सरोकार : गर्भपात में औरत की देह पर हक किसका?

Last Updated 06 Oct 2019 12:17:04 AM IST

ऑस्ट्रेलिया के सबसे रूढ़िवादी प्रांत माने जाने वाले न्यू साउथ वेल्स के जनप्रतिनिधियों ने 119 साल पुराने गर्भपात विरोधी कानून को बदल दिया है।


गर्भपात में औरत की देह पर हक किसका?

वहां महिलाओं को कानूनी तौर पर गर्भपात कराने की अनुमति मिल गई है। इस कानून के विरोध में करीब पांच दशक से आंदोलन चल रहा था। इस ‘अपराध’ के लिए दस साल जेल की सजा थी। नये कानून के तहत महिलाएं अब अपनी इच्छा से किसी पंजीकृत चिकित्सक की निगरानी में 22 हफ्ते तक के अपना गर्भपात करा सकेंगी। इस कदम का हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री टोनी एबॉट समेत कुछ कंजरवेटिव और धार्मिंक समूहों ने विरोध किया है। यह बिल निर्दलीय सदस्य एलेक्स ग्रीनिवच ने पेश किया था। 
भारत में गर्भपात गैर-कानूनी नहीं है। लेकिन इसकी अवधि को लेकर वाद-विवाद किया जाता है। हमारे यहां गर्भपात पर गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 1971 लागू है। इसके अंतर्गत मेडिकल प्रैक्टीशनर को 20 हफ्तों के अंदर गर्भपात करने की इजाजत है। हाल में सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई जिसमें इस समय सीमा को 20 हफ्ते से बढ़ाकर 26 हफ्ते करने की मांग की गई थी। इस संबंध में केंद्र सरकार का कहना था कि इस समय सीमा को नहीं बढ़ाया जा सकता। उसका कहना था कि गर्भपात अजन्मे बच्चे की हत्या सरीखा है। भारत में इस कानून में गर्भपात को एक कंडीशनल अधिकार बताया गया है यानी औरत गर्भपात तभी करा सकती है जब बच्चे के शारीरिक या मानसिक रूप से अस्वस्थ होने का खतरा हो। मां की सेहत के लिए खतरा हो या गर्भनिरोध के साधन के असफल होने की बात हो। ऐसी स्थितियों में ही महिला नहीं, डॉक्टर तय करते हैं कि गर्भपात होना चाहिए या नहीं। डॉक्टर गर्भवती महिला के परिवार से सलाह-मशविरा करते हैं। इससे यह प्रक्रिया लंबी होती जाती है और अक्सर औरत की निजता खतरे में पड़ती है।

सवाल यह है कि महिला के शरीर पर हक किसका है, उसका, उसके परिवार का या समाज का। अभी तक तो समाज का ही है। करीब एक साल पहले 20 हफ्ते की गर्भवती 17 वर्ष की एक बलात्कार पीड़िता को कर्नाटक उच्च न्यायालय ने गर्भपात को मंजूरी नहीं दी थी। कारण था कि इसमें उसकी जान को कोई खतरा नहीं था। बच्ची एक बुरे हादसे को भुलाकर आगे पढ़ना चाहती है लेकिन उसकी इच्छा का कोई मायने नहीं था। कई साल पहले सर्वोच्च न्यायालय निजता के अधिकार पर मुहर लगा चुका है। 2009 में तो जस्टिस के. जी. बालाकृष्णन ने भी दोहराया था कि गर्भपात में लड़की की सहमति जरूरी है। वह एक मंदबुद्धि महिला के गर्भपात के एक मामले में फैसला सुना रहे थे। गर्भपात के कानून में बदलाव की वकालत करने वाले भी इसी सहमति का सवाल उठाते हैं। उन्हें 20 हफ्ते की समय-सीमा पर आपत्ति है। दरअसल, चार दशक पहले जब यह समय-सीमा तय की गई थी, तब यह विवेकाधीन फैसला था। लेकिन अब देश ने चिकित्सा जगत ने काफी तरक्की की है। गर्भपात अब सुरक्षित तरीके से किया जा है। असुरक्षित गर्भपात के कारण दुनिया में बड़ी संख्या में औरतों की मौत होती हैं। आंकड़े बताते हैं कि सालाना लगभग 2 करोड़ असुरक्षित गर्भपात कराए जाते हैं। ये लगभग 13% गर्भवती महिलाओं की मृत्यु का कारण होते हैं। गर्भपात को कानूनी करार दिया जाए और महिलाओं को अपनी देह पर अपना हक दिया जाए तो इन दुखद स्थितियों से बचा जा सकता है।

माशा


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