अयोध्या विवाद : इतिहास की फिक्र का वक्त

Last Updated 22 Oct 2019 05:21:47 AM IST

गत सोलह अक्टूबर को देश के सबसे बड़े न्यायालय ने देश के सबसे संवेदनशील रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई पूरी की तो वह उसके इतिहास की दूसरी सबसे लंबी चलने वाली सुनवाई बन चुकी थी।


अयोध्या विवाद : इतिहास की फिक्र का वक्त

वह चल रही थी तो न्यायालय ने खुद के मध्यस्थता पैनल के नाकाम रहने के बावजूद पक्षकारों को आपसी सुलह-समझौते के प्रयास जारी रखने की छूट दे रखी थी। अलबत्ता, उनके प्रयासों के लिए सुनवाई रोकना गवारा नहीं किया था।
अब, सुनवाई खत्म हो जाने के बाद भी पक्षों के बीच दावेदारी छोड़ने और सुलह-समझौते के प्रस्तावों को लेकर आ रही खबरें यह जताने के लिए पर्याप्त हैं कि विवाद के ऊंट को इस या उस करवट बैठाने के लिए परदे के आगे-पीछे अभी भी बहुत कुछ चल रहा है। ऐसे में न्यायालय द्वारा सुरक्षित फैसले के, कई लोग जिसके 17 नवम्बर से पूर्व ही सुना दिए जाने की उम्मीद कर रहे हैं, इंतजार में बहुत संयम और समझदारी बरतने की जरूरत है। इसके कारण और भी हैं कि हम, भारत के आम लोग, लंबे अरसे से ऐसी सरकारों के दौर में हैं, जो ऐसे संयमों और समझदारियों पर अपने राजनीतिक फायदों वाली कार्रवाइयों को तरजीह देती हैं। ऐसा नहीं होता तो न अयोध्या का सर्वथा स्थानीय स्तर का यह विवाद समय के साथ विकराल होकर देश और उसकी व्यवस्था के लिए नासूर में बदलता और न उसकी हैसियत इतनी बढ़ती कि वह आधुनिक भारत के इतिहास का एक ऐसा पृष्ठ बन जाए, जो देश के सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिंक माहौल के साथ उसकी बुनियादी लिखावट तक को बदल डाले।

अयोध्या का अतीत गवाह है कि वोटों के लिए धार्मिंक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों में कोई सीमा न मानने वाली राजनीति 1986 में इस विवाद के खात्मे के लिए उसके नागरिकों में हुई सर्वसम्मति के आड़े नहीं आती तो हम इसकी आड़ में ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘ईश्वर-अल्ला तेरो नाम’ जैसी सदियों के अनुभवों से बनी सामाजिक मान्यताओं को लगातार संकटग्रस्त देखने को अभिशप्त नहीं होते। प्रसंगवश, 1986 में जिला न्यायालय के आदेश पर विवादित ढांचे में लगे ताले खोले जाने के बाद दोनों समुदायों के अयोध्यावासियों ने मिलकर इस विवाद को नासूर बनने से रोकने के लिए उसका ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ वाला समाधान निकाल लिया था, लेकिन तब जिन्हें हिन्दुओं में आई चेतना का अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना और उसके बूते देश की सत्ता में आना था, उन्होंने  इस समाधान को विफल करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।  फिर तो आज की तारीख में किसे नहीं मालूम कि धर्मो और सम्प्रदायों का इस्तेमाल करने वाली उनकी राजनीति ने धर्मप्रधान कहे जाने वाले इस देश में कट्टरता के ऐसे बीज बोए कि ‘धर्म’ शब्द ही संदिग्ध लगने लगा। इतना ही नहीं, इस बहुधर्मी देश में एक धर्म को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक जैसे विभाजनों को बढ़ाने वालों के मंसूबे भी फूलने-फलने लगे। धर्म को सबको साथ लेकर चलने का नाम बताने वालों को किनारे लगा दिया गया, सो अलग। 
इन हालात में विवाद के न्यायिक फैसले को लेकर उत्सुकता बेहद स्वाभाविक है, लेकिन हमें नागरिकों के तौर पर उसके राजनीतिक और सामाजिक असर को लेकर भी सचेत रहने की जरूरत है। अच्छी बात यह है कि अयोध्या ने इसे लेकर हमेशा ही असीम धैर्य का परिचय दिया है। छह दिसम्बर, 1992 के ध्वंस को ही धर्म बना देने वाली कोशिशों को लेकर भी उसने आपा नहीं ही खोया। इस बार एक अच्छी बात यह भी हुई है कि अयोध्या की पुलिस फैसले के बाद अमन-चैन बनाए रखने को लेकर समय रहते सचेत हो गई है। उसके आला अधिकारी जिले के कस्बों और गांवों में चौपालों और गोष्ठियों में लोगों को समझा रहे हैं कि देश में कोई अदालत सर्वोच्च न्यायालय से बड़ी नहीं है। इसलिए उसका फैसला कुछ भी और किसी के भी पक्ष या विपक्ष में हो, सभी को उसका सम्मान करना है। लगे हाथ वे ये हिदायतें भी दे रहे हैं कि इस सिलसिले में किसी भी शरारत को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।
और इस सिलसिले में पुलिस के पास एक बड़ी सुविधा यह है कि जो जमातें कभी यह कहती थीं कि यह कानूनी नहीं, आस्था का विवाद है, और इस कारण अदालतें इसका फैसला ही नहीं कर सकतीं, वे भी आज सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को मानने की बात कह रही हैं। विवाद के पक्षकार तो खैर उसे न्यायालय ले ही इसीलिए गए हैं कि सर्वोच्च अदालत लंबे समय से चले आ रहे इस विवाद का एक बार में ही निपटारा कर दे। कह सकते हैं कि इस विवाद में सिर्फ  अयोध्या ही कसौटी पर नहीं है। शेष देश से भी, जो पहले ही ऐसे मामलों के दूध से जला हुआ है, छाछ को भी फूंक-फूंक कर पीने की अपेक्षा है। इस तथ्य के मद्देनजर और भी कि छह  दिसम्बर, 1992 को विवादित स्थल पर खड़े सैकड़ों साल पुराने ऐतिहासिक ढांचे को योजनाबद्ध अभियान चलाकर तोड़ डालने वालों को अभी तक दंड नहीं मिल पाया है। इस ढांचे के ध्वंस के कारण हमारा देश, दुनिया में कितना बदनाम हुआ, पिछड़ा और हमारे समाज के भीतर की दरारें कितनी गहरी हो गई, इसे इस फैसले की घड़ी में भी याद रखा जाना आवश्यक है।
इस कारण और भी कि अयोध्या विवाद पर आने वाले फैसले पर अपने देश की ही नहीं, बल्कि दुनिया भर की नजर भी रहेगी। वह न सिर्फ चुपचाप देखेगी, बल्कि अपने इतिहास में दर्ज करेगी कि भारत के बहुभाषी, बहुधर्मी समाज ने इस फैसले को किस तरह ग्रहण किया। किस तरह अपनी सर्वोच्च अदालत द्वारा दिए गए फैसले को शिरोधार्य किया। सोचिए जरा, कि इसके बावजूद हमने संयम नहीं बरता तो इतिहास में हमें कहां, कितनी और कैसी जगह मिल पाएगी? यकीनन, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की इस घड़ी में हमारे सामने अपने भावी इतिहास की फिक्र करने का वक्त आ खड़ा हुआ है। यह जताने का भी कि तमाम असहमतियों के बावजूद हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं और उनके फैसलों का कितना सम्मान करते हैं।

कृष्ण प्रताप सिंह


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