वैश्विकी : दक्षिण एशिया में हालात जटिल

Last Updated 18 Sep 2025 03:54:35 PM IST

दक्षिण एशिया आज जिस दौर से गुजर रहा है, वह केवल आंतरिक अस्थिरता की कथा नहीं है, बल्कि वैिक राजनीति की गहरी छायाओं से आच्छादित परिदृश्य भी है।


यह भू-भाग, जो कभी प्राचीन सभ्यताओं, सांस्कृतिक बहुलता और समृद्ध परंपराओं का उद्गम स्थल रहा, आज अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के हितों की प्रयोगशाला और प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बन गया है। श्रीलंका से लेकर बांग्लादेश, नेपाल और म्यांमार तक, और पाकिस्तान से लेकर अफगानिस्तान तक, लगभग सभी देशों में उथल-पुथल, आंदोलनों और सत्ता संघर्ष का आलम है। इन घटनाओं ने क्षेत्र की स्थिरता को संकट में डाल दिया है।

श्रीलंका इसका सबसे ताजा उदाहरण है। 2022 में जब इस द्वीप राष्ट्र में आर्थिक संकट ने भयावह रूप लिया तब जनता ने राजपक्षे परिवार की सत्ता को उखाड़ फेंका। विदेशी कर्ज का बोझ, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुप्रबंधन ने आम लोगों को सड़कों पर उतरने को मजबूर कर दिया। यह आंदोलन सरकार-विरोधी आक्रोश भर नहीं था, बल्कि संकेत था कि जनता की आकांक्षाओं की उपेक्षा की जाएगी तो सत्ताधारी वर्ग के लिए कुर्सी बचाना असंभव होगा। कुछ ही समय बाद बांग्लादेश में भी आक्रोश की लपटें उठीं। शेख हसीना की सरकार, जिसने विकास और आर्थिक प्रगति के नाम पर स्थायित्व कायम किया था, अचानक विपक्ष और जनता के निशाने पर आ गई। बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रश्न चिह्न ने आंदोलन को जन्म दिया। नेपाल की स्थिति और भी जटिल है। नेपाल का भूगोल, रणनीतिक स्थिति और भारत-चीन के बीच उसकी अहमियत ने इसे बाहरी हस्तक्षेप का सहज शिकार बना दिया है। वहां की राजनीति में लगातार बदलते गठबंधन, नेतृत्व की अस्थिरता और जनता की आकांक्षाओं की उपेक्षा ने असंतोष को हवा दी है।

राजतंत्र समर्थक और कट्टरपंथी ताकतें असंतोष को भुनाने में जुटी हैं, जिससे नेपाल की सामाजिक संरचना में नई दरारें पड़ रही हैं। इसी तरह म्यांमार, जहां सेना ने लोकतांत्रिक सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया, वर्षो से गृह युद्ध और विद्रोह की चपेट में है। लाखों लोग विस्थापित हुए हैं। यहां विदेशी शक्तियों की भूमिका और भी स्पष्ट दिखती है। अमेरिका और पश्चिमी देशों का दबाव, चीन की गहरी आर्थिक पैठ और क्षेत्रीय शक्ति-संतुलन की लड़ाई ने म्यांमार को अस्थिरता की ओर धकेल दिया है। पाकिस्तान की स्थिति भी किसी से छिपी नहीं है। यहां एक ओर सेना और न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं, वहीं लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर होता जा रहा है। विदेशी कर्ज पर निर्भरता, मुद्रास्फीति और बढ़ते आतंकी हमलों ने जनजीवन को असुरक्षित बना दिया है। 

दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया दो महाशक्तियों-अमेरिका और चीन-की प्रतिस्पर्धा का केंद्र बन चुका है। एक ओर चीन ‘बेल्ट एंड रोड’ जैसी महत्त्वाकांक्षी योजनाओं के माध्यम से पूरे क्षेत्र को अपनी आर्थिक-रणनीतिक पकड़ में लेना चाहता है, वहीं अमेरिका और उसके सहयोगी भारत, जापान व ऑस्ट्रेलिया के साथ ‘क्वाड’ जैसी साझेदारियों के जरिए इस प्रभाव को संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं। नतीजा यह है कि दक्षिण एशियाई देशों की आंतरिक राजनीति अब उनकी अपनी नहीं रह गई है। हर आंदोलन, हर सत्ता परिवर्तन और हर अस्थिरता के पीछे विदेशी छायाएं मंडराती दिखती हैं। यह क्षेत्र केवल भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि रणनीतिक रूप से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हिन्द महासागर, मलक्का जलडमरूमध्य और हिमालयी गलियारों पर पकड़ बनाने की जद्दोजेहद ने बाहरी शक्तियों को यहां सक्रिय कर दिया है। 

भारत, जो स्वयं इस क्षेत्र का सबसे बड़ा लोकतंत्र और उभरती शक्ति है, के लिए यह स्थिति दोहरी चुनौती लेकर आती है। एक ओर उसे अपने पड़ोस की अस्थिरता का सामना करना है, तो दूसरी ओर बाहरी शक्तियों के बढ़ते प्रभाव को भी संतुलित करना है। दक्षिण एशियाई देशों की समस्याओं का सबसे बड़ा कारण यह है कि शासक वर्ग ने जनता की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को प्राथमिकता नहीं दी। लोकतंत्र चुनावों तक सीमित रह गया, जबकि शासन में पारदर्शिता, जवाबदेही और सुशासन का अभाव रहा। आर्थिक विकास का लाभ कुछ वगरे तक सीमित रहा, जिससे सामाजिक विषमता बढ़ी। यही असंतोष जब फूटता है, तो आंदोलन का रूप ले लेता है और जब यह आंदोलन विदेशी हितों से टकