हिमालय : मानव-दबाव खतरे की घंटी
विभिन्न संस्कृतियों और मान्यताओं वाले मानव समूहों में वर्चस्व को लेकर चले संघर्ष से निजात पाने के लिए जब कुछ मानव समूह हिमालय की ओर आए होंगे तो उन्होंने हिमालय की कंदराओं को सबसे सुरक्षित ठिकाना पाया होगा।
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इसीलिए कालीदास ने अपने महाकाव्य ‘कुमारसंभव’ में हिमालय को ‘धरती का मानदंड’ और ‘दुनिया की छत और आश्रय’ बताया था। लेकिन इस हिमालय पर निरंतर बढ़ती आपदाओं के कारण यह आश्रय सुरक्षित नहीं रह गया है।
इस बार मॉनसूनी आपदाओं में हिमाचल प्रदेश में अगस्त महीने के तीसरे सप्ताह तक 63 लोगों की जानें चली गई थीं। प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने 20 अगस्त को विधानसभा में बताया कि उस दिन तक बरसात में प्रदेश को लगभग 625 करोड़ रुपये की क्षति हो चुकी थीं। उत्तराखंड में सालाना औसतन 110 लोग ऐसी आपदाओं में जान गंवा देते हैं। जम्मू-कश्मीर में तवी नदी हर साल बौखला जाती है। असम में इस साल बाढ़ से धेमाजी, बारपेटा, मोरीगांव, होजई, जोरहाट, चराइदेव और डिब्रूगढ़ जिलों के कई गांवों की 17,563 हेक्टेयर से अधिक फसल जलमग्न हो गई।
हिमालय में ऐसी त्रासदियों का लंबा इतिहास है। लेकिन इन प्राकृतिक विप्लवों की बारंबारता में जो तेजी है, निश्चित ही चिंता का विषय है। लेह में 5 एवं 6 अगस्त, 2010 की रात बादल फटने से आई त्वरित बाढ़ और भूस्खलन में 255 लोग मारे गए। उत्तराखंड में बादल फटने और भूस्खलन जैसी आपदाएं आम हैं। 1977 में ऐसे हादसे में तवाघाट में 25 सैनिकों सहित 44 लोग मारे गए थे। 1996 में बेरीनाग में 18 लोग मारे गए। 1998 के अगस्त में मालपा में बाढ़ से 60 मानसरोवर यात्रियों सहित 250 और उखीमठ में 101 लोग मारे गए थे। हड़की में 2000 में 19, घनसाली और बूढ़ाकेदार में 2002 में 29, बरहम में 2007 में 18; जून, 2008 में हेमकुंड में ग्लेशियर फटने से 14, अगस्त, 2009 में पिथौरागढ़ के रोमगाड़, चासनी व नागड़ी गांवों में बादल फटने से 43, अगस्त, 2010 में कपकोट के सुमगढ़ में स्कूल पर मलबा आने से 18 बच्चे और सितम्बर, 2010 में अल्मोड़ा देवली में बादल फटने से 35 लोग मारे गए थे।
उत्तराखंड आपदा प्रबंधन केंद्र की रिपोर्ट के अनुसार 2013 की मॉनसून आपदा में 4200 गांवों की 5 लाख आबादी पीड़ित हुई है। इनमें से 59 गांव तबाह हो गए। शुरू में 4,459 लोगों के घायल होने तथा 5466 के लापता होने की रिपार्ट आई थी, मगर गैर-सरकारी अनुमानों में मृतकों की संख्या 15 हजार से अधिक मानी गई। हिमाचल में त्वरित बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने एवं भूकंप की दृष्टि से चम्बा, किन्नौर, कुल्लू जिले पूर्ण रूप से और कांगड़ा और शिमला जिलों के कुछ हिस्से अत्यधिक संवेदनशील माने गए हैं। दुनिया की इस सबसे युवा और सबसे ऊंची पर्वत श्रृंखला के ऊपर निरंतर प्राकृतिक आपदा हो रहे हैं तो इसका भूगर्भ भी अशांत है।
असम में 1897 में 8.7 और 1950 में 8.5 परिमाण और हिमाचल के कांगड़ा में 7.8 परिमाण के भीषण भूचाल आ चुके हैं। कांगड़ा के भूकंप में 20 हजार लोग और 53 हजार पशु मारे गए थे। भूकंप विशेषज्ञों का मानना है कि पिछली सदी में इस क्षेत्र में कोई बड़ा भूचाल न आने से भूगर्भीय ऊर्जा जमीन के नीचे जमा होती जा रही है। जिस दिन वह बाहर निकली तो कई परमाणु बमों के बराबर विनाशकारी साबित हो सकती है। भूगर्भविद् के अनुसार यह पर्वत श्रृंखला अभी भी विकासमान स्थिति में है और भूकंपों के सर्वाधिक असर में है। इसका दुष्प्रभाव यहां स्थित हिमानियों, हिम निर्मित तालाबों और चट्टानों और धरती पर पड़ता रहता है। इस कारण नदियों की बौखलाहट बढ़ी है। अंतरिक्ष उपयोग केंद्र, अहमदाबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार हिमखंड के बढ़ने-घटने के चक्र में बदलाव शुरू हो गया है।
दरअसल, हिमालय पर अत्यधिक मानव दबाव के कारण सिंधु से लेकर ब्रrापुत्र तक की लगभग 2400 किमी लंबी इस पर्वतमाला को भूकंप, भूस्खलन, त्वरित बाढ़, आसमानी बिजली गिरने, बादल फटने एवं हिमखंड स्खलन जैसी आपदाओं ने अपना स्थायी घर बना लिया है। हिमालयी राज्यों में देश का लगभग 25 प्रतिशत वन क्षेत्र है। किंतु पिछले दो दशकों में उत्तर-पूर्व के हिमालयी राज्यों में निरंतर वनावरण घट रहा है। विकास के नाम पर प्रकृति से बेतहाशा छेड़छाड़ हो रही है। पर्यटन और तीर्थाटन के नाम पर हिमालय पर उमड़ रही मनुष्यों और वाहनों की बेकाबू भीड़ भी संकट को बढ़ा रही है।
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