चुनाव परिणाम : विपक्ष सबक ले
यकीनन यह नरेन्द्र मोदी का करिश्मा ही है कि जो विश्लेषक अभी हाल तक यह कहने को लेकर उनका मजाक उड़ा रहे थे कि इस लोक सभा चुनाव में उनकी सरकार के पक्ष में अंडरकरंट या प्रो-इन्कम्बैंसी है, अब उनके निष्कषरे का मजाक उड़ रहा है।
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सवाल फिर भी पूछना ही होगा कि महज मोदी का करिश्मा है, या इसमें उन शक्तियों की क्षमताओं की भी कोई भूमिका है, जो खुद को उनके विपक्ष के तौर पर व्याख्यायित करती रही हैं? सच्चाई यह है कि मोदी का नीतिगत विपक्ष न सिर्फ इस चुनाव बल्कि उनके पूरे सत्ताकाल में पूरी तरह अनुपस्थित रहा। जो आभासी विपक्ष उपस्थित भी था, वह लोगों में विश्वास ही नहीं जगा पाया कि अजेय मोदी को हरा भी सकता है। उसमें थोड़ा-सा उत्साह तब जागा, जब गत वर्ष पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने जैसे-तैसे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में कामयाबी पा ली। उसके बाद उसकी ओर से जो भी प्रयत्न हुए मोदी की बेदखली के लिए पर्याप्त नहीं रहे। बहरहाल, मोदी की जीत से कई पुराने मिथक टूट गए हैं।
अब तक कहा जाता था कि जहां भाजपा कांग्रेस से सीधे मुकाबले में होती है, वहां उसे आसानी से हरा देती है, लेकिन जहां तीसरी शक्तियां होती हैं, वे उसका विजय रथ रोक देती हैं। लेकिन इस बार भाजपा ने पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और ओडिशा में बीजू जनता दल को हराकर और उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के हाथों संभव अपना बड़ा नुकसान टाल कर इस मिथ को बुरी तरह तोड़ डाला है। इस मिथ को भी कि उसके विरोधी गठबंधन बनाकर उसे हरा सकते हैं। अगर राजनीति सत्ता पर कब्जा करने की कला है, जो वह है ही, तो कहना होगा कि मोदी से इसमें महारत और इच्छाशक्ति, दोनों सिद्ध कर दी हैं, जबकि विपक्ष के अनेक महानुभावों के लिए अपनी निजी महत्त्वाकांक्षाओं से पार जाना भी संभव नहीं हुआ। वे जमीनी हकीकत के ऐसे गलत आकलन के शिकार रहे कि उत्तर प्रदेश में नतीजे आने के कुछ घंटे पहले तक बसपा सुप्रीमो मायावती प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जता रही थीं। क्या जनता से गहरे कटाव के बगैर ऐसा गलत आकलन संभव है? अगर कोई नेता विपक्ष में रहते हुए भी जनता से इस कदर कटा हुआ हो कि उसका मूड ही न भांप पाए तो उससे सत्ता दल के साम, दाम, दंड या भेद से पूरी क्षमता के साथ निपटने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? खासकर जब सत्ता दल ने जातीय समीकरणों के उसके पारंपरिक हथियार को भोथरा कर डाला हो और राष्ट्र, धर्म, परंपरा, संस्कृति और सेना सबके दुरु पयोग पर आमादा हो। गौरतलब है कि इस दुरुपयोग के खिलाफ विपक्ष ने भाजपा को या तो उसके हथियार से ही हराने की कोशिश की या फिर इनकी बाबत चुप्पी साध ली। इसके विपरीत वह वैचारिक दृढ़ता के साथ सामने आता तो आज उसकी हार में भी एक नैतिक चमक होती। वह कह पाता कि किन्हीं पवित्र लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए लड़कर हारा है, मोर्चा ही हारा है, युद्ध नहीं। देश के जो हालात हैं, उनमें आगे सबसे बड़ा खतरा है कि मोदी सरकार विपक्ष की इस पराजय को अपनी तमाम कारस्तानियों पर जनता की मोहर मान लेने की गलती करेगी। योगेन्द्र यादव गलत नहीं कह रहे कि पश्चिम बंगाल, जो भाजपा की नई प्रयोगशाला है, में अगले दो सालों में क्या-क्या होगा, सोचकर रूह कांप उठती है। लेकिन क्या कीजिएगा, देश में राजनीतिक दलों द्वारा उन्हें मिले जनादेशों की मनमानी व्याख्याओं की लंबी और समृद्ध परंपरा रही है। ऐसे में मीडिया से लेकर नीति आयोग और चुनाव आयोग तक ढेर सारी संवैधानिक संस्थाओं का ‘सफल’ इस्तेमाल करके प्रज्ञा सिंह ठाकुर जैसों तक को जिता लाई भाजपा को लेकर यह मानने का कोई कारण नहीं दिखता कि वह इस परंपरा से खुद को वंचित रखे।
जो भी हो, विपक्ष के लिए गहन निराशा के इन क्षणों में समझना बेहतर होगा कि हर नेता या पार्टी को अपनी जनता और उसकी मानसिकता का निर्माण करना पड़ता है। मोदी के पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पिछले दशकों में इस दिशा में अनथक मेहनत की है, जबकि विपक्ष इस बीच लगातार अपनी जनता गंवाता रहा है। सिर्फ सदाशयता के आधार पर ‘भारत के विचार’ की रक्षा करना चाहता है। उसे याद नहीं कि एक समय बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि कोई भी विचार शात नहीं होता। विचार पैदा होते, खिलते, मुरझाते और मरते रहते हैं। इसलिए विचारों को जिंदा रखने और फैलाने के लिए समय-समय पर खाद-पानी देना होता है। इस सबक को विपक्ष जितनी जल्दी फिर से याद कर लेगा, उतना बेहतर होगा।
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