एनआरसी : बावेला अनुचित
असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की अंतिम सूची जारी होने के बाद जिस तरह का हंगामा मचा है वह स्वाभाविक है।
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जब जुलाई 2018 में मसौदा जारी हुआ था तब भी हमने ऐसे ही दृश्य देखे थे। हालांकि उस समय सूची से 40.37 लाख लोगों के नाम गायब थे। अब अंतिम सूची से 19,06,657 लोग बाहर हो गए हैं। इसके उलट एनआरसी में काफी बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों के नाम हैं, लिहाजा इसके खिलाफ राजनीतिक दलों के नेता और एक्टिविस्ट आ गए हैं। विदेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए आंदोलन करने वाले संगठनों में से एक ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) सहित कई संगठनों ने असंतोष व्यक्त किया है कि इसमें बांग्लादेशियों के नाम भारी संख्या में आ गए हैं। आसू ने इसके खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाने का ऐलान कर दिया है।
असम के वित्त मंत्री और भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हिमंता बिस्व सरमा ने भी इस सूची पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा है कि 1971 से पहले बांग्लादेश से भारत आए अनेक शरणार्थियों को एनआरसी सूची से बाहर निकाला गया है। उनका कहना है कि काफी लोग गलत तरीके से जन्म आदि प्रमाण पत्र बनवाकर सूची में स्थान बनाने में सफल हो गए हैं। उन्होंने भी सर्वोच्च न्यायालय में जाने की बात की है। असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल का कहना है कि गलत ढंग से सूची में शामिल हुए विदेशी लोगों और बाहर हुए भारतीयों को लेकर केंद्र सरकार कोई विधेयक भी ला सकती है। इसका अर्थ हुआ कि भले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय सीमा आगे न बढ़ाने के कारण 31 अगस्त को एनआरसी जारी कर दी गई, पर अभी इसे अंतिम नहीं माना जा सकता।
इस तरह एनआरसी के राज्य समन्वयक प्रतीक हजारिका ने कुल 3,11,21,004 लोगों को असम का नागरिक होने की बात कह दी पर यह अंतिम सूची नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर भारतीय महापंजीयक की देखरेख में यह व्यापक अभियान चला था। यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि एनआरसी से बाहर किए गए लोग शेड्यूल ऑफ सिटिजनिशप के सेक्शन 8 के मुताबिक तय समय सीमा के अंदर विदेशी न्यायाधिकरण के सामने अपील कर सकेंगे। इसके लिए सरकार ने 120 दिनों की पर्याप्त समयसीमा तक कर दी है। असम सरकार का कहना है कि वह वैसे सारे लोगों को कानूनी सहायता उपलब्ध कराएगी जिनके पास क्षमता नहीं है। न्यायाधीकरण की संख्या भी 100 से बढ़ाकर 300 कर दी गई है। जिनको न्यायाधीकरण नागरिक नहीं मानेगा, वे उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय जा सकते हैं। जब तक उनके मामले का अंतिम निपटारा नहीं होता तब तक सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करेगी। हम जानते हैं कि सभी लोगों के लिए इस सीमा तक कानूनी लड़ाई संभव नहीं होगा। उनकी मदद सरकार को करनी होगी। यह समझने की आवश्यकता है कि असम में एनआरसी की जरूरत क्यों हुई? राजनीतिक दलों और मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इसकी विकृत तस्वीर पेश की है। असम में देश की नागरिकता कानून से थोड़ा अलग समझौता 1985 लागू होता है। एक साथ नागरिकता कानून 1955 और नागरिकता की अनुसूची (नागरिकों का पंजीकरण और राष्ट्रीय पहचान कार्ड का मुद्दा) कानून, 2003 की अनुसूची लागू है।
