शिक्षक दिवस : निजीकरण ने किया बेड़ा गर्क
करीब तीन से 4 दशक पहले प्रसिद्ध आलोचक और शिक्षक प्रोफेसर नामवर सिंह ने कहा था कि, ‘पावन वस्तु कैसे भ्रष्ट होती है, इसका उदाहरण है स्वयं विद्या।
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मानवीय संबंध किस प्रकार नकद पैसे कौड़ी में बदल जाते हैं, इसका उदाहरण है गुरु-शिष्य संबंध? पेशे से श्रद्धा का प्रभामंडल कैसे छिन जाता है, इसका मूर्तिमान प्रतीक है स्वयं शिक्षक और रोज-रोज परिवर्तित होने वाले कुलपतियों के पदों को देखकर क्या यह समझने में कठिनाई रह जाती है कि जो कुछ भी ठोस है; वह पूंजीपति वर्ग के स्पर्श मात्र से हवा में उड़ जाता है।’ शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की व्यथा को इससे भली-भांति समझा जा सकता है।
शिक्षक दिवस की प्रासंगिकता पर बात जो करने जा रहे हैं, लेकिन इस सवाल पर मैं अपनी बात उस दिन की करना चाहता हूं कि जिस दिन शिक्षक दिवस किसी के नाम पर, किसी शिक्षक के नाम पर या शिक्षक के महत्त्व के नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाना प्रारंभ किया गया। और शिक्षक की मर्यादा आज की तारीख में भी समाज में बेहद महत्त्वपूर्ण स्थान का अधिकारी है। थोड़ा पीछे चलूं तो करीब बीस साल पहले देश की प्रमुख हिंदी मैगजीन ने देश की अलग-अलग प्रभाव क्षेत्र वाले प्रमुख दस शख्सियतों का सव्रे किया था। इस सव्रे में पहले स्थान पर शिक्षा जगत की प्रमुख हस्ती का चयन हुआ था; मर्यादा में, प्रतिष्ठा में और सम्मान में। खास बात यह है कि अंतिम पायदान पर राजनेता को जगह मिली थी। उस समय हमारे दिमाग में आया था कि ऐसा क्यों हुआ? मगर आज जब हम शिक्षक दिवस की प्रासंगिकता की बात करते हैं तो सारी चीजें साफ हो जाती हैं। सारा परिवेश, सारा वातावरण, सारे घटनाक्रम हमें उल्टे मुंह चिढ़ा रहे हैं क्योंकि जहां सरकारी मानक के अनुसार आखिरी ग्रेड के कर्मचारी (सेवक या चपरासी) को भी सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए दरजा आठ पास होना चाहिए। आफिस का बाबू (क्लर्क) बारहवीं पास होना चाहिए। इसी तरह सब कुछ पूर्व निर्धारित हो चुका है। सिपाही से लेकर आईएएस तक किसको क्या पढ़ा-लिखा होना चाहिए, सबकी योग्यताएं निर्धारित हैं।
यह ध्यान देने की बात है कि आज शिक्षक किस स्थिति में हैं? क्योंकि शिक्षा के साथ शिक्षक ही जुड़ता है। तो शिक्षा जिस स्थान पर खड़ी होगी; शिक्षक भी उसी स्थान पर खड़ा होगा। शिक्षा का तिया-पांचा कैसे बिगड़ा, यह जगजाहिर है। इसमें खलनायक की भूमिका निजीकरण की थी। प्राइवेटाइजेशन यानी निजीकरण की हवा ने पूरे देश में शिक्षा के माहौल को दूषित किया। साल 1996-97 के बाद शिक्षा में निजीकरण को गति मिली। पांचवीं कक्षा के बाद से लेकर विविद्यालय स्तर तक सीधे सरकार की चाहत है कि जो कुछ चुनी हुई संस्थाओं को सरकार या विविद्यालय अनुदान आयोग जो भी कुछ मदद कर दे, मगर सबको अपने-अपने हिस्से का चलाने के लिए व्यवहार सहना पड़ रहा है। प्रकारांतर से यह सारा भार व्यक्ति पर ही जाता है या शिक्षा प्राप्त करने के लिए चाहे वह डॉक्टरी की पढ़ाई हो या इंजीनियरिंग की; चाहे वह कोई भी महंगी शिक्षा हो, सभी के लिए बैंकों से कर्ज लेना पड़ता है। फिर कुछ समय बाद बैंक उस कर्ज की वसूली करता है। क्या शिक्षा के लिए यह उचित है? मेरे जैसा शिक्षक या समाज का पहरूआ कभी नहीं चाहेगा कि शिक्षा निजी हाथों में सौंपकर उसे लावारिस छोड़ दिया जाए। उदाहरण के तौर पर सरकारी सेवक, कर्मचारी और चपरासी का जितना वेतन है; उतना भी वेतन निजी स्कूलों, कॉलेजों और विविद्यालयों का अध्यापक या प्रोफेसर नहीं प्राप्त कर पाता। और शिक्षा के रसातल में जाने की सबसे बड़ी वजह यही है। अगर शिक्षा का मेरूदण्ड टूट जाएगा तो यह पूरा देश विकलांग हो जाएगा, आने वाला कल अंधकारमय हो जाएगा, कोई प्रतिभाशाली गरीब का बच्चा शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाएगा। तो कहने का आशय है कि शिक्षा की र्दुव्यवस्था से शिक्षक भी बुरे दौर में हैं।
अगर शिक्षक की माली हालत बेहतर नहीं होगी तो शिक्षा किस जर्जर हालत में होगी, यह आसानी से समझा जा सकता है। शिक्षा की इसी दुर्गति से शिक्षक भी दुारियां झेल रहे हैं। शिक्षक का कोई माई-बाप नहीं रह गया। हम किस शिक्षक की मर्यादा का पालन कर रहे हैं? तो कहने में कोई संकोच नहीं कि निजीकरण शिक्षा और शिक्षक दोनों की रीढ़ तोड़ रहा है। और जहां शिक्षक की रीढ़ टूट गई; वहां शिक्षा अपने-आप टूट जाएगी। जहां शिक्षक विकलांग हो गया तो शिक्षा विकलांग हो जाएगी और जहां शिक्षा विकलांग हो गई तो वह देश विकलांग हो जाएगा। इसका निरूपण यही हो कि शिक्षा को सरकारी संरक्षण मिले और निजीकरण को खत्म किया जाए।
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