पर्यावरण : पढ़ाई से ज्यादा यह है जरूरी
विश्व भर में खासकर भारत में पर्यावरण की क्षति किस कदर हुई है, यह तथ्य मौसम में व्यापक बदलाव और असमय लाखों की संख्या में हुई मौत से समझा जा सकता है।
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अमेरिका के ‘हेल्थ इफेक्ट्स इंस्टिट्यूट’ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में वायु प्रदूषण के कारण 2017 में 12 लाख लोग मारे गए। वर्तमान में वायु प्रदूषण के उच्च स्तर के कारण दक्षिण एशिया में बच्चों की औसत जीवन प्रत्याशा में ढाई साल की कमी आएगी, जबकि वैश्विक जीवन प्रत्याशा में 20 महीने की कमी आएगी। ये सारी बातें एक बार फिर इसलिए चर्चा के केंद्रबिंदु में हैं क्योंकि हाल ही में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने देशभर के विश्वविद्यालयों में अनिवार्य रूप से पर्यावरण विषय को पढ़ाने को कहा है।
यूजीसी का यह फैसला स्वागतयोग्य है, मगर अभी भी यह निर्णय कई बिंदुओं पर अधूरा है। प्रदूषण की मार का वैश्विक तौर पर हर आम और खास किस तरह सामना कर रहे हैं, यह सबके सामने है। सो सिर्फ रूटीन पढ़ाई करके आप पर्यावरण को बेहतर नहीं बना सकते हैं। इसके लिए पढ़ाई के तौर-तरीकों को बदलना होगा। उसके आयामों को 360 डिग्री बदलने की जरूरत है। इसके लिए सालों पुराने पाठ्यक्रम को नये कलेवर में लाना होगा। हमारे देश में यह कमी है कि हम अपने कोर्स में जल्दी-जल्दी बदलाव नहीं करते हैं, जबकि हमारी सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासकीय समस्याएं गतिशील हैं। हमें इस जड़ता को खत्म करना होगा।
विदेशों में सालों-साल तक चलने वाले कोर्स का कोई अस्तित्व ही नहीं है। वहां तो हर साल विषयों के कोर्स में बदलाव किए जाते हैं। वहां सेशन शुरू होने के पहले ही संक्षेप में बता दिया जाता है कि इस साल क्या-क्या पढ़ाया जाएगा? इसके उलट हमारे यहां 15 साल 20 साल पुराने कोर्स अभी भी पढ़ाए जाते हैं। कई कोर्स तो इतने पुराने हो गए हैं कि अब उनकी वर्तमान समय में कोई प्रासंगिकता नहीं रह गई है। इसे समझने की आवश्यकता है। आशय यह है कि गैर महत्त्वपूर्ण पाठय़क्रम को खत्म करना होगा। कुल मिलाकर नये पाठ्यक्रम के लिए लचीला रुख अपनाना होगा। यह कहा जा सकता है कि प्रकृति की सुरक्षा के लिए युवा और छात्रों की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है। नई पीढ़ी को बोरियत से बाहर निकालना समय की मांग है। अगर इसमें व्यापक तौर पर तब्दीली नहीं लाई गई तो पठन-पाठन के जरिये बदलाव की उम्मीद करना बेमानी होगी।
पिछले कई साल से यूजीसी विश्वविद्यालयों-शिक्षण संस्थानों-कॉलेजों को पत्र लिखकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करने हुए अंडर ग्रेजुएट स्तर पर पर्यावरण विज्ञान विषय को अनिवार्य रूप से पढ़ाने के आदेश दिए गए, लेकिन बताया जाता है कि देशभर के कुल 706 विश्वविद्यालयों में से 306 विश्वविद्यालयों ने इस विषय को अभी तक शुरू नहीं किया है। शैक्षणिक स्तर पर यह लापरवाही चिंता के साथ-साथ निराशा का माहौल भी पैदा करती है। ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसा भी देखा गया है कि कई विश्वविद्यालयों-संस्थानों ने पर्यावरण विज्ञान विषय शुरू तो किया है, मगर वह मनमाने तरीके से इस विषय को पढ़ा रहे हैं। जबकि यूजीसी ने कहा है कि पर्यावरण अध्ययन पर मॉड्यूल को पढ़ाने का काम उन शिक्षकों को सौंपने की जरूरत है, जो यूजीसी द्वारा निर्धारित योग्यताएं पूरी करते हैं।
पर्यावरण विज्ञान विषय को पढ़ाने के लिए उसी विषय में उच्च उपाधि प्राप्त शिक्षकों की नियुक्ति करना अपेक्षित है, लेकिन यह विषय दूसरे विषयों के स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त शिक्षकों से पढ़वाया जा रहा है, जिसके चलते पर्यावरण विज्ञान के उच्च उपाधि प्राप्त उम्मीदवार बेरोजगारी होकर भटक रहे हैं। कहने का तात्पर्य है कि शिक्षा से जुड़े नीतिकार और विशेषज्ञों को यह दायित्व समझना होगा और जिम्मेदारी के साथ देश की बेहतरी के लिए भविष्य के बेहतरीन छात्र तैयार करने होंगे। इसको हमारी दिन-प्रतिदिन की जो समस्या है, उससे जोड़ना होगा; कनेक्टिविटी बढ़ानी होगी। एक और अहम सुझाव यह है कि पर्यावरण या प्रदूषण की समस्या को हमें स्वास्थ्य से जोड़ना होगा। जब तक प्रदूषण के दुष्परिणामों की जानकारी जनता को नहीं होगी, तब तक उसमें बेहतरी की गुंजाइश नहीं के बराबर होगी। हम अक्सर देखते हैं कि किडनी/लीवर आदि गंभीर बीमारियां प्रदूषण और खराब पानी और खानपान की वजह से होती हैं। अगर प्रदूषण के बारे में लोग जागरूक होंगे तो तस्वीर निश्चित तौर पर बदल सकती है। पराली जलाने, जंगलों की अंधाधुंध कटाई के दुष्परिणामों को जनता को बताने की जरूरत है। यानी कई स्तर पर काम करने से बेहतर परिणाम आएंगे।
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