गर्मी का कहर : राष्ट्रीय आपदा है यह

Last Updated 19 Jun 2019 07:32:08 AM IST

मौसम की विविधताओं के आधार पर छह ऋतुओं (वसंत, ग्रीष्म, वष्रा, शरद, हेमंत और शिशिर) में बंटा भारतीय ऋतु-चक्र यों तो अपनी विविधताओं के कारण पूरी दुनिया के आकर्षण का केंद्र है, पर इसकी समस्याएं भी कम नहीं हैं।


गर्मी का कहर : राष्ट्रीय आपदा है यह

खास तौर से वैशाख और जेठ-आषाढ़ के महीनों में गर्मी का जो रौद्र रूप देखने को मिलता है, उससे बचाव का उपाय जनता को अब सूझता दिखाई नहीं देता। मौसम विभाग सिर्फ  अलर्ट जारी करके रह जाता है, सरकार भीषण गर्मी और लू से सतत मौतों के बावजूद इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं करती। बाढ़-भूकंप जैसी आपदाओं के वक्त जैसी सहायता सरकार से मिलती है, लू से मरते लोगों को वह भी नसीब नहीं होती। 
गांव-देहात के मुकाबले ऊपर से चमक-दमक से भरपूर दिखने वाले शहरों-महानगरों की समस्याएं कम नहीं हैं क्योंकि ये अर्बन हीट जैसी समस्याओं से दो-चार होते हैं, जिसके चलते यहां की गर्मी और भी असहनीय बन जाती है। देश में मॉनसून आने से पहले भीषण गर्मी और लू एक बड़ी आपदा क्यों बन गई है, इसे समझने के लिए जानें कि सिर्फ बिहार में तीन दिनों के अंदर 183 लोगों की मौत का आंकड़ा मीडिया में छाया हुआ है। अस्पतालों में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चों के अलावा सैकड़ों मरीज लू के शिकार होकर पहुंचे हैं। राज्य के ज्यादातर शहरों का तापमान 45 डिग्री पार है, जिसके मद्देनजर 22 जून तक राज्य के सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए हैं।

गया जिले में गर्मी को देखते हुए प्रशासन ने धारा 144 लागू कर दी है। बिहार के बाहर कई राज्यों में तापमान 50 तक पहुंच गया। कुछ लोगों की तो चलती ट्रेन तक में मौतें इस बार हुई हैं। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, दिल्ली, मध्य प्रदेश, यूपी, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार, झारखंड, कर्नाटक और महाराष्ट्र के कई हिस्सों में गर्मी ने ऐसा कहर ढाया है कि लू की चपेट में आकर मरने वालों की शायद ठीक से गिनती भी न हो सके। मॉनसून की सुस्त चाल को देखते हुए मुमकिन है कि लू खाकर बीमार होने वालों की तादाद कुछ दिन बीतते-बीतते कुछ हजार का आंकड़ा पार कर ले। गर्मी से दक्षिण और मध्य भारत ही नहीं तप रहा, उत्तर भारत और राजधानी दिल्ली का भी बुरा हाल है। दिल्ली में तो मौसम विभाग गर्मी की भीषणता के पैमाने पर सबसे ऊंची चेतावनी ‘रेड कलर’ वॉर्निग जारी कर चुका है क्योंकि इस महानगर के सबसे हरेभरे इलाकों में शुमार चाणक्यपुरी में पारा 47 डिग्री के पार जा चुका है।

गर्मी और लू के सामने यों तो आम क्या, और खास क्या। गांव-देहात क्या, और शहर क्या। पर इधर कुछ वर्षो में यह बात नोटिस में ली गई है कि गांव-कस्बों के मुकाबले शहर की गर्मी ज्यादा तीखी होती है। शहरों को ज्यादा गरमाने वाली इस समस्या को वैज्ञानिकों ने अर्बन हीट करार दिया है, जो गांव-देहात से अलग किस्म की गर्मी पैदा कर रही है। लेकिन इस गर्मी और लू की एक विडंबना और है। असल में हर साल सैकड़ों मौतों के बावजूद केंद्र या राज्य सरकार के स्तर से इसका कोई ऐलान नहीं होता कि गर्मी से बचाने के लिए उनकी ओर से क्या उपाय किए जा रहे हैं। आंकड़ा है कि 1992 से 2016 के बीच देश में सिर्फ  लू से मरने वालों की संख्या 25 हजार से ज्यादा रही है। इसके बावजूद लू को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया जाता। मौसम विभाग तक लू के गंभीर थपेड़ों के बावजूद आसानी से ‘कोड रेड’ चेतावनी के रूप में रेड अलर्ट घोषित नहीं करता। ऐसा करे तो सरकार पर गर्मी से बचाने के आपातकालीन उपाय लागू करने का दबाव बनता है। सरकारों को शायद लू की फिक्र इसलिए नहीं होती कि इससे दुष्प्रभावित होने या मरने वालों में ज्यादातर गरीब ही होते हैं? असल में कहावत बेअसर हो गई है कि सर्दी का मौसम अमीरों और गर्मी का मौसम गरीबों का। गरीब तो दोनों मौसमों में ताबड़तोड़ मरते हैं।
यों गर्मी और लू को एक और चीज ने संहारक ताकत दी है। मौसम की मार से बचाने वाला और दान-पुण्य के लिए धर्मार्थ प्याऊ और शर्बत बांटने की शक्ल में मदद करने वाला सामाजिक तंत्र, जो जीवन में आपाधापी बढ़ने और पैसे को लेकर लोगों का नजरिया बदलने के साथ, तकरीबन विलुप्त हो गया है। एक जमाने में जगह-जगह दिखने वाले धर्मार्थ प्याऊ नदारद हैं। अब तो प्यास बुझाने वाले हर तंत्र के पीछे बाजार और उसकी ताकतें हैं, जिन्हें दुआओं नहीं मतलब सिर्फ  पैसे से है। जिनके पास पैसा है, वे तो शायद फिर भी गर्मी का मुकाबले जेबें ढीली करके कर लें, लेकिन जिनके लिए रोज की दिहाड़ी ही जीवन-यापन का जरिया हैं, वे ऐसी तंगहाल सूरत में सीना चीरती प्यास आखिर कैसे बुझाएं और कैसे गर्मी-लू के थपेड़ों का सामना करें।

अभिषेक कुमार


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