बैंक मर्जर : नई कक्षा में प्रक्षेपण की तैयारी

Last Updated 03 Sep 2019 06:00:37 AM IST

बैंकों के मर्जर की बातें और मर्जर होना कुछ भी अचानक नहीं हुआ है। भारतीय स्टेट बैंक का अपने सहायक बैंकों में मर्जर हुआ।


बैंक मर्जर : नई कक्षा में प्रक्षेपण की तैयारी

बैंक ऑफ बड़ौदा में देना बैंक और विजया बैंक का मर्जर हुआ। इसमें कोई खास बात नजर नहीं आती। सरकार ने समय-समय पर इस बारे में अपनी मंशा जाहिर की है। चर्चा आज इस बात की आवश्यक है कि आखिर, किन उद्देश्यों को लेकर यह सब किया जा रहा है, और क्या उन उद्देश्यों की पूर्ति संभव है। पहले भी मर्जर किए जा चुके हैं, और ऐसे में जरूरी है कि उनके प्रभावों पर गौर कर लिया जाए।
सबसे पहले हम इतिहास पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि नरसिम्हन कमेटी ने लगभग तीन दशक पूर्व यह सुझाव दिया था कि तीन या चार विस्तरीय बड़े बैंक होने चाहिए और आठ दस राष्टीय स्तर के बैंक होने चाहिए। मगर इन सुझावों को लागू करने में सरकार ने कोई विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई। किन कारणों के चलते ऐसा किया, इस बारे में कुछ नहीं कह सकते। वैसे भी उन कारणों की विवेचना इस लेख का मुख्य उद्देश्य नहीं है। मगर 27 चेयरमैन और 60-70 अन्य बड़े अधिकारियों की नियुक्ति का लोभसंवरण सरकारें नहीं कर पाई। इस बात का सिर्फ  अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि एनपीए (नॉन परफॉर्मिग असेट्स) अथवा खचरे में कितनी पारदर्शिता होती होगी। खैर, हर चीज फॉरेंसिक नजरिये से प्रस्तुत नहीं की जा सकती। इसलिए सरकार ने तीन दशकों पुराने सुझावों को अमल में लाने के लिए अब  कदम उठाया। मगर शायद यह उचित समय नहीं है। किसी भी मरीज के ऑपरेशन से पहले उसके महत्त्वपूर्ण अंगों के कार्य करने की जांच आवश्यक होती है।

