सरोकार : जलाशयों को बचाने की अच्छी पहल
जलाशयों को बचाने की कवायदों के बीच राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) के हालिया निर्णय से उम्मीद की किरण जगी है।
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हाईकोर्ट के पूर्व जज की अध्यक्षता में गठित निगरानी समिति ने एनजीटी से कहा है कि भूमि का मालिकाना हक रखने वाली एजेंसियां शहरों में जलाशयों पर अतिक्रमण रोकें और उनकी पहचान के लिए विशिष्ट पहचान संख्या जारी करें। इसके अलावा, समिति ने एनजीटी से कहा कि जलाशयों के चारों ओर सुरक्षा दीवार बनानी चाहिए और राजस्व दस्तावेज में उन्हें दर्ज किया जाना चाहिए। यह सर्वविदित है कि पुराने तालाबों का अपना इतिहास होता है। इस इतिहास को उद्घाटित कर दस्तावेज तैयार किए जाने चाहिए। जलाशयों की महत्ता का जिक्र जीवन की शुरुआत से ही रहा है। हमारी सभ्यता और संस्कृति में भी इसके बारे में विस्तार से बताया गया है। मगर हमीं ने इसे बर्बाद करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। आज हालत यह है कि कई जलाशयों का अस्तित्व ही सिरे से गायब है। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि तालाब जब बनाए गए थे, तब इनके पर्यावरण पक्ष के बारे में लोगों को शायद ही पता रहा होगा और आज भी पर्यावरणविद और विशेषज्ञों को छोड़ दें तो अधिकांश लोगों को पता नहीं कि तालाब कार्बन को सोखकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाते हैं। इसके साथ ही जलाशय सतही पानी से नाइट्रोजन जैसी गंदगी निकालने में भी मददगार होते हैं। इंटरनल रिसर्च जर्नल करेंट र्वल्ड एन्वायरमेंट पत्रिका में छपे एक शोध पत्र के अनुसार जलाशय जल संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह जीव मंडल की वैश्विक प्रक्रिया को बनाए रखने में भी कारगर होते हैं।
वैज्ञानिकों की मानें तो 500 वर्ग मीटर का तालाब एक साल में 1000 किग्रातक कार्बन सोख सकता है। यहां तक कि तापमान और आद्र्रता को भी जलाशय नियंत्रित रखते हैं। और जब बात बढ़ते तापमान की हो तो यह लाजिमी हो जाता है कि इस बारे में गंभीरता से विमर्श हो। हाल के वर्षो में न केवल तापमान में असमान बढ़ोतरी हुई है, बल्कि जल संकट भी भयावह स्तर पर पहुंच चुका है। कई शहरों में तो पूरी जल संरचना ही खत्म हो चकी है। भू जल रिचार्ज नहीं होने के चलते सभी तालाब, पोखर आदि सूखते जा रहे हैं। और यह सब हमारे लालच और अदूरदर्शिता के चलते हुआ है। शहर को बसाने या निर्माण कार्य के लिए एक समुचित नियम या नीति बनाने की जरूरत है क्योंकि नई बसावट या रिहायश बनाने के लिए अंधाधुंध तरीके से जलाशयों को निशाना बनाया गया है। इसके लिए किसी तरह के नियम या कानून को नहीं परखा गया है। तालाब, पोखर, छोटे जलाशयों को पाटकर वहां कंक्रीट की इमारतें खड़ी कर दी गई हैं। राजस्व महकमे की भूमिका इसमें खलनायक के रूप में सामने आई है। साथ ही, स्थानीय प्रशासन की लापरवाही भी जलाशयों के खत्म होने की प्रमुख वजह है। आश्चर्य की बात है कि इन लापरवाह सिविक एजेंसियों और सरकारी विभागों के खिलाफ कार्रवाई तो बस दिखावे के लिए की गई है। इतनी क्षति के बाद अब चेत जाने का समय है। समिति की सिफारिशों का ईमानदारी के साथ पालन करने से ही हम न केवल पर्यावरण को बचा सकेंगे वरन सालों पुरानी सभ्यता को भी सही-सलामत रख सकेंगे। एनजीटी का कदम सराहनीय है। हालांकि आम जन को भी ऐसे मामलों में चौकस और तार्किक होने की जरूरत है। पूर्व में ऐसे मामलों में हीलाहवाली के चलते ही आज यह संकट मुंह बाए है। और हम लाचार से हो चुके हैं।
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