शिक्षा : जुगाड़ तंत्र पर लगे अंकुश
देश भर के विश्वविद्यालयों में तदर्थ या अस्थायी शिक्षकों को स्थायी करने संबंधी मांग लगातार उठती रही है। एक आंकड़े के अनुसार अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में कुल दस हजार एडहॉक और 15 सौ के करीब गेस्ट टीचर हैं।
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स्पष्ट है कि जाने-माने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय भी एडहॉक शिक्षकों के जरिए शिक्षा जैसी अति महत्त्वपूर्ण बुनियादी आवश्यकता को येन-केन-प्रकारेण पूरा करने की खानापूर्ति में लगे हैं। मोटी रकम पाने वाले ऐसे पैराशूट शिक्षक क्या वास्तव में शैक्षणिक योग्यता के मानदंडों पर खड़ा उतरते हैं? अगर यह संख्या इक्के-दुक्के तक ही सीमित होती तो बात समझ आती लेकिन इनकी तादात की अनदेखी नहीं की जा सकती।
दरअसल, यूजीसी नेट/जेआरएफ उत्तीर्ण छात्रों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में अध्यापन का रास्ता आसानी से खुल जाता है। महज साक्षात्कार के आधार पर वे उच्च शिक्षण संस्थानों में चयनित कर लिए जाते हैं। कहीं-कहीं तो बस मेधा सूची ही उनके चयन का आधार बनती है। बस! सारा दांव-पेंच यहीं से शुरू होता है। अच्छी पहुंच और रसूख वाले छात्र किसी न किसी तरह अपनी पैठ ऐसी जगहों पर बना लेते हैं, और योग्यता के मापदंड पर खरे उतरे बिना विश्वविद्यालयों में प्रवेश कर जाते हैं। वहीं दूसरी ओर प्रतिभाशाली छात्र उच्च योग्यता और कौशल के बावजूद भीड़ में कहीं खो जाते हैं। इस जुगाड़ तंत्र की जड़ें गहरी फैली हैं। इसमें शोध शिक्षकों की संलिप्तता कोफ्त पैदा करती है।
आखिर, भर्तियों में पारदर्शिता और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश संबंधी कड़े नियम क्यों नहीं बनाए जाते? तो क्या यह लचर व्यवस्था इस बात कर सूचक है कि सिफारिशविहीन छात्र इसी तरह जद्दोजहद में ही अपनी सारी जिंदगी गुजार दें। आखिर, इतनी बड़ी संख्या में औसत दरजे की डिग्रियां बांटी ही क्यों जाती हैं? क्या मेरिट लिस्ट या साक्षात्कार प्रक्रिया को हटाकर प्रवेश परीक्षाओं को इसका पैमाना नहीं बनाया जा सकता? धांधली और फर्जीवाड़े की इस जड़ता पर व्यवस्थामूलक प्रहार करना होगा। ढ़िंढोरा पीटने की बजाय हमें समस्या के समाधान की दिशा में मजबूत कदम बढ़ाने होंगे। केवल तभी इससे निजात पाया जा सकता है।
भले ही देश में हर वक्त शिक्षकों के खाली पड़े पदों का रोना रोया जाता हो, लेकिन हैरानी की बात है कि सतत स्थायी बनाए जाने वाले पैराशूट टीचर्स कभी सुर्खियां नहीं बन पाते। न ये कभी सार्वजनिक रूप से चर्चा का विषय बन पाते हैं। प्रगतिवाद का दंभ भरने वाला तथाकथित मीडिया भी इस मामले को सुर्खी बनाने से पीछे हट जाता है। शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया में होने वाली व्यापक धांधली को कभी देशहित या छात्र-हित का मुद्दा बनाया ही नहीं गया जबकि शिक्षा के मूल में राष्ट्र की वैचारिक और आर्थिक संपन्नता छुपी होने की बात जगजाहिर है। एक अनुमान के अनुसार देश भर के विश्वविद्यालयों में साठ प्रतिशत से ज्यादा शिक्षक जुगाड़ू पैराशूट के जरिए सीधे छलांग लगा कर उतरे हैं। हालांकि इसकी कोई पुष्टि नहीं लेकिन आंकड़े इससे भी ज्यादा हो सकते हैं। जाहिर है पैराशूट टीचरों से बच्चों का भला होने वाला नहीं। इसकी एक वजह शोध और शोधार्थियों की गिरती साख है। पिछले कुछ दशकों में न केवल शोध के स्तर में ह्रास हुआ है, बल्कि शोध के गढ़े हुए प्रतिमान भी कहीं न कहीं ध्वस्त हुए हैं।
अन्वेषण एक माध्यम है, जो नवीनता की ओर प्रवृत्त करता है। नवीन सृजन के उलट भारी सहायता अनुदान प्राप्त कर रहे विश्वविद्यालय शोध के मामले में महज सफेद हाथी साबित हो रहे हैं। शोध के नाम पर या तो डिग्री बांटने की खानापूर्ति की जा रही है, या फिर छात्रों से मोटी रकम वसूली जा रही है। आलम यह है कि अब शोध केवल डिग्री और स्कॉलरशिप प्राप्त करने तथा जल्दी से जल्दी नौकरी पाने तक सिमट गया है। न तो शोध सहायक और न ही छात्र इसमें गंभीरता दिखा रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो दोनों पक्ष अपने दायित्व से शीघ्र अतिशीघ्र मुक्त होना चाहते हों। इस तरह शोधार्थी एक अच्छे शिक्षक बनने से वंचित हो रहे हैं। सवाल सिर्फ इस तरह के शोधों के निष्कर्ष का ही नहीं अपितु यहां से निकलने वाले छात्रों के व्यावहारिक और उपयोगी ज्ञानाधार का भी है। क्या ऐसे संस्थानों से रचनात्मक, बौद्धिक तथा व्यावहारिक ज्ञान अर्जित कर निकलने वाले छात्र समाज और देशहित में अपना योगदान दे पाएंगे और छात्रों को अज्ञानता के अंधेरे से बाहर निकाल पाने में सक्षम हो पाएंगे? यह भी समीचीन होगा कि क्या सिफारिश के जरिए शैक्षणिक पदों पर पहुंचे शिक्षक ज्ञान की गहन रोशनी से आने वाली पीढ़ियों को आलोकित कर पाएंगे या उन्हें भी समय के साथ जुगाड़ तंत्र की भीड़ का एक हिस्सा बना देंगे।
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