वैदेशिक : भारत बदलेगा अपना एटमी नजरिया!
हम शांति की बात करते-करते लगता है कि थोड़ा शांति के रास्ते से आगे भी निकल गए हैं। हम हेनरी किसिंजर के उस सिद्धांत की बात करें, जो कहता है कि-‘शांति कोई नैसर्गिक विधान नहीं है।
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शांति और सुरक्षा भगवान भरोसे नहीं छोड़े जा सकते।’ तो हमें शांति से कुछ कदम आगे बढ़ने पर इत्मिनान ही होगा लेकिन कुछ शंकाएं भी हैं अर्थात भारत ऐसा कदम बढ़ाता है तो शेष दुनिया इसे किस तरह से लेगी और अंतिम रूप से इसका भारत पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
पिछले दिनों ऐसे संकेत मिले हैं, जिनसे लगता है कि भारत अपने न्यूक्लियर डॉक्ट्रिन को बदल सकता है? दरअसल, फ्रांस में जी 7 समिट के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात हुई तो उसके थोड़ी ही देर बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अपने देश की जनता को संबोधित किया। इस संबोधन के दौरान उन्होंने धमकी भरे लहजे में कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ तो इसका प्रभाव विश्व स्तर पर महसूस किया जाएगा। सवाल उठता है कि परमाणु युद्ध की तैयारी में कौन है? अब तक परमाणु बम की धमकी कौन देता आया है? हां, भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अभी कुछ दिन पहले ही पोखरण में अवश्य कहा है कि भारत परमाणु हथियारों के ‘पहले इस्तेमाल न करने’ की नीति पर अभी भी कायम है, लेकिन भविष्य में क्या होता है, यह परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। इससे यह संदेश तो गया कि भारत अपने एटमी सिद्धांत को बदलना चाहता है? क्या ऐसा करना उचित होगा?
ध्यान रहे कि भारत ने पोखरण दो (1998) के बाद ही अपने नाभिकीय हथियारों का पहले प्रयोग न करने की नीति की घोषणा कर दी थी, जिसे 2003 में आधिकारिक रूप दिया गया। इस नीति में ‘नाभिकीय शस्त्रों का पहले प्रयोग नहीं’ और ‘विसनीय न्यूनतम निवारण’ को मान्यता दी गई थी। इस लिहाज से भारत के एटमी सिद्धांत में तीन बातें विशेष रूप से स्पष्ट हुई। पहली- नो फस्र्ट यूज, दूसरी-मिनिमम न्यूक्लियर डेटरेंस और तीसरी-डिस्आर्मामेंट। मोटे तौर हमारी यही नीति रिटेलिएशन की नीति को भी प्रतिबिम्बित करती है। भारत ने औपचारिक रूप से भले ही इस नीति को 2003 में अपनाया हो लेकिन वह शुरू से ही शांति और नि:शस्त्रीकरण को वरीयता देता रहा है जबकि इसके विपरीत पाकिस्तानी हुक्मरान प्राय: परमाणु बम की धमकी देते देखे गए हैं। वहां जुल्फिकार अली भुट्टो नाम का नेता भी हुआ है, जो कहता था कि हम घास की रोटी खाएंगे लेकिन एटम बम जरूर बनाएंगे। ऐसा इसलिए क्योंकि उसका मकसद भारत के खिलाफ हजारों साल तक युद्ध लड़ने का था। यहीं पर आकर एक बड़ा अंदर हमें दोनों देशों के मौलिक सिद्धांतों में देखने को मिलता है।
भारत का परमाणु कार्यक्रम रक्षा के लिए है, न कि युद्ध के लिए। लेकिन पाकिस्तान का भारत के खिलाफ युद्ध लड़ने के लिए। यही वजह है कि पाकिस्तान ने भारत की तरह नो फस्र्ट यूज जैसी पॉलिसी नहीं बनाई। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 2016 में पाकिस्तान की स्ट्रैटेजिक प्लानिंग डिवीजन के ले. जनरल खालिद किदवई ने खुलासा किया था कि पाकिस्तान के सारे परमाणु हथियार भारत पर हमला करने के लिए फिक्स हैं। चूंकि पाकिस्तान भारत के साथ सतत युद्ध चाहता है, इसलिए निरंतर अपने परमाणु हथियार भंडार में वृद्धि कर रहा है। ध्यान रहे कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार इस समय पाकिस्तान के पास करीब 130 से 150 के आसपास परमाणु हथियार हैं, जबकि भारत के 110 से 130 हो सकते हैं। तो क्या भारत को अपने मौलिक सिद्धांत में परिवर्तन करने के लिए विचार नहीं करना चाहिए?
दरअसल, भारत का न्यूक्लियर सिद्धांत आदर्शवादी अधिक है, और आदर्शवाद केवल शांतिकाल के लिए व्यावहारिक होता है न कि उस काल के लिए जबयुद्ध की स्थिति हो या पड़ोसी देश घेरने या युद्ध जैसी व्यूहरचना का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हों। इसलिए भारत को अपनी एटमी और रक्षा नीति को व्यावहारिक और परिस्थितिजन्य बनाना चाहिए। कुल मिलाकर जब पाकिस्तान अपने सामरिक परमाणु हथियारों में लगातार वृद्धि कर रहा हो और चीन अपने त्वरित कार्रवाई बल (सैन्य) का आधुनिकीकरण कर रहा हो तो सुरक्षा को आदर्शवाद के सहारे नहीं छोड़ना चाहिए। लेकिन निर्णय लेने से पहले दुनिया की तरफ भी देखना होगा।
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