मीडिया : ‘फेक न्यूज’ का उपचार

Last Updated 01 Sep 2019 04:59:03 AM IST

‘फेक न्यूज’ को पहचानने और रोकने के दो-तीन तरीके हो सकते हैं: पहला है ‘तकनीकी तरीका’, दूसरा है ‘सांस्थानिक और कानूनी तरीका’ और तीसरा है ‘खबर के स्त्रोत तक पहुंचने के पत्रकारिता के पुराने तरीके की ओर लौटना’।


मीडिया : ‘फेक न्यूज’ का उपचार

बहुत से सोशल मीडिया ‘प्लेटफार्मो’ जैसे ‘व्हाट्सएप’ ने ऐसी तकनीकी व्यवस्थाएं की हैं,  जिनसे ‘फेक न्यूज’ नियंत्रित की जा सकती हैं, उनका ‘झूठ’ पकड़ा जा सकता है। नियंत्रित करने के लिए उसने अधिकतम ‘पांच फार्वड’ की व्यवस्था की है। लेकिन यह व्यवस्था कितनी सफल है? इसकी जांच-पड़ताल अभी नहीं हुई है। प्रकटत: तो यह व्यवस्था फेक न्यूज पर कुछ अंकुश लगाती है लेकिन किस हद तक, अभी अस्पष्ट है।

‘व्हाट्सएप’ किसी भी ‘न्यूज’ या ‘ओपिनियन’ या ‘वीडियो’ को सिर्फ ‘पांच बार फार्वड’ करने की व्यवस्था देती है, लेकिन इसमें यह साफ नहीं है कि एक दिन में क्या सिर्फ ‘पांच बार फार्वड’ कर सकते हैं, या कि एक ही टेक्स्ट को एक-एक सेकिंड के अंतराल से  पांच-पांच को फार्वड कर सकते हैं, या कि टेक्स्ट में कुछ मामूली फेरबदल कर उसे पांच-पांच को फार्वड कर सकते हैं। सभी जानते हैं कि हर व्यवस्था का तोड़ उसे तोड़ने वाले निकाल ही लेते हैं, और वे इस नियंत्रण का भी तोड़ निकाल लेंगे।
‘फेक न्यूज’ रोकने का दूसरा उपाय है कुछ सख्त सांस्थानिक और कानूनी उपाय।

अगर उसका पहला स्रोत पकड़ा जाए तो उसे सख्त सजा भुगतनी होगी। देश में आईटी कानूनों में इसी के लिए कई परिवर्तन किए गए हैं, लेकिन फिर भी ‘फेक न्यूज’ नहीं रुकी हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार लगभग हर प्लेटफार्म पर ‘फेक न्यूज’ के धंधेबाज दिन-रात एक्टिव रहते हैं क्योंकि फेक न्यूज इन दिनों नया राजनीतिक हथियार है। अब तो यह एक भरी-पूरी इंडस्ट्री है। इसीलिए हमारा मानना है कि ‘फेक न्यूज’ का सही उपचार खबर के इकट्ठा करने के ‘पुराने तरीके की ओर लौटना’ है यानी खबर के प्राथमिक ‘स्रोत’ तक जाना और तर्क-वितर्क से खबर के सत्य होने को ‘पुष्ट’ करना  है यानी जिस खबर का ‘स्रोत’ पक्का न हो, उसे ‘फेक’ मानना है।

हम उदाहरण लें : जब से अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटा है, पकिस्तान के सोशल मीडिया हैंडलरों ने ‘फेक न्यूज’ और ‘फेक वीडियोज’ को अपना बड़ा हथियार बनाया है, जिसका जवाब हमारे मीडिया ने ऐसी खबरों के ‘फेकपन’ को सप्रमाण उजागर करके दिया है। एक खबर चैनल तो हर रोज ऐसी ‘फेक न्यूजों’ की पोल खोलता है। फिर भी ‘फेक न्यूज’ नहीं रुकतीं, बल्कि और जोर से बढ़ती जाती हैं क्योंकि वे ‘साइबर राजनीति’ की सबसे नया हथियार हैं। इसलिए यह सवाल रह ही जाता है कि ‘फेक न्यूज’ को कैसे पहचाना और रोका जाए?

इसका  पहला और विसनीय उपाय तो यही है कि एक समाचार पाठक के रूप में हम अपनी ‘कॉमन सेंस’  से काम लें। अगर आपके ‘व्हाट्सएप’ या ‘ट्विटर’ या ‘फेसबुक’ पर कोई खबर आपकी ‘कॉमन सेंस’ को चौंकाने वाली या भड़काने वाली लगती है तो उससे उत्तेजित हो, उसे तुरंत फार्वड करने की जगह आप पहले उसको मुख्यधारा के, कम से कम, दो तीन मीडिया चैनलों या अखबारों से या न्यूज एजेंसीज से मिलाकर ‘कनफर्म’ करें और जब ‘कनफर्म’ हो जाए तो आगे बढ़ें। लेकिन सबसे बड़ी आफत है: ‘जल्दबाजी की आदत। ‘व्हाटसएप’  हो या ‘ट्विटर’ या ‘फेसबुक’ सभी ‘तत्कालवादी प्लेटफार्म’ हैं। यहां सब ‘तत्काल’ में जीते हैं। इधर दो लाइनें या चित्र आया, उधर रिएक्ट किया और/या आगे ‘रवाना’ किया। सोशल मीडिया की प्रकृति ही ‘उकसावे’ वाली और ‘उत्तेजक’ है। वह हमें हर बार ‘नहले पर दहले’ मारना सिखाता है।

विनम्रता कमजोरी है, गुस्सा, घृणा और बदलाखोरी की भाषा सोशल मीडिया की अलंकार हैं। इसीलिए अफवाह और फेक न्यूज उसका सबसे बड़ा ‘उत्पाद’ है। यही नहीं, सोशल मीडिया अपने ‘तिहरे छद्म’ में रहता है : एक तो  आभासी संसार का अपना ‘छद्म’ होता है, दूसरे यहां ‘मित्र समूह’ का भी एक छद्म संसार होता है जिसमें से किसी को जब चाहे अमित्र किया जा सकता है। तीसरा छद्म ‘आभासी मित्रों’ को नकद खरीदकर अपनी ‘लाइक्स’ बढ़ाने का भी है।
इन दिनों तो ज्यादातर राजनीतिक युद्ध इसी सोशल मीडिया के जरिए लड़े जा रहे हैं, और जब से मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया को अपना स्रोत समझने लगा है, तब से फेक न्यूज से लड़ने की समस्या दुरूह हो गई है। इसलिए जरूरी है कि अपनी पत्रकारिता, खबर जुटाने, बनाने और उसको पक्का करने के क्लासीकल तरीकों की ओर लौटे ताकि हर खबर अपने ‘स्रोतों के पक्केपन’ से जानी जाए।

सुधीश पचौरी


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