा, आतंकवाद पर अंकुश, गौ संरक्षण, पाकिस्तान को हड़काने, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों के नाम पर भाजपा सत्ता-जनित आक्रोश से बची रही है, लेकिन बेरोजगारी, किसानों के असंतोष, कानून एवं व्यवस्था जैसे मुद्दों की अनदेखी भारी पड़ सकती है। आठवां, भाजपा को राज्य के दलितों, जो आबादी का 90 प्रतिशत हैं, में पैठ बनाने की दिशा में सक्रिय होना होगा।
बहरहाल, राज्य में गठबंधन सरकार बनने जा रही है। चूंकि कांग्रेस और भाजपा के सदस्य इतने तो हैं कि इनमें से किसी एक द्वारा भी बनने वाली गठबंधन सरकार को अस्थिर नहीं किया जा सकेगा। लेकिन इस मामले में भी भाजपा नम्बर मार ले जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। कारण, उसकी केंद्र में सरकार है, और अमित शाह जैसे रणनीतिकार। उसे गठबंधन सरकार बनाने में सहुलियत होगी।
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