विश्लेषण : थोड़ा ज्यादा की उम्मीद

Last Updated 28 May 2019 06:20:08 AM IST

नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद दो दिलचस्प बयान दिए हैं। लोक सभा चुनाव में भाजपा की जबरदस्त जीत के बाद कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि सेकुलरवाद का जमाना अब खत्म हो गया है।


विश्लेषण : थोड़ा ज्यादा की उम्मीद

आज कोई भी पार्टी सेकुलरवाद के साथ खड़ी नहीं है। इसलिए सेकुलरवाद का अंत, भाजपा की जीत माना जाना चाहिए। लेकिन ठीक एक दिन बाद एनडीए के सांसदों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि अल्पसंख्यकों में व्याप्त भय को निकालने की जिम्मेदारी इस सरकार की है। ये सरकार सभी समुदायों को साथ में लेकर चलना चाहती है ताकि समावेशी राजनीति स्थापित हो सके।
ये दोनों ही बयान विरोधाभासी  कहे जा सकते हैं। बिना सेकुलरवाद के समावेशी राजनीति की बात करना अपने आप में हास्यास्पद है। मगर मोदी की बात में एक तथ्य सही है-वह है अल्पसंख्यकों में व्याप्त भय का माहौल। ये भय का माहौल मुस्लिम-विरोधी विमर्श से उपजा है, इसलिए इस भय को समझने से पहले यह जरूरी है कि 2014 से बाद चलने वाले मुस्लिम विरोधी विमर्श को समझा जाए। समकालीन मुस्लिम विरोधी विमर्श की तीन अवधारणाएं हैं। पहली अवधारणा के अनुसार भारतीय समाज मूलत: दो धार्मिंक इकाइयों में विभाजित है-एक तरफ मुसलमान है और दूसरी तरफ हिंदू। ये दोनों समुदाय केवल धार्मिंक समूह नहीं है बल्कि ये विशुद्ध संस्कृतियां हैं। इनके रीति-रिवाज, धर्म, और रोजमर्रा के जीवन बिल्कुल अलग हैं। मुस्लिम विरोधी विमर्श की दूसरी अवधारणा हमें यह याद दिलाती है कि समाज का धार्मिंक विभाजन स्वाभाविक है और हिंदू और मुसलमान के बीच कोई सामंजस्य नहीं हो सकता। ये एक दूसरे के विरोधी थे, हैं और रहेंगे। तीसरी अवधारणा यह है कि बहुसंख्यक समुदाय यानी हिंदुओं के साथ अतीत में बहुत अन्याय हुए हैं। इसी कारण हिंदुओं में एक ऐतिहासिक रोष व्याप्त है।

