बतंगड़ बेतुक : गुलामी के लिए आजादी की लड़ाई

Last Updated 01 Sep 2019 05:07:14 AM IST

झल्लन हमें देखते ही बोला, ‘ददाजू, आज मन बहुत दुखी है। कश्मीर को लेकर दिल में दर्द हो रहा है। हमारे पास जो थोड़ा बहुत दिमाग है वह रो रहा है।’


बतंगड़ बेतुक : गुलामी के लिए आजादी की लड़ाई

हमने कहा, ‘देख झल्लन, जिसे दुखी होना हो वो दुखी हो जिसे खुश होना है वो सुखी हो। हमने तो कश्मीर को लेकर अपने दिमाग के कपाट बंद कर लिये हैं। और कश्मीर ही क्या, देश की किसी भी समस्या को लेकर हमने अपनी समझ पर ढक्कन रख दिये हैं।’
झल्लन बोला, ‘ददाजू, आपको क्या हो गया है। लगता है आपका बौद्धिक जमीर सो गया है।’ हमने कहा, ‘जब जग रहा था तब हमने किसी का क्या उखाड़ लिया, अब सो गया है तो किसी का क्या बिगाड़ लेंगे, इसलिए हमने सोचा है कि चुप रहना ही ठीक है, अब चुप ही रहेंगे।’ झल्लन फिर बोला, ‘आपका फैसला है ददाजू, इसमें झल्लन क्या कर सकता है। आपके पास बैठकर थोड़ी सी बकबक कर लेता है वही कर सकता है। अगर समझा सकें तो बस इतना समझा दीजिए कि कश्मीर मांगता क्या है, आम कश्मीरी चाहता क्या है?’ हमने कहा, ‘कश्मीर क्या चाहता है इसकी चिंता किसे है। न इसे है न उसे है। भारत चाहता है कि कश्मीर उसके हिसाब से चले, पाकिस्तान चाहता है कि उसके हिसाब से हिले-डुले। पाकिस्तान दुश्मनी भारत से निकालना चाहता है पर निकाल कश्मीर और कश्मीरियों से रहा है, उन्हें भड़का रहा है कि वे अपने ही घर में आग लगाते रहें और खुद उसमें झुलसते रहें।’

झल्लन बोला, ‘पर ददाजू, कश्मीर क्या चाहता है?’ हमने कहा, ‘आम कश्मीरी तो शांति चाहता है पर वहां के लोग कहते हैं कि कश्मीर आजादी चाहता है।’ झल्लन बोला, ‘क्या बात करते हो ददाजू, जब कश्मीर गुलाम ही नहीं है तो किससे आजादी, कैसी आजादी?’ हमने कहा, ‘यही तो खेल है। तू कहता है कि कश्मीर गुलाम नहीं है पर कश्मीर कहता है कि वह गुलाम है। 370 हटने के बाद वह और ज्यादा गुलाम हो जाएगा और इस गुलामी को वह हजम नहीं कर पाएगा।’ झल्लन बोला, ‘ददाजू, हम मंदबुद्धि हैं हमें ठीक से समझाइए। आजादी और गुलामी का यह खेल जरा खोलकर बताइए।’
हमने कहा, ‘देख भई, कश्मीर भौतिक तौर पर गुलाम नहीं है। जो भौतिक अधिकार भारत के अन्य नागरिकों को मिले हुए हैं वे कश्मीर के लोगों को भी मिले हुए हैं। जितनी भौतिक आजादी भारत के अन्य लोगों को मिली हुई है उतनी ही कश्मीर के लोगों को भी मिली हुई है। जीवन जीने की जो व्यवस्थाएं भारत के अन्य लोगों के पास हैं वे कश्मीर के लोगों के पास भी हैं। लेकिन इसके बावजूद कश्मीर के लोग आजादी चाहते हैं तो इसका मतलब हुआ कि वे मानसिक रूप से खुद को गुलाम मानते हैं इसलिए आजादी चाहते हैं।’ वह बोला, ‘ददाजू, ठीक से बताइए, थोड़ा खुलकर समझाइए?’ हमने कहा, ‘देख भई, आजादी और गुलामी दो जुड़वा बहनें हैं, दोनों हमेशा गलबहियां किये रहती हैं, एक-दूसरे के साथ चलती हैं, एक-दूसरे की खुराक पर पलती हैं।’ हमारी बात सुनकर झल्लन ने लंबी सांस ली और बोला, ‘ददाजू, आजादी का मतलब बता रहे हो या पहेलियां बुझा रहे हो।’ हमने कहा, ‘इसमें पहेली कुछ भी नहीं है। तू ही बता दोनों एक-दूसरे की सहेली नहीं हैं? जब तक मानसिक गुलामी का अहसास नहीं होगा आजादी का खयाल कहां से पैदा होगा?’ झल्लन सर खुजाते हुए बोला, ‘ये मानसिक गुलामी का अहसास कहां से आता है, इंसान के जेहन में इसे कौन और क्यों लाता है?’ हम झोंक में बोले, ‘देख झल्लन, हर इंसान किसी न किसी ऐसी चीज का गुलाम होता है जिसे वह अपने दिल-दिमाग पर लादे रहता है। कोई अपनी जाति का गुलाम होता है, कोई अपने मजहब का गुलाम होता है, कोई अपनी तहजीब का गुलाम होता है, कोई अपनी रवायत का गुलाम होता है तो कोई अपने इतिहास का गुलाम होता है और कोई अपने भूगोल का गुलाम होता है। इंसान अगर किसी ऐसी भावना का स्वैच्छिक गुलाम है तो वह अपनी इस गुलामी को ही अपनी आजादी की पहली शर्त मानता है। उसकी इस गुलामी में कोई दखल दे तो लड़ता है, जुझारू हो जाता है मरने-मारने पर उतारू हो जाता हे। मतलब यह कि अपनी इस मानसिक गुलामी को बचाने की जद्दोजहद को ही वह आजादी की लड़ाई कहता है। अगर वह अपनी इस जहनी गुलामी में दूसरों को शामिल करने में या इसे दूसरों पर थोपने में सफल हो जाता है तो अपनी जीत मानता है और अगर कोई उसकी इस गुलामी में दखलंदाजी करे तो इसे अपनी आजादी में दखल मानता है।’ झल्लन झल्लाया सा बोला, ‘ददाजू, आप जो समझा रहे हैं वह कुछ तो हमारे सर से ऊपर निकल जाता है और कुछ हमारी समझ से नीचे फिसल जाता है। पर ये बताइए आपकी इन बातों का कश्मीर से क्या नाता है?’ हमने उठते हुए कहा, ‘आजादी अपनी जिदें छोड़कर एक-दूसरे को समझने, एक-दूसरे से मोहब्बत करने और एक-दूसरे के साथ चलने में है। बाकी हम अभी नहीं बता पाएंगे अगली बार जब मिलेंगे तब समझाएंगे। बस इतना समझ ले कि वहां आजादी गुलामी के लिए लड़ रही है, गुलामी आजादी का चोला पहनकर चल रही है।’

विभांशु दिव्याल


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