असम एकमात्र राज्य है, जहां 1951 में हुई जनगणना के बाद पहला एनआरसी रजिस्टर बना था। सरकार के आदेश पर 1960 में एनसीआर विवरणी को पुलिस को सौंप दिया गया। पुलिस उसपर कार्रवाई करती तो समस्या का कुछ समाधान होता। राजनीतिक नेतृत्व ने काम नहीं करने दिया। दूसरी ओर घुसपैठ बढ़ती गई। वर्ष 1979 में असम में यह मांग हुई कि उस रजिस्टर को अपडेट किया जाए। तब तक पड़ोसी देश से आने वालों ने असम के अनेक क्षेत्रों में अशांति एवं तनाव पैदा कर दिया था और जनसंख्या असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। केंद्र ने इस पर ध्यान नहीं दिया तो इनको बाहर निकालने के लिए उग्र जन आंदोलन आरंभ हो गया। ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) और ऑल असम गण संग्राम परिषद के बैनर तले चले आंदोलन ने पूरे असम को ठप कर दिया। हिंसा भी जमकर हुई। अंतत: 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने आंदोलनरत छात्र नेताओं के साथ समझौता किया। इसमें एनआरसी बनाने का प्रावधान था। इसमें तीन बातें प्रमुख थीं। एक, 1951 से 1961 के बीच असम आए लोगों को पूर्ण नागरिकता और वोट देने का अधिकार मिलेगा। दो, 1961 से 1971 के बीच आने वालों को नागरिकता और अन्य अधिकार दिए जाएंगे लेकिन वोट का अधिकार नहीं दिया जाएगा। 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए लोगों को वापस भेजा जाएगा।
जाहिर है, इस समझौते को लागू करने का कार्य समयसीमा में पूरा हो जाना चाहिए था। असम में कई प्रकार के आंदोलन हुए किंतु बंगलादेशी घुसपैठियों के विरुद्ध हुए आंदोलन को जितना व्यापक जनसमर्थन मिला वैसा किसी को नहीं मिला। घुसपैठियों से सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जटिलताएं पैदा हो गई। लेकिन असम समझौता लागू नहीं हुआ। बीच-बीच में आंदोलन चलते रहे। 2005 से फिर आसू ने आंदोलन आरंभ किया। 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई बैठक में एनआरसी को अपडेट करने का निर्णय लिया गया। वर्ष 2010 में एनआरसी को अपडेट करने के पायलट प्रॉजेक्ट को तब अचानक रोक दिया गया, जब बारपेटा जिले में हिंसक प्रदशर्न के दौरान 4 लोगों की मौत हो गई और कई घायल हो गए। अंतत: एक एनजीओ ने 2013 में सर्वोच्च न्यायालय का दरवाला खटखटाया और वहां से शुरुआत हुई। किंतु भारत में हर व्यवस्था में खांच निकालने वाले हैं। इसमें ऐसे लोगों के नाम आ गए, जिनका नहीं आना चाहिए और बहुत सारे वास्तविक असमी, जिनके पास वैध दस्तावेज नहीं या जो अपने पूर्वज का पूरा नाम नहीं जानते, बुजुर्ग अकेली महिलाएं या गरीब परिवार जो कागजात संभालकर रखने के अभ्यस्त नहीं होते वंचित रह गए। इसलिए इसमें सुधार जरूरी है। 1951 के बाद ही असम की जनसंख्या देश के दूसरे हिस्सों से ज्यादा अनुपात में बढ़ती रही। 1971 के बाद इसमें ज्यादा तेजी आई। असम के 33 जिलों में से 9 में मुस्लिम आबादी आधी या उससे ज्यादा है। बताया जाता है कि इन्हीं जिलों में बांग्लादेशियों की घुसपैठ काफी हुई है। छाती पीटने वाले ध्यान रखें सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए विदेशी हमला जैसा शब्द प्रयोग किया था। पूरी प्रक्रिया न्यायालय की निगरानी में है इसलिए उम्मीद करनी चाहिए कि अन्याय नहीं होगा।
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