जब भी मुसलमान कोई हिंदू विरोधी हरकत करते हैं तो हिंदू रोष व्यापक हो जाता है और उसकी परणिति कई बार हिंसक भी हो जाती है, लेकिन इसमें दोष हिंदू प्रतिक्रिया का नहीं है; बल्कि इसके लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं, जिन्होंने हमेशा हिंदुओं के रोष को उकसाया है। मुस्लिम विरोध कि ये अवधारणाएं दरअसल हिंदुत्व राजनीति का एक प्रमुख सिद्धांत बनाती है : क्रिया बनाम प्रतिक्रिया। इस सिद्धांत के अनुसार मध्यकाल में इस्लाम का आना एक ऐसी सतत क्रिया थी, जिसने न सिर्फ हिंदू सभ्यता को बर्बाद किया बल्कि 1947 में देश का विभाजन भी करवा दिया। इन क्रियाओं की प्रतिक्रिया अभी पूर्ण नहीं हुई है और इसी प्रक्रिया का नाम हिंदुत्व है। इस क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत ने 2014 के बाद नया स्वरूप लिया और चार नये क्रिया-प्रतिक्रिया के मुद्दे उभरे। पहला था, लव जिहाद यानी मुसलमान लड़के हिंदू लड़कियों को अपनी ओर रिझाएंगे। ये क्रिया होगी और उसके बाद उनको पीटने तक की घटनाएं मात्र प्रतिक्रिया होगी। दूसरा क्रिया-प्रतिक्रिया विवाद था ‘घर वापसी’।
मुसलमानों ने हिंदुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया, अब उसकी प्रतिक्रिया यह है कि जो हिंदू मुसलमान हो गए थे, वे अब अपने घर वापस आ जाए। अंग्रेजी में जिसे ‘रिकनवर्जन’ कहते हैं, ठीक वैसा ही। उन्हें शुद्ध कर के हिंदू धर्म में वापस लाया जाएगा। तीसरा विवाद था राम मंदिर। इतिहास में एक क्रिया हुई थी कि वहां मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई थी और उसकी प्रतिक्रिया यह होनी है कि वहां मंदिर दोबारा बनाया जाए। ये तीनों ही मामले असफल हो गए। उत्तर प्रदेश में जब लव-जिहाद का मामला चला तो समझ में आया कि ये हिंदू-मुस्लिम विवाद नहीं है, बल्कि ये महिला विरोधी मामला है। फलस्वरूप ये विवाद अपने आप मर गया। घर वापसी का मसला संघ परिवार के लिए अपने आप में अजीब था। क्योंकि संघ परिवार यह नहीं बता पाया कि जिस मुसलमान की घर वापसी हुई है, उसकी जाति क्या होगी? राम मंदिर का मामला भी उन्माद पैदा नहीं कर पाया। 1992 में वहां मस्जिद तोड़ दी गई थी और वहां एक वास्तविक मंदिर भी है, जिसमें हिंदू कभी भी जाकर पूजा कर सकते हैं। यह बात भी सच है कि वहां एक भव्य मंदिर नहीं है। पर भव्य मंदिर और एक साधारण मंदिर के अंदर जो आध्यात्मिक अंतर होता है, उसे संघ परिवार ने न तो कभी स्पष्ट किया न इस तरह के स्पष्टीकरण में उनकी कभी रुचि रही। किंतु इन तीनों क्रिया-प्रतिक्रिया मुद्दों से बिल्कुल अलग एक मुद्दा और था। वह मुद्दा था गौ-रक्षा का।
इस क्रिया-प्रतिक्रिया की लड़ाई में गाय हिंदुत्व-राजनीति का ऐसा प्रतीक बनी, जो कम खर्चीली और अधिक प्रभावकारी थी। इस मुद्दे का असर बेहद ज्यादा था, तकरीबन इतना ज्यादा था कि उसने तमाम मुद्दों को पछाड़ दिया। गाय के नाम पर किसी भी व्यक्ति के घर में घुसा जा सकता था, किसी भी व्यक्ति को पीट-पीट कर मारा जा सकता था, गाय के नाम पर रोज नौ बजे टीवी पर बहस की जा सकती थी कि मुसलमान गाय खाते हैं और हिंदू गाय की पूजा करते हैं। इसलिए गाय के नाम पर भय का माहौल बनाना संभव था। मुसलमान जब भी अकेला कभी हो तो उसे लगे कि पता नहीं कब कोई पीछे से आएगा और पीटना शुरू कर देगा। वो जब भी ट्रेन सफर करे तो इस बात के लिए तैयार रहे कि कोई उसे रोक कर जय श्रीराम कहने के लिए मजबूर कर सकता है। और इस सब को महज प्रतिक्रिया माना जाएगा!  इस माहौल में नरेन्द्र मोदी के दोनों बयान प्रासंगिक हैं। मैं उनकी इस बात से सहमत हूं कि सेकुलरवाद की राजनीति करने वाली जमात ने सेकुलर के मायनों को बदनाम किया है। परंतु इसका मतलब यह नहीं है कि सेकुलरवाद, विशेषकर संविधान प्रदत्त सेकुलरवाद के सिद्धांत को भी नजरंदाज कर दिया जाए।
केवल समावेशी का नारा भर लगा देना एक बात है और सेकुलर समावेशी राजनीति को स्थापित करना दूसरी बात है। मुझे लगता है जब तक डर के माहौल को नीतिगत सवाल नहीं बनाया जाएगा, तब तक इस तरह के मामले रुकेंगे नहीं। संविधान की परिकल्पना में मौजूद सेकुलरवाद, जो सभी धार्मिंक और भाषाई अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार देता है, उसका सम्मान होना आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि समावेशी राजनीति की पहल नीतिगत हो। ये चुनाव नरेन्द्र मोदी ने अपने नाम और छवि से जीता है। ऐसे में यदि वो मात्र इतना कह देते हैं कि मुसलमानों को पीट कर मारना एक नैतिक अपराध है तो इसका असर व्यापक होगा। हम उम्मीद करते हैं, वो ऐसा ही करेंगे।

हिलाल अहमद


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