बिहार में वर्षा : त्रासदी से त्राहिमाम्

Last Updated 03 Oct 2019 06:58:16 AM IST

बिहार बार फिर चर्चा में है। इस बार इंसेफेलाइटिस से होने वाली मौत या किसी बालिका गृह में बच्चियों से बलात्कार के कारण नहीं, बल्कि भारी बारिश के चलते।


बिहार में वर्षा : त्रासदी से त्राहिमाम्

लौटते मॉनसून ने कहर तो कई राज्यों में बरपाया है मगर बिहार में तबाही का आलम कुछ ज्यादा ही है। मॉनसून के शुरुआती वक्त में बाढ़ की विभीषिका से सैकड़ों मौत और अरबों रुपये की संपत्ति बर्बाद होने के बावजूद फिलवक्त बारिश से बचाव की कोई दृष्टि नीतीश सरकार में नहीं दिखती है। राजधानी पटना का जो हाल है, वह सरकार की संवेदनहीनता या कहें कि काहिली को परिलक्षित करता है। स्मार्ट सिटी का तमगा हासिल करने वाला पटना फिलहाल पानी-पानी है। और सुशासन का ढिंढोरा पीटने वाली नीतीश सरकार बेबस और लाचार। शहर का 80 फीसद इलाका 8 फीट पानी की गहराई में है। इसके अलावा, राज्य के दूसरे शहर-गांव भी मूसलाधार बारिश से त्रस्त हैं।
दरअसल, बिहार त्रासदी का दूसरा नाम हो चला है। कुछ-न-कुछ,कभी-न-कभी राज्य में अनहोनी घटित होता ही रहता है। पहले इंसेफेलाइटिस की मार फिर मॉनसूून की शुरुआत के वक्त कहर बरपाती बाढ़। और उससे उबरने के कुछ ही महीने बाद लौटते मॉनसून की बारिश से पैदा घोर संकट। मगर समस्या की जड़ जितनी बारिश है, उससे कहीं ज्यादा सरकारी उदासीनता और लापरवाही, सिविक एजेंसियों का नकारापन और थोड़ी-बहुत जनता की सरकारी जमीन पर अतिक्रमण की लिप्सा।

वैसे तो मॉनसून की बरिश से बड़े शहरों की सज्जा के नाम पर की गई लीपापोती बाहर आ जाती है। सरकार हमेशा यही दुहाई देती मिलेगी कि हमने फलां शहर में या इलाके में इतने करोड़ से सौंदर्यीकरण का काम करा दिया या उसकी मंजूरी दी। किंतु हकीकत में कितनी रकम दी जाती है, यह जगजाहिर है। पटना के लिए भी करोड़ों खर्च करने का दावा सरकार करती रही है। यही हाल देश के बाकी शहरों दिल्ली, सूरत, कोटा, वाराणसी व अन्य शहरों का है, जहां लौटते मॉनसून से त्राहिमाम् मचा है। आखिर पटना या सूरत या अहमदाबाद या मुंबई या और भी किसी अन्य स्मॉर्ट सिटी में आधारभूत ढांचा इतना चरमराया और थका हुआ सा क्यों है? सीवेज प्रणाली बेहतरीन होने के बदले बदतर की श्रेणी में क्यों है? दरअसल, नगर निगम या नगरपालिका के होने का कोई मतलब नहीं दिखता है। आशय यह कि जिन विभागों-संस्थाओं के कंधे पर शहर को चमकाने और उसकी तस्वीर बदलने की जिम्मेदारी है, वह धन कूटने में शिद्दत से जुटे हैं। आश्चर्य की बात है कि उनके कार्यों की न तो कायदे से समीक्षा की जाती है, न उनसे जवाब-तलब ही किया जाता है। नतीजा हम सबके सामने है। थोड़ी सी बारिश में शहर का कचूमर निकल जाता है। राहत और बचाव कार्यों के थोथे और दिखावटी प्रपंच किए जाते हैं, और कुछ दिनों बाद सब कुछ सामान्य। फिर उसी गति से वादों का पिटारा खोला जाता है, और जनता उसी वादे की चाश्नी में डूबती-उतराती रहती है। कमोबेश देश के हरेक नगर की यही दारुण कथा और दशा है। यह सिर्फ बिहार की बात नहीं है। मगर बिहार इस मायने में जरूर सुर्खियां बटोरता है क्योंकि यहां हालात ज्यादा बदतर हैं और उसमें ऐसी दिक्कतों से निपटने की कूव्वत नहीं है। कहते हैं इंसान अपनी गलतियों से सबक लेता है। किंतु बिहार के संदर्भ में यह तथ्य गलत सिद्ध होता है। 66 साल से बिहार की जनता बाढ़ की मार झेलती आ रही है। कभी नेपाल के पानी छोड़ने से यहां पल्रय मचता है, तो कभी फरक्का बांध की वजह से नदियां मनमानी पर उतर आती हैं। और ‘ढाक के तीन पात’ की तरह सरकार अपनी लज्जा छिपाने के लिए कभी केंद्र सरकार तो कभी मौसम विभाग तो कभी हथिया नक्षत्र पर ऐसी समस्याओं के लिए दोषारोपण करती है।
पटना या इसके जैसे स्मार्ट शहरों की व्यथा एक सी है। सब-के-सब नगर चौपट हैं, आधारभूत सुविधाओं से वंचित हैं। करोड़ों रुपये के बजट का बंदरबांट होता है, और जरूरतमंदों को कुछ भी हासिल नहीं होता है। इस नाते बिहार सरकार को वरन देश के दूसरे बड़े बसावट वाले नगरों के नियोजन और नीतियों को सिरे से बदलने की जरूरत आन पड़ी है। वैसे भी बिहार सरकार आपदा के वक्त बिखर सी जाती है। सारे सरकारी विभागों में समन्वय का अकाल सा पड़ जाता है। इंसेफेलाइटिस के दौरान सरकारी तंत्र की अगंभीर भूमिका का हर कोई साक्षी है। लिहाजा सरकार को शहर की देख-रेख करने वाले विभागों की कार्यप्रणाली में व्यापक फेरबदल करने की आवश्यकता है। गुजरात सरकार ने सालों पहले इस तरह के कदम उठाए थे और उसका फायदा भी होता दिखा। अगर वाकई सुशासन राज है तो वह दिखना भी चाहिए।

राजीव मंडल


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