कुपोषण : पार पाना बड़ी चुनौती
महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राज्य सभा में इसी साल जुलाई महीने में देश को विश्वास दिलाया था कि 2022 तक देश में कुपोषण के मामले नहीं रह जाएंगे।
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मगर, डब्ल्यूएचओ की ताजा रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली अभी दूर है। स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन 2019 की रिपोर्ट कहती है कि एशिया में 50 करोड़ से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। भारत में 5 साल से कम उम्र के ऐसे बच्चों की तादाद करीब 7.5 करोड़ है। एशिया में हर तीसरा बच्चा कुपोषित है, जबकि दुनिया में हर 9 में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।
चिन्ता की बात ये है कि भूखे लोगों की तादाद घटने के बजाए पिछले तीन साल में बढ़ गई है। यूनीसेफ की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 82 करोड़ लोगों के पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन 2018 में नहीं था। 2017 में यह आंकड़ा 81.1 करोड़ थी। इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया की 26.4 फीसद आबादी यानी करीब 2 अरब लोगों को पर्याप्त और पौष्टिक भोजन नहीं मिल पाता है। कम वजन के साथ पैदा होने वाले बच्चों की तादाद 2 करोड़ से ज्यादा है। हर 7वां बच्चा कम वजन के साथ पैदा होता है। उम्र के हिसाब से कम लम्बाई वाले बच्चे (स्टंटेड) 21.9 फीसद हैं, जिनकी संख्या 14 करोड़ 89 लाख है। लम्बाई के हिसाब से कम वजन वाले (वेस्टिंग) बच्चे 7.3 प्रतिशत हैं। इनकी कुल संख्या 4.95 करोड़ है। जरूरत से ज्यादा वजन वाले बच्चों की तादाद 5.9 फीसद है। यह भी उल्लेखनीय है कि मोटापे का शिकार लोगों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं है। यह कुल आबादी का 13 फीसद है।
यानी हर 8वां वयस्क मोटापे का शिकार है। भारत के लिए यह चिन्ताजनक बात है कि यह अपने पड़ोसी बांग्लादेश से भी शिशु मृत्युदर में पीछे है। भारत में शिशु मृत्युदर 67 प्रति हजार है, जबकि बांग्लादेश में यह 48 प्रति हजार है। भारत में 5 साल से कम उम्र के कुपोषित बच्चे 35 प्रतिशत हैं। इनमें भी बिहार और उत्तर प्रदेश सबसे आगे हैं। उसके बाद झारखण्ड, मेघालय और मध्य प्रदेश का नम्बर है। मध्य प्रदेश में 5 साल से छोटी उम्र के 42 फीसद बच्चे कुपोषित हैं तो बिहार में यह फीसद 48.3 है। बच्चों की कुशलता को मापने वाले एक अन्य सूचकांक के मुताबिक झारखण्ड और मध्य प्रदेश कुपोषण में अव्वल हैं। विजन इंडिया और आईएफएमआर लीड ने इस सूचकांक को विकसित किया है। द चाइल्ड वेल-बीइंग इंडेक्स रिपोर्ट से यह बात सामने आई है। ऐसा नहीं है कि कुपोषण के मामले में भारत में कोई प्रगति नहीं हुई है। 2005-06 में कुपोषण के शिकार लोगों (स्टंटेड) का प्रतिशत 48 था जो 2015-16 में घटकर 38.4 फीसद और 2018 में 31 फीसद रह गया है। फिर भी इस मामले में भारत नम्बर वन पर बना हुआ है। केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय पोषण मिशन’ शुरू किया था, जो अब ‘पोषण अभियान’ के नाम से जाना जाता है। इसका लक्ष्य स्टंट कैटेगरी में आने वाले बच्चों की संख्या हर साल 2 फीसद कुपोषण कम करते हुए 2022 तक 25 फीसद के स्तर तक पहुंचना था। इस हिसाब से भी देखें तो महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी की ओर से कुपोषण मुक्त भारत का लक्ष्य 2022 तक हासिल करना चौंकाने वाला बयान माना जाएगा। कुपोषण निर्धनता और असमानता का प्रतीक है तो इसकी मौजूदगी से निर्धनता और असमानता भी बढ़ती चली जाती है। मतलब ये कि कुपोषण और निर्धनता व असमानता में परस्पर अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। यानी ये दोनों एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
कुपोषण मुक्त शिशु स्वस्थ श्रमबल का आधार होते हैं, जबकि कुपोषण के शिकार शिशु अशिक्षित और अस्वस्थ श्रमबल बनकर देश पर बोझ बन जाते हैं। कुपोषण का संबंध महिलाओं की स्थिति से भी है। महिलाओं की स्थिति में सुधार कर कुपोषण की स्थिति का सामना किया जा सकता है। इसके लिए सरकार ने कई योजनाएं चलाई हैं। इनमें महिला सशक्तिकरण, बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ, गर्भवती महिलाओं को पोषक आहार जैसी योजनाएं शामिल हैं। इसके अलावा भी कई योजनाएं हैं, जो महिलाओं की स्थिति में सुधार कर परोक्ष रूप से कुपोषण से लड़ रही हैं। कुपोषण में दूषित जल का भी बड़ा योगदान होता है। सरकार अब घर-घर नल पहुंचाने की योजना पर काम कर रही है। ऐसा करके पेयजल का संकट दूर किया जा सकेगा और पानी से पैदा होने वाली बीमारियों से लोगों को बचाया जा सकेगा। इससे न सिर्फ गर्भवती महिलाओं को फायदा होगा, बल्कि शिशु और आम लोग भी लाभान्वित होंगे। इन सबके बावजूद बड़ा सवाल यही है कि क्या कुपोषण से चौतरफा लड़ाई में उतरती दिख रही सरकार इसे मात देने में कितना समय लगाती है?
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