इस समय अर्थव्यवस्था के आंकड़े कमजोर चक्र की ओर इशारा कर रहे हैं। और ऐसे में यथास्थिति बनाते हुए चक्र के ऊपर की ओर आने का इंतजार शायद अधिक उचित होता। एक-एक करके अगर हम मर्जर के पक्ष की बात करें तो पहला तर्क है-एनपीए की रिकवरी के लिए विलय जरूरी है। इससे बैंक बड़े हो जाएंगे। यहां यह देखना महत्त्वपूर्ण है कि क्या बैंकों का विलय कर देने से एनपीए कम हो जाएंगे। अगर यह तर्क तनिक भी सत्य होता तो आंकड़े उठा कर देख लीजिए। भारतीय स्टेट बैंक एवं पंजाब नेशनल बैंक से अधिक ग्रॉस एनपीए वाले लगभग 15 उनसे छोटे बैंक हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि साइज बड़ा करने से कोई लाभ नहीं होगा। लगता है कि यह तर्क सही नहीं है। कार्य करने वाले वही रहेंगे। विधिक व्यवस्था भी और आस्तियां भी। खराब हो चुके लोन के मालिक को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि नोटिस किस बैंक से आ रहा है। एक अन्य तर्क है कि-इससे परिचालन के खर्चे कम होंगे। यहां यह देखना उचित होगा कि देश इस समय धीमी होती अर्थव्यवस्था से जूझ रहा है। इसका एकमात्र हल लोगों को खर्चा करने के लिए प्रेरित करना है। उनको सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध कराना और रोजगार सृजन करना बहुत आवश्यक हैं।
बात थोड़ा सोचने की है कि परिचालन व्यय शुद्ध अथरे में ईधन ही है, अर्थव्यवस्था के लिए। अगर विलय करे गए बैंकों में छंटनी न भी हुई तो क्या नई भर्तियां होंगी? जवाब है नहीं होंगी क्योंकि तभी तो परिचालन व्यय घटेगा। शाखाएं आपस में विलय हो जाएंगी। प्रॉपर्टी किराये के लिए बाजार में और आ जाएंगी और इसका उल्टा असर होगा। सर्विस देने वाली संस्थाओं की पेमेंट कम हो जाएगी। अर्थव्यवस्था में काउंटर साईकिलिकल उपायों की जगह यह प्रो साईकिलिकल असर देगा। मंदी  की  आशंका को बढ़ाएगा यह कदम।  कम से कम इस समय ऐसा नहीं करना चाहिए था। एक तर्क और है कि इससे बैंकिंग में जोखिम कम होगा। सोचिए, अगर जोखिम कम हो रहा होता तो ‘मुख्य जोखिम अधिकारी’ की नियुक्ति मार्केट से किए जाने को क्यों कहा जाता। इसका सीधा-सा मतलब है कि जोखिम बढ़ेगा। अब अगर जोखिम बढ़ेगा ही तो विलय क्यों? आइए, विचार करते हैं कि वह कौन सा जोखिम है, जिसको संभालने  के लिए बैंकों की बैलेंस शीट को बड़ा किया जा रहा है और मर्जर किया जा रहा है? इस समय विश्व ‘ट्रेड वॉर’ के मध्य में है, जो एक नीतिगत बात है। मगर इसके प्रभाव से करेंसी वॉर की स्थिति बनी हुई है। चीन ने अपनी करेंसी का अवमूल्यन आधिकारिक रूप से किया है। हम धीरे-धीरे रोज कर रहे हैं।
हमें यह समझना होगा कि भारतीय रुपया ‘कैपिटल अकाउंट’ में पूर्ण परिवर्तनीय नहीं है। इस वजह से विदेशी निवेश का प्रवाह बाधित होता रहता है। एक स्तर से ऊपर वह जा नहीं पाता। यदि भारत इस समय ऐसा निर्णय लेता है तो वह एक अच्छा निर्णय होगा। यह कोई एक निर्णय नहीं हो होगा, बल्कि निर्णयों की एक पूरी की पूरी लड़ी ही होगी जिसकी शुरुआत एफपीआई निवेश में केवाईसी उदारता के रूप में और सिंगल ब्रांड निवेश में लोकल सोर्संिग की छूट के रूप में आरम्भ हुई है। ऐसी व्यवस्था में पांच से दस साल तक लगना आम बात है। इस नये ऑर्बिट में प्रवेश करने के लिए छोटे इंजन नहीं, बल्कि बड़े इंजन की आवश्यकता होगी। वह इंजन मुख्यत: बैंक एवं स्टॉक मार्किट हैं। बाकी उपकरण कंट्रोल्स सम्बंधित हैं। बैंकों का मर्जर इस दिशा में उठाए जाने वाले कदमों से सामंजस्य रखने के लिए है। जाहिर है कि इसमें समय लगेगा और हमने एक महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करना है। इस पांच-दस साल के ऑपरेशन तक अहमदाबाद  के नजदीक  बनाई गई ‘गिफ्ट सिटी’ एक इनक्यूबेटर का काम करेगी।
हमें ध्यान रखना चाहिए कि चीन और अमेरिका के मध्य इस समय चल रहे गतिरोध का कैसे लाभ उठाया जाए। चीन में ‘कैपिटल अकाउंट कन्र्वटििबल्टी’ नहीं है, और वह इस ओर सोच भी नहीं रहा। अगर हम तेजी से कदम उठाएं तो इस स्थिति का लाभ अवश्य ही हमारी अर्थव्यवस्था को होगा। इस दृष्टि से ऐसे विपरीत समय में भी बैंकों के विलय का कदम उठा कर सरकार ने बहुत कुछ अनुचित तो नहीं किया है। मगर इसके साथ-साथ अन्य कदमों का सफल क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। लंबी उड़ान के लिए बड़े और मजबूत इंजन के अलावा ईधन भी पर्याप्त चाहिए होता है। इसलिए भारतीय रिजर्व बैंक से धनराशि ले कर मुख्य पेट्रोल टैंक में भर लेना भी उचित है। पाकिस्तान से तनाव के चलते हम सबने पेटियां बांध ही रखी हैं, उतनी ही काफी हैं इस उड़ान के लिए भी।

अनिल उपाध्याय


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