आर्थिक मंदी : खरीद क्षमता बढ़ानी होगी

Last Updated 06 Sep 2019 12:32:17 AM IST

शेक्सपियर के एक वाक्य का आशय है कि ‘गुलाब को किसी भी नाम से पुकारो, गुलाब ही रहेगा’।


आर्थिक मंदी : खरीद क्षमता बढ़ानी होगी

आर्थिक सुस्ती कहो, धीमापन कहो, ढीलापन कहो, कुल मिला कर बात यही है कि अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा हाल में जारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल-जून, 2019 में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर सिर्फ  पांच प्रतिशत रही है। पांच ट्रिलियन डॉलर की राह पर चल रही भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह विकास दर  पिछली पच्चीस तिमाहियों की सबसे कम है। कांग्रेस ने वित्तीय आपातकाल घोषित करने और अर्थव्यवस्था पर ेत-पत्र लाने की मांग की है।
सवाल है कि किन्हीं मौसमी कारकों, किन्हीं अस्थायी वजहों से आई है यह गिरावट या अर्थव्यवस्था में कुछ ढांचागत समस्याएं हैं, जिनके चलते मजदूरी, वेतन में बढ़ोतरी ही नहीं हो रही और इसीलिए मांग-उपभोग ठप हो चले हैं। लगता है कि सिर्फ  मौसमी कारक जिम्मेदार नहीं हैं। कुछ ढांचागत वजहें हैं, जिनके कारण लोगों की खरीद क्षमता कुप्रभावित हो रही है। केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 की पहली  तिमाही यानी अप्रैल-जून, 2019 में सकल घरेलू उत्पाद में विकास दर सिर्फ  पांच प्रतिशत रही है। ठीक इस अवधि में एक साल पहले यह आठ प्रतिशत थी। ऐसा क्या हो गया जो हम लगातार मंदी के शिकार हो रहे हैं। बहस चल निकली है कि क्या किया जाए। करों में कटौती की जाए या कुछ उद्योगों को खास किस्म की छूटों से नवाजा जाए? केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रहमण्यम ने जो कहा उसका आशय है कि मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था में उद्योगों को सरकार की तरफ बच्चों की तरह दौड़ कर ना जाना चाहिए कि पापा बचा लो।

मुक्त बाजार में कुछ धंधे खत्म होंगे, कुछ पैदा होंगे। अर्थशास्त्री जोसेफ शुंपीटर ने कुछ इस किस्म की बात-क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन-रचनात्मक विध्वंस-की थी। पर इस किस्म के रचनात्मक विध्वंस से तो बहुत कुछ ध्वंस हो जाएगा। किसी उद्योग को प्रोत्साहन देना हो या आयकर में कटौती करके आम आदमी की जेब में कुछ रकम छोड़नी हो, संकट में संसाधन कहां से आएं, यह सवाल बड़ा है। सरकार कह रही है कि एयर इंडिया को शत प्रतिशत बेचने को तैयार है। नीति आयोग ने सूची बना रखी है करीब दो दर्जन केंद्रीय सरकारी उपक्रमों की। सुझाव है कि एलआईसी को ही पूंजी बाजार में सूचीबद्ध करा लिया जाए। इसके शेयर जारी किए जाएं तो बड़ी रकम आ सकती है पर यह रकम जल्दी आए तो बात बने। लगातार कमजोर होते शेयर बाजार में सरकारी कंपनियों के शेयरों का विनिवेश भी आसानी सें संभव ना होता। इस बीच खबर है कि भारत, चीन-वियतनाम से अगरबत्तियों का आयात कर रहा है। करीब 500 करोड़ रु पये की अगरबत्तियां आयात हो रही हैं। यह क्या है, भारतीय अगरबत्ती बना कर क्यों नहीं कमा सकते? तकनीक की कमी है, या पूंजी की। बहस का मसला है। गंभीर चिंता की बात है कि निजी उपभोग खर्च बहुत कम गति से बढ़ रहा है यानी जनता खर्च करने को तैयार नहीं है।
ताजा आंकड़ों के मुताबिक जून, 2019 में निजी उपभोग खर्च में पिछली जून के मुकाबले सिर्फ  3.14 प्रतिशत की  बढ़ोतरी हुई है। पिछली 17 तिमाहियों में यह सबसे कम विकास दर है। जून, 2018 में यह सालाना बढ़ोतरी 7.31 प्रतिशत थी। जून, 2017 में 10.13  प्रतिशत थी। जीडीपी का आधे से ज्यादा हिस्सा इसी खर्च से आता है। लोग खर्च करने को तैयार नहीं हैं, बड़ा मसला यही है। लोगों के हाथ में रकम आए, इसके लिए अर्थशास्त्र में नोबल विजेता मिल्टन फ्रीडमैन ने 1969 में एक टर्म ईजाद की थी-हेलीकॉप्टर मनी-जिसका आशय था कि जनता की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए हेलीकॉप्टर से पैसे गिराए जाने चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार गारंटी कार्यक्रमों में बजट बढ़ा देना चाहिए। वहां क्रय क्षमता बढ़ेगी तो तमाम आइटमों की सेल बढ़ेगी। हमारे देश में खेती में जून, 2019 से पहले के दो सालों का हिसाब देखें तो मजदूरी दशमलव पांच प्रतिशत हर साल गिरी है जबकि गैर-कृषि मजदूरी स्थिर रही है यानी मजदूरी बढ़ ही नहीं रही। खबरें हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में पांच रुपये का बिस्कुट का पैकेट भी मुश्किल से बिक रहा है। यह कहीं से भी अर्थव्यवस्था के ढांचे की दिक्कत नहीं है कि मजदूरी बढ़ नहीं रही, आय में इजाफा नहीं हो रहा। चिंतनीय है कि आर्थिक मंदी के माहौल में वो सेक्टर जिनसे सरकार को उम्मीदें थीं-जैसे मैन्युफैक्चरिंग में अप्रैल-जून, 2019 में सिर्फ .6 प्रतिशत का विकास है।
एक खबर पॉजिटिव है अर्थव्यवस्था के लिए कि कुछ महीने पहले सूखे की आशंका और मॉनसून के कमजोर रहने की आशंका बताई जा रही थी। लेकिन मॉनसून सामान्य रहेगा। मंदी के मुकाबले कई कदम उठाए गए हैं। एक कदम तो यह कि विदेशी निवेश के मामले में नियम आसान किए गए। कांट्रैक्ट मैन्यूफैक्चरिंग यानी ठेके पर निर्माण क्षेत्र में 100 प्रतिशत विदेशी निवेश संभव किया गया है पर इसके परिणाम आते-आते वक्त लगेगा। तमाम उद्योगों में मंदी की तरह-तरह की वजहें हैं। अभी आंकड़े आए हैं कि टीवी सेल के। वित्तीय वर्ष 2017-18 में एक करोड़ पचास लाख टीवी बिके, 2016-17 के मुकाबले कम, जब एक करोड़ 53 लाख टीवी बिके थे। टीवी इंडस्ट्री के संगठन कंज्यूमर्स इलेक्ट्रॉनिक्स एप्लायेंसेस मैन्युफैक्चरिंग एसोसियेशन ने बताया मोबाइल पर हॉटस्टार, नेटिफ्लक्स के चक्कर में 16 साल से 35 की उम्र वाले टीवी कम मोबाइल -टेबलेट ज्यादा देख रहे हैं। इस तरह की मंदी से कैसे निपटें उद्योग? ग्राहक किसी वजह से गायब हो जाए तो फिर उद्योग क्या करे?
पंजाब के वित्त मंत्री मनप्रीत बादल का एक लेख छपा है। उन्होंने लिखा है कि एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल को सस्ते कच्चे तेल और ग्लोबल तेजी का फायदा मिला पर इस सरकार की गलत नीतियों की वजह से मांग में कमी होना तय था। उद्योग जगत के प्रतिनिधि संस्थान फिक्की ने कहा है कि निवेश और उपभोक्ता मांग, दोनों में कमी आई है। इस समय सरकार और विपक्ष एक-दूसरे पर चाहे जितने आरोप लगा लें पर मूल सवाल है कि हालात से निपटें कैसे? इसका एक जवाब तो यही है कि कुछ ऐसी तरकीब सरकार निकाले कि अर्थव्यवस्था के विपन्न तबके की जेब में कुछ पैसे जाए। सबसे पहले तो ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के बजट में बढ़ोतरी की जानी चाहिए।

आलोक पुराणिक


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