मीडिया : राहुल की छवि

Last Updated 23 Jun 2019 07:15:29 AM IST

चुनाव परिणाम आया और कांग्रेस बुरी तरह से हारी तो राहुल ठुके। चुनाव परिणामों के बाद राहुल लंदन चले गए तो ठुके।


मीडिया : राहुल की छवि

जब ‘खबर’ फैली कि उनके चुनावी  और सोशल मीडिया सलाहकार चुनाव परिणाम के बाद उनको अचानक छोड़कर चले  गए तो उनकी जम के ठुकाई हुई। एक ‘राहुल निंदक’ एंकर ने कई ‘विचारक’ बुलाए जिनमें से एक ने कहा कि ये लोग राहुल को चूना लगाकर चले गए। ‘चूना लगाने’ का मुहावरा उस ‘विचारक’ ने बोला जिसे कुछ बरस पहले राहुल ने लिफ्ट नहीं दी थी।
नये संसद सत्र में राष्ट्रपति के भाषण के दौरान राहुल चौबीस मिनट अपना मोबाइल देखते रहे तो इस बात पर उनकी आलोचना की गई। ऐसा लगता है कि बाकी सभी सांसद एकदम ध्यानमग्न होकर सुन रहे थे। सिर्फ राहुल ही ध्यान नहीं दे रहे थे। यही नहीं, जब राहुल ने मेज थपथपातीं मां सोनिया गांधी को अपने हाथ के इशारे से शायद मना किया तो इस पर उनकी निंदा की गई। और, जब राहुल ने अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सेना के कुत्तों की योग-मुद्राओं को ट्वीट कर ‘न्यू इंडिया’ लिखकर कटाक्ष किया तो फिर ठुके।
हमारे देखे अंग्रेजी के दो चैनल तो ऐसे नजर आते हैं कि राहुल कुछ भी करें, वे उनकी निंदा करेंगे ही और जिस-तिस बात पर उनसे तुरंत माफी भी मंगवाएंगे। जब दो चैनल ठोकते हैं तो बाकी भी उसे लपक लेते हैं। इस तरह राहुल चौतरफा ठुकाई पाते हैं। इसे देख लगता है कि राहुल न हों तो कई एंकर बेकार हो जाएं। उनकी रोजी-रोटी, लगता है कि राहुल की निंदा से ही चलती है। इन दिनों हमारे मीडिया ने ‘मैसेजिंग’ का एक आसान-सा फारमूला बना लिया है कि कमजोर को ठोको, लेकिन ताकतवर से कुछ न कहो। शायद इसीलिए कई एंकरों को राहुल की निंदा करने का ‘आब्सेशन’ सा है। जब तक वे राहुल को अच्छी तरह शर्मिदा न कर लें, उनकी र्भत्सना न कर लें, तब तक उनका हाजमा दुरुस्त नहीं होता। हमें तो लगता है कि अगर राहुल इतनी बुरी तरह न हारते तो भी आलोचना के पात्र बनते। अगर वे संसद में मोबाइल न देखते और जरा सा इधर-उधर देखते तो भी एंकर उनको न छोड़ते और अगर राहुल स्वयं योग करने लगते तो भी आलोचना के पात्र बनते।

कारण यह है कि पिछले पांच बरसों में जिस राजनीतिक मुहावरे में कांग्रेस को और राहुल को टारगेट किया गया है, उसे मीडिया ने हूबहू अपना मुहावरा बना लिया है। राहुल की आलोचना अब बहुत सों की ‘आदत’ बन गई है। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि अगर चैनल राहुल की आलोचना न करें  तो उनके शब्दकोश से ‘आलोचना’ शब्द ही जैसे गायब हो जाए।
अगर हम कुछ चैनलों में प्रसारित किसी एक महीने की  ‘राहुल-निंदा’  संबंधी बाइटों को इकट्ठा करें तो पाएंगे कि कई एंकरों की सारी की सारी आलोचना-बुद्धि सिर्फ राहुल के नाम समर्पित रही है। यों भी अपना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी आलोचनात्मक भूमिका को एक अरसा पहले खो चुका है। ‘स्वतंत्रत्र’ होने की जगह वह ‘पार्टीजन’ हो चला है जबकि ऐसा होना उसके अपने भविष्य के लिए भी ठीक नहीं है। यह एक विचित्र-सा सच है कि खबर चैनलों ने राहुल को जितने समय तक टारगेट किया है, उतना किसी अन्य विपक्षी नेता को नहीं किया। ऐसा लगता है कि कुछ चैनलों के लिए राहुल अब भी सत्ता में हैं, इसलिए उनकी खबर ली जा रही है।
लेकिन खबर चैनलों की आलोचना की भाषा भी छलिया भाषा है। प्रत्यक्षत: तो वह राहुल की हमदर्द बनकर राहुल को ‘समझाती’ नजर आती है कि काश! राहुल ऐसा न करते, वैसा न करते और कुछ समझदार होते तो कांग्रेस का हाल इतना बुरा न होता। लेकिन असली बात यह है कि चैनल अपनी बनाई हुई राहुल की ‘कमजोर’ छवि को बदलना नहीं चाहते।
हम जानते हैं कि एक अरसे से मीडिया द्वारा राहुल की छवि को कुछ खास विशेषणों में ‘फिक्स’ किया गया है जैसे कि वे ‘नासमझ’ हैं, वे ‘सुधरते’ नहीं हैं, उनमें ‘छिछोरापन’ है, वे राजवंश के बिगडै़ल लड़के हैं, उनमें  राजनीतिक मैच्योरिटी नहीं है, आदि इत्यादि। राहुल की इस छवि को मीडिया के एक बड़े हिस्से द्वारा जानबूझ कर बनाया गया है, और वह इसी छवि को बराबर बनाए रखना चाहता है।
अफसोस की बात यह है कि राहुल अपनी छवि के ‘पुनर्निर्माण’ के प्रति सजग नहीं दिखते और बार-बार ‘व्यंग्य’ करके और ‘टीज’ करके खबर बनाते हैं, और फरेबी मीडिया के जाल में फंस जाते हैं। बेहतर हो कि मीडिया द्वारा गढ़ी गई इस छवि को राहुल तोड़ें और एक नितांत नई गंभीर छवि को बनाएं जो मीडिया के छल-छंद से मुक्त रहे।

सुधीश पचौरी


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