गांधी : युग से आगे तक
दूसरों के श्रेष्ठ धर्म से, नीचा स्वधर्म अच्छा है। स्वधर्म में मौत भी अच्छी है, परधर्म भयावह है।
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गीता में कही गई इस बात का उल्लेख बापू गांधी ने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ में करते हुए कहा है कि देशभक्त को देश सेवा के एक भी अंग की यथासम्भव उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। गांधी का अविर्भाव एक युग का अविर्भाव है, एक दर्शन का अविर्भाव है, एक जीवन जीने की विधि का अविर्भाव है। एक नये प्रकार के आंदोलन का अविर्भाव है, सत्याग्रह और अहिंसा का अविर्भाव है।
संवत 1925 की भादो बदी बारस के दिन अर्थात 02 अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर अथवा सुदामापुरी में जन्मे महात्मा गांधी का जब जन्म हुआ तो यह एक सामान्य संतानोपत्ति की घटना मात्र थी। परंतु यह व्यक्ति आगे चलकर अपने युग से आगे निकल जाएगा, यह किसी को पता नहीं था। बचपन में ‘श्रवण-पितृभक्तिनाटक’ और हरिश्चन्द्र की कथा को आत्मसात करने वाले मोहनदास ने पग-पग प्रयोग किए एवं सत्य को चुनते गए। असत्य का सामना, उससे पार पाना, यह एक बहुत बड़ी कला, इन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक बनाए रखी। विलायत में एडविन ऑर्नल्ड का ‘गीता जी’ का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ने वाले मोहनदास को ‘गीता’ के इस श्लोक ने एक रास्ता दिखाया-ध्यायतो विशयान्पुंस: संगस्तेशूपजायते/संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधो भिजायते।।/क्रोधाद् भवति सम्मोह: सम्मोहत्स्मृतिविभ्रम:।/स्मृतिभ्रंषाद् बुद्धिनाषो बुद्धिनाषात्प्रणष्यति।।/ अर्थात विषयों का चिंतन करने वाले पुरु ष को उन विषयों में आसक्ति पैदा होती है, फिर आसक्ति से कामना पैदा होती है, और कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से मूढ़ता पैदा होती है, मूढ़ता से स्मृति का लोप होता है, और स्मृति लोप से बुद्धि नष्ट होती है, जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, उसका स्वयं का नाश हो जाता है।
गांधी जी 10 जून, 1891 को बैरिस्टर बने थे। 11 जून, 1891 को ढाई शिलिंग देकर इंग्लैंड के हाईकोर्ट में अपना नाम दर्ज कराया था और 12 जून को भारत के लिए रवाना हो गए थे। मोहनदास सितम्बर, 1888 में जब विलायत में बैरिस्टरी पढ़ने के लिए रवाना हुए तो उनकी उम्र मात्र 18 वर्ष थी। बैरिस्टर की शिक्षा के साथ, भाषण सीखने के लिए ट्यूशन पढ़ने वाले मोहनदास ने वायलिन एवं नृत्य सिखाने वाली शिक्षिका से कुछ हुनर आज के बच्चों की भांति भी सीखे थे। परंतु कुछ समय बाद इस सबसे वापस आ गए। इस युवावस्था में ही इन्होंने एडविन ऑर्नल्ड की ‘गीता’ व ‘बुद्धिचरित’ पढ़ी, मैडम बलवास्तकी की पुस्तक ‘की टू थियोसॉफी’, बाइबिल (ओल्ड टेस्टामेंट एवं न्यू टेस्टामेंट) पढ़ी, यहीं पर इन्होंने ईसा के ‘गिरि-प्रवचन’ की ‘गीता’ से तुलना की। ‘जो तुझसे कुर्ता मांगे, उसे अंगरखा भी दे दे, ‘जो तेरे दाहिने गाल पर तमाचा मारे, बाए गाल भी उसके आगे कर दे’ के संबंध में पढ़ कर ये यहीं आनंदित हुए। यहीं पर इन्होंने कार्लाइल की ‘हीरो एंड हीरो वरशिप’ पढ़ी और पैगम्बर हजरत मोहम्मद के जीवन से अवगत हुए। नास्तिकता व आस्तिकता के बीच द्वंद्व भी इसी युवावस्था में विलायत रहने के दौरान हुआ।
यहीं पर इन्होंने स्तुति, उपासना, प्रार्थना के संबंध में ज्ञान प्राप्त किया। लैटिन व फ्रेंच भाषा के जानकार मोहनदास ने यहीं पर ब्रम का ‘कॉमन-लॉ’, स्नेल की ‘इक्विटी’, विलियम्स और एडव्र्ज की ‘स्थावर संपत्ति’, गुरदीप की ‘जंगम संपत्ति’ और मेडन का ‘हिंदू-लॉ’ पढ़ा। विलायत में बैरिस्टर की शिक्षा ने श्रवण कुमार, हरिश्चन्द्र, रामायण का ज्ञान रखने वाले मोहनदास को जहां विश्व के अनेक धर्मो से रू-ब-रू कराया वहीं आधुनिक कानून की पढ़ाई का समन्वय कराकर एक ‘तार्किक’ मोहनदास का उदय हुआ। मोहनदास बैरिस्टर बनकर 12 जून, 1891 में ‘आसाम’ जहाज से, भारत के लिए रवाना हुए। जब मोहनदास लौटे तो 22 वर्ष के थे और फिरोजशाह मेहता या बदरूद्दीन तैयब जी जैसे कड़क वकील बनना चाहते थे। परंतु मि. फ्रेडरिक पिंकट ने कुछ व्यावहारिक ज्ञान लेने के लिए और मेलेसन की पुस्तक ‘सन 1857 के गदर की’ किताब पढ़ने की सलाह दी। भारत लौटने पर पहला मुकदमा ‘ममीबाई’ का मिला। मुकदमा लड़ने की हिम्मत न आने व जज के सामने घबराकर मुकदमा छोड़कर मेहनताना के 30 रुपये लौटाने वाले मोहनदास देश से अंग्रेजों को भगाने का सबसे बड़ा मुकदमा (आंदोलन) लडें़गे, यह किसी को आभास नहीं था।
मोहनदास पोरबंदर की एक मेमन फर्म का द. अफ्रीका के चालीस हजार पौंड के दावे का मुकदमा लड़ने वाले वकील-बैरिस्टर की मदद के लिए दादा अब्दुल्ला के साझी सेठ अब्दुल करीम के प्रस्ताव पर द. अफ्रीका जाने के लिए राजी हुए। यह एक प्रकार की नौकरी थी, बदले में निवास तथा भोजन खर्च के अलावा 105 पौंड मिलना था। मोहनदास अप्रैल, 1893 में जब द. अफ्रीका गए तो 24 वर्ष के थे, जब लौटे तो 46 वर्ष के थे। बाइस वर्ष का द. अफ्रीका प्रवास रंगभेद के कड़वे अनुभवों से शुरू हुआ था जो बहुत कुछ भारत में प्रचलित छूआछूत जैसा ही था। नेटाल की राजधानी मेरित्सबर्ग में रेल की प्रथम श्रेणी का टिकट होने के बावजूद भी गोरे-काले के भेद के आधार पर ट्रेन से उतार देने की घटना मोहनदास को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की सबसे बड़ी प्रेरक घटना बनी। 1893 के बाद बीच में गांधी जी 1896, 1901 में भारत लौटे थे। भेंट में मिली वस्तुओं व कीमती गहनों को कस्तूरबा से लेकर ट्रस्टियों के हवाले कर बैंक में रखने की घटना उल्लेखनीय घटना है। इन्होंने इसे इस धारणा से लौटा दिया था कि कौम की सेवा मैं पैसे लेकर नहीं करता।
गाय-भैंस का दूध त्याग कर केवल बकरी का दूध पीने वाले गांधी, मिट्टी के प्रयोग से पेट का कब्ज दूर करने वाले गांधी, सुबह का ब्रेकफास्ट न करने वाले गांधी, ज्ञान के लिए अनेकोनेक पुस्तकों का अध्ययन करने वाले गांधी अब मोहनदास से बदलकर मिस्टर गांधी हो चुके थे। कई देशों में नये चमकने वाले सूर्य की रोशनी का केंद्र महात्मा गांधी बने। चरखा, खादी, बकरी, गांव, हरिजन, किसान, उपवास, सर्वोदय, अहिंसा, सत्याग्रह आदि शब्दों में पिरोए हुए महात्मा गांधी ने गरिमापूर्ण जीवन जीने एवं दूसरे की गरिमा का सम्मान करने के लिए एक प्रकार का ‘कोड ऑफ कन्डॅक्ट’ रचा है। आज भारत विश्व में जो कुछ नामों से जाना जाता है, उनमें महात्मा गांधी प्रमुख नाम है। मेरे विचार से गौतम बुद्ध के बाद किसी एक भारतीय को सारा विश्व जानता है, तो वह महात्मा गांधी हैं। अपने युग से कई युग आगे तक।
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