नरेन्द्र मोदी का शपथ ग्रहण : बिम्सटेक नेताओं की मौजूदगी

Last Updated 04 Jun 2019 06:24:17 AM IST

बीती 23 मई को घोषित चुनाव परिणाम ने स्पष्ट कर दिया कि भारतीय जनता का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भरोसा न केवल बना हुआ है, बल्कि उसमें कहीं-न-कहीं इजाफा हुआ है।


नरेन्द्र मोदी का शपथ ग्रहण : बिम्सटेक नेताओं की मौजूदगी

भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को 2014 के चुनाव के बनिस्बत मिली अभूतपूर्व सफलता इस बात की परिचायक है। चुनाव परिणाम आने के साथ ही भारतीय कूटनीतिक क्षेत्र में मोदी के दूसरे कार्यकाल के लिए होने वाले शपथ ग्रहण समारोह के संदर्भ में सर्वाधिक चर्चित विषय इसमें शामिल होने वाले विदेशी मेहमानों की संभावित सूची थी। गौरतलब है कि 2014 के समारोह में हिस्सा लेने के लिए भारत के सभी दक्षिण एशियाई पड़ोसियों, जिनमें पाकिस्तान भी शामिल था, को न्योता भेजा गया था।
पाकिस्तान के साथ पिछले कार्यकाल के अनुभव, पुलवामा हमले में उसकी संलिप्तता, बालाकोट में भारत की जवाबी कार्रवाई एवं दोनों देशों की वायु सेनाओं के बीच सीमित हवाई झड़प को देखते हुए निश्चित था कि पाकिस्तान को इस बार आमंत्रित नहीं किया जाएगा। भारत द्वारा पाकिस्तान को क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने के प्रयास जारी रहेंगे। चूंकि भारत अपनी विदेश नीति में  ‘पड़ोसी प्रथम’ दृष्टिकोण का अनुगमन करता है, इसलिए पाकिस्तान के अतिरिक्त अन्य सभी महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देशों को आमंत्रित करने का फैसला किया गया। गौरतलब है कि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की तुलना में वर्तमान प्रधानमंत्री इमरान खान को पाकिस्तानी सेना के हाथ की कठपुतली से अधिक कुछ नहीं माना जाता। चूंकि पाकिस्तानी सेना खुद को देश की राजनीति में प्रभावशाली बनाए रखने के लिए भारत-विरोध का सहारा लेती है, इसलिए उससे और उसके कठपुतली प्रधानमंत्री से सकारात्मक सहयोग की अपेक्षा करना भारत में एक विशेष व प्रभावी तबके को बेमानी प्रतीत होता है।


यही वजह है कि 2014 के शपथ ग्रहण समारोह की तुलना में इस बार के विदेशी मेहमानों की फेहरिस्त में कुछ जोड़-घटाना करते हुए अंतत: सात सदस्यीय क्षेत्रीय सहयोग संगठन बिम्सटेक के नेताओं को प्रमुखता दी गई। बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार के राष्ट्रपति अब्दुल हामिद, मैथिरिपाला सिरिसेना, यू विन मिंट; नेपाल और भूटान के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली और लोटे शेरिंग के अतिरिक्त थाईलैंड के विशेष दूत ग्रिस्दा बून्राच ने शपथ ग्रहण की शोभा बढ़ाई। इन नेताओं के इस समारोह में शामिल होने के मायने का विश्लेषण करने से पहले बिम्सटेक के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें जान लेना आवश्यक होगा। सर्वविदित है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संबंधों का असर दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन की प्रभावशीलता और सफलता पर नकारात्मक रूप से पड़ा है। दक्षिण एशियाई क्षेत्र के आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया न केवल धीमी पड़ी, बल्कि कहीं न कहीं रु कती हुई प्रतीत हो रही थी। इस समस्या से निपटने, क्षेत्रीय एवं आर्थिक एकीकरण को गति देने और उसका विस्तार करने के उद्देश्य से जून, 1997 में बैंकाक घोषणा के जरिए बिम्सटेक का प्रादुर्भाव हुआ। प्रारंभ में इस आर्थिक ब्लॉक में केवल चार सदस्य-बांग्लादेश, भारत, श्रीलंका और थाईलैंड-थे और संगठन को बिस्टेक के नाम से जाना जाता था। दिसम्बर, 1997 में बैंकाक में विशेष मंत्रिस्तरीय बैठक में म्यांमार को भी शामिल कर लिया गया और संगठन का नाम बदल कर बिम्सटेक कर दिया गया।
बिम्सटेक का अब मतलब था-बांग्लादेश, भारत, म्यांमार, श्रीलंका, और थाईलैंड के बीच आर्थिक सहयोग। फरवरी, 2004 में थाईलैंड में छठी मंत्रिस्तरीय बैठक में नेपाल और भूटान को भी शामिल करने का निर्णय लिया गया और संगठन का नाम बदल कर ‘बे ऑफ बंगाल इनिशिएटिव फॉर मल्टी-सेक्टोरल टेक्निकल और आर्थिक सहयोग’ कर दिया गया। हालांकि यह अपने छोटे नाम बिम्सटेक से ही जाना जाता रहा। अब यह एक तरह से दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच पुल की तरह काम करने लगा। बिम्सटेक न केवल विश्व की बीस प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का नेतृत्व करता है, बल्कि सम्मिलित रूप से बिम्सटेक देशों की अर्थव्यवस्था 2.7 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अघिक है। पिछले कुछ वर्षो में वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद बिम्सटेक देशों ने 6.5 प्रतिशत से अधिक विकास दर बनाए रखी, जो इनकी आर्थिक क्षमता और संभाव्यता को व्यक्त करती है। इन तथ्यों के आलोक में बिम्सटेक नेताओं का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण में शामिल होना बड़ा कूटनीतिक कदम है, जिसकी गूंज शीघ्र ही क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय पटल पर सुनाई देगी।
भारत की विदेश नीति में पड़ोस-दोनों निकटतम और विस्तारित-की भूमिका हमेशा महत्त्वपूर्ण रही है। यही वजह है कि  2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने ‘पड़ोसी प्रथम’ के दृष्टिकोण को प्रमुख रूप से आगे बढ़ाया और अपने पहले विदेशी दौरे के लिए भूटान को चुना।   साथ ही साथ भारत की ‘पूर्व की ओर देखो’ की नीति ‘पूर्व की ओर कार्यवाही करो’ की नीति में बदल दी। इन सब प्राथमिकताओं का सम्मिलित परिणाम हुआ कि भारत ने दक्षिण एशिया के साथ-साथ दक्षिण-पूर्व एशिया को भी साधने के लिए सकारत्मक प्रयास शुरू कर दिया। यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि उपरोक्त बातों के होते हुए भी कुछ विश्लेषकों को जिस तथ्य ने सर्वाधिक चौंकाया वह है तिब्बत की विस्थापित सरकार के मुखिया को निमंत्रण न भेजना। 2014 के शपथ ग्रहण समारोह में विस्थापित तिब्बती सरकार के मुखिया लोबसांग संगे ने शिरकत की थी। उस समय चीन ने इस पर कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए आधिकारिक विरोध दर्ज कराया था।
भाजपा की इस चुनाव में भारी विजय के पश्चात संगे ने अपने बधाई संदेश में स्पष्टत: कहा था कि ‘जितना भारत और इसकी दरियादिल लोगों ने तिब्बत के लिए किया है, उतना किसी अन्य देश ने नहीं किया है। मैं आशा करता हूं कि भारत और तिब्बत के बीच का साझा संबंध मजबूत बना रहेगा और भारत तिब्बत के न्यायसंगत ध्येय का समर्थन करता रहेगा।’ कुछ विश्लेषकों ने इसकी व्याख्या इस रूप में की है कि भारत ने अपने ताकतवर और महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश चीन की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए ऐसा निर्णय लिया है। कुल मिलकर भारत ने इस शपथ ग्रहण समारोह के माध्यम से निकटतम और विस्तारित पड़ोस को साथ लेकर आगे बढ़ने की नीति का संदेश देने की सकारात्मक पहल की है।

आशीष शुक्ला


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