मुद्दा : बीमार अस्पतालों का दर्द

Last Updated 18 Jun 2019 06:16:22 AM IST

बिहार के मुजफ्फरपुर में सौ से अधिक बच्चे इनसेफेलाइटिस नामक बुखार की चपेट में आकर पिछले पंद्रह दिनों से रोज मर रहे हैं।


मुद्दा : बीमार अस्पतालों का दर्द

ऐसा नहीं है कि यह बुखार पहली बार बच्चों के लिए काल का संवाहक बना हो। पहले भी देश के विभिन्न हिस्सों में इसी कारण बच्चे काल कलवित होते रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि हम अब तक बच्चों की मौत के प्रति संवेदनशील क्यों नहीं हो सके हैं?
बच्चे किसी भी समाज का भविष्य होते हैं और यदि किसी सभ्य समाज के भविष्य की उम्मीदों का एक बड़ा हिस्सा पर्याप्त संसाधनों के अभाव में दम तोड़ता है, तो संवेदनशील लोगों के मन में कुछ सवाल उठना स्वाभाविक है। आखिर जीवन की ज़रूरी आवश्यकताओं से भी यदि समाज का एक हिस्सा वंचित रहता हैं तो हम तरक्की के किन दावों पर इतराते हैं। कहा जा रहा है कि चमकी बुखार के शिकार हुए बच्चे कुपोषण के शिकार थे। अर्थात इतने सारे परिवार अपने नौनिहालों को ढंग से भोजन करा पाने तक में समर्थ नहीं हैं। क्या यह स्थिति तरक्की के हमारे दावों को शर्मसार कर देने के लिए पर्याप्त नहीं है? भारत के संविधान निर्माताओं के मन में स्वतंत्र भारत की अवधारणा एक लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में थी। लोक कल्याणकारी राज्य की सबसे प्रमुख प्रवृत्ति होती है-अपने सभी नागरिकों के लिए बिना किसी भेदभाव के स्वस्थ और समुचित जीवन के लिए आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराना। स्वास्थ्य से जुड़ीं सुविधाएं वैसे भी जीवन के अधिकार से जुड़ी हैं और हमारे नागरिकों ने सामान्य परिस्थितियों में जीवन के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना है।

इस तरह माना जा सकता है कि बेहतर चिकित्सा सुविधाएं पाना प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार है और इस अधिकार की रक्षा करना राज्य का दायित्व। लेकिन जिस तरह की सुविधाएं आम आदमी को उपलब्ध है, उसका उदाहरण कुछ समय पहले भोपाल से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर बायोरा के सरकारी चिकित्सालय में भी देखने को मिला था। यहां एक गर्भवती महिला को इलाज के लिये अस्पताल परिसर के बाहर एक पेड़ के नीचे पलंग लगाकर लिटाया गया। उस पलंग पर कोई गद्दा तक नहीं था। इसी वर्ष जून के प्रारंभिक दिनों में राजस्थान के कोटा जिले के चेचट कस्बे में आई एक गर्भवती को इसलिए अस्पताल में दाखिल नहीं किया गया क्योंकि संबंधित स्टॉफ ड्यूटी पर नहीं था।
दर्द से तड़पती महिला का प्रसव कुछ महिलाओं ने सड़क पर ही करवाया। यह स्थिति तो तब है, जब सरकारी तंत्र सुरक्षित प्रसव के लिए सुविधाएं उपलब्ध कराने के बड़े-बड़े दावे करता है। मध्य प्रदेश के बायोरा ग्राम की घटना अपने ढंग की अकेली घटना नहीं है। यह स्थिति कमोबेश देश के हर सरकारी अस्पताल में देखी जा सकती है। इस समय जबकि देश के एक बड़े हिस्से में मौसमी बीमारियों का प्रकोप चल रहा है, लगभग सभी अस्पताल प्रशासन अपने यहां उपलब्ध सुविधाओं की कमी का राग आलाप रहे हैं। सवाल यह है कि जब हर साल ये स्थितियां सामने आती हैं तो फिर जिम्मेदार तंत्र इनका सामना करने के लिए समुचित व्यवस्था करने की जहमत पहले क्यों नहीं उठाता? क्यों नहीं स्वास्थ्य विभाग और प्रशासन की टीमें क्षेत्र का सर्वे करती हैं और खासकर गंदगी या पानी के जमाव के कारण होने वाली बीमारियों पर रोकथाम के लिए आवश्यक कार्रवाई करती हैं?
राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश के शहरी क्षेत्रों में सत्तर प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 63 प्रतिशत आबादी निजी क्षेत्र की चिकित्सा व्यवस्थाओं को पसंद करती है। हालांकि सब मानते हैं कि निजी क्षेत्र में उपचार का व्यय सामान्य से अधिक होता है लेकिन सरकारी तंत्र में जिम्मेदार लोगों की लापरवाही ने लोगों में यह धारणा प्रबल कर दी है कि निजी क्षेत्र में वो त्वरित और तत्परता से वांछित उपचार पा सकेंगे। निजी तंत्र की मुनाफाखोरी को रोकने के लिए हृदय की शल्य चिकित्सा में काम आने वाले वॉल्व और अन्य सामग्री के मूल्यों पर केंद्र सरकार के स्तर पर नियंत्रण की पहल ने भी बताया कि आम आदमी के विश्वास को कुछ सामथ्र्यवान लोग किस तरह की भूलभुलैया में भटकने को मजबूर कर देते हैं। इस स्थिति पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जाना चाहिये क्योंकि चिकित्सा सेवाएं जीवन के अधिकार से जुड़ी हैं, लेकिन फिलहाल तो आम आदमी को उपलब्ध चिकित्सा सेवाओं के हाल को देखकर एक शायर का यह शेर याद आ जाता है -‘‘साहिल ने, नाखुदा ने, समंदर ने, मौज ने/ जिसका भी बस चला है सफीने डुबो दिए।

अतुल कनक


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