भारतीय राजनय : नये युग की शुरुआत
जी7 समिट में मुख्य बैठक के इतर जिस अंदाज में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की आंखों में आंखें डालकर विनम्रतापूर्वक किंतु दृढ़ स्वर में पाकिस्तान से द्विपक्षीय वार्ता में किसी तीसरे को कष्ट न देने की बात कही, उसने नई वैश्विक व्यवस्था में भारत को ‘उदीयमान’ से ‘उदित’ शक्ति प्रमाणित कर दिया।
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‘रिसर्च एंड एनॉलिसिस विंग’ (रॉ) के प्रमुख रहे बी. रामन ने अपनी पुस्तक ‘काव बॉयज’ में उस प्रसंग का वर्णन किया है कि किस तरह 12 मार्च, 1993 के विश्व के सर्वप्रथम श्रृंखलाबद्ध विस्फोट, जो मुंबई में हुआ, के सबूत को अमेरिकी एजेंसी ने पाकिस्तान के हितार्थ मिटा दिया था। हुर्रियत कांफ्रेंस की स्थापना अमेरिकी पहल का परिणाम थी। पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल जैसे लोग हुर्रियत कांफ्रेंस के दिल्ली कार्यालय का उद्घाटन करने जाया करते थे। अलगाववादी नेता अब्दुल गनी लोन की तीमारदारी और अस्पताल के बिल का भुगतान अमेरिकी दूतावास से हुआ करता था। तब भारत सरकार पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित कराने के प्रयास में अपना एक समर्थक नहीं जुटा पाती थी। 1998 में जब रम्जी यूसुफ ने पहली बार अमेरिका के र्वल्ड ट्रेड सेंटर को विस्फोटकों से भरे ट्रक से उड़ाने का प्रयास किया तब पहली बार इस्लामी आतंकवाद पर अमेरिका के कान खड़े हुए।
तत्कालीन वाजपेयी सरकार ने पहली बार अमेरिका के प्रति प्रो-एक्टिव राजनय कर करगिल युद्ध के समय पाकिस्तान की तुलना में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को भारत के पक्ष में खड़ा करने में सफलता पाई। र्वल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 को आतंकी हमले के पूर्व कंधार विमान अपहरण कांड हुआ। उसी कांड में रिहा कराया गया उमर शेख, जिसने 9/11 के प्रमुख अभियुक्त मोहम्मद अट्टा को वित्तीय मदद पहुंचाई थी। इन तथ्यों से अमेरिकी जांच एजेंसियां सुपरिचित थीं, फिर भी रणनीतिक और अमेरिकी संस्थानों में भारत विरोधी पक्षपाती तंत्र ने आतंकवाद के खिलाफ बनी कमान में पाकिस्तान का साथ दिया। भारत की संसद पर हमले में उमर शेख के सह-अभियुक्त मौलाना मसूद अजहर की तंजीम जैश-ए-मोहम्मद की संलिप्तता के बावजूद अमेरिका समेत वैश्विक राजनय के अलंबरदार न केवल पाकिस्तान के पक्ष में खड़े रहे बल्कि भारत पर पाकिस्तान से वार्ता के लिए दबाव भी बनाते रहे। हालांकि वाजपेयी सरकार ने घुसपैठियों को संरक्षण देने वाली पाकिस्तानी सेना के खिलाफ नीलम वैली में जिस तरह की सैन्य कार्रवाई की उसके चलते परवेज मुशर्रफ को सीज फायर एग्रीमेंट को मजबूर होना पड़ा। वाजपेयी सरकार का सातत्य रहता तो पाकिस्तान की घेराबंदी का सातत्य भी बना रहता। 2004 में सत्ता परिवर्तन ने एक बार फिर वैदेशिक नीति को ‘अमन की आशा’ के घिसे-पिटे ढर्रे पर ला दिया। पाकिस्तान की आतंकवाद पर घेराबंदी की बजाय ‘ट्रैक टू डिप्लोमेसी’ शुरू हो गई। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद जब हर शहर और हर परिसर में जिहाद का नंगा नाच खेलने लगा तब भी मनमोहन सरकार के विविध मंत्रालय कड़ी र्भत्सना से आगे कभी नहीं बढ़े।
26/11 को जब मुंबई पर आतंकी हमला हुआ और होटल ताज, होटल ट्राइडेंट और लियोपोल्ड कैफे में जब अमेरिका समेत ‘नाटो’ देशों के तमाम नागरिक मारे गए तब जाकर सरकार अमन की मूच्र्छा से जागृत हुई। पाकिस्तान को घेरने का यह सुअवसर था। उसे गंवाया गया। अमेरिका खुद एबोटाबाद में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार रहा था, तब भारत की तत्कालीन सरकार ने दाऊद इब्राहिम, मसूद अजहर, हाफिज सईद और लखवी को घुसकर मारने के विकल्प की बात अंतरराष्ट्रीय मंच पर क्यों नहीं की? 26/11 के दौरान जब भारतीय वायु सेना कार्रवाई की अनुमति मांग रही थी तब सरकार की अनमनस्यकता का क्या तर्क? खैर, उस पार्टी का राजनीतिक अवसान इन्हीं सब सवालात पर हुआ। 2014 के बाद निर्णायक विदेश नीति तय हुई। पहले ‘सार्क’ देशों के समक्ष पाकिस्तान बेनकाब हुआ। फिर ग्रुप-20 में आतंकवाद पर उसकी फजीहत हुई। ‘ब्रिक्स’ के मंच पर चीन आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान विरोधी लानत को रोक नहीं सका। फिर संयुक्त राष्ट्र की जनरल असेंबली में पाकिस्तान को आतंकिस्तान करार दिया गया। एफएटीएफ की ‘ग्रे’ लिस्ट में उसका आना। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में उसकी घेराबंदी में मिली सफलता ने मोदी के आर्थिक शक्ति वाले भारत के सामने पाकिस्तान कंगाली को हासिल हुआ।
सबसे बड़ा झटका पाकिस्तान को ओआईसी में भारत को विशेष अतिथि के रूप में मंचासीन होते देखकर लगा। भले ही भारत में विपक्षी मोदी को विफल प्रधानमंत्री का ढोल-ताशा पीटते रहें पर विश्व राजनय के चौधरी मोदी की सफलता की मुनादी पीटते पाए गए। सर्जिकल स्ट्राइक हुई हो या बालाकोट में घुसकर आतंकियों का विध्वंस, पाकिस्तान की कोई सुनने को तैयार नहीं। अनुच्छेद 370 के संशोधन पर जिस अंदाज में पाकिस्तानी ‘डीप स्टेट’ अवसादग्रस्त हुआ उसने तीसमार खां पाकिस्तानी सेना को शेख चिल्ली और इमरान खान को आईएसआई की पालतू बिल्ली सिद्ध कर दिया। कुछ लोग कहते फिर रहे हैं कि अनुच्छेद 370 के संशोधन के बाद उपजी परिस्थितियों में पाकिस्तान कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण करने में कामयाब हुआ तो वे कृपा कर संयुक्त राष्ट्र को उस जनरल असेंबली का काल बताएं जब पाकिस्तान ने कश्मीर मुद्दा न उठाया हो। बताएं कि पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से जब चायना पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर बनता है, तब क्या उसका अंतरराष्ट्रीयकरण होने में कुछ शेष बचता है?
चीन ऑक्साइचिन कब्जाए, पाकिस्तान गिलगिट पचा जाए पर भारत मुंह बंद रखे। अलगाववादी पाले और आतंकवादी झेले, क्या यही संप्रभु भारत का हित है? मोदी सरकार ने जिस अंदाज में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन जैसे इस्लामी देशों को भारत के पक्ष में साधा, जिस अंदाज में रूस, फ्रांस, जर्मनी खुलकर समर्थन में आए, ब्रिटेन को सफाई के साथ भारत की संप्रभुता को स्वीकारना पड़ा और मध्यस्थता प्रस्तावित करने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति के यू टर्न ने पाकिस्तान को लाचार कर दिया। फिर भी कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष को इमरान खान सफल और नरेन्द्र मोदी विफल नजर आएं तो इसे गजनकार वृत्ति न कहें तो और क्या नाम दें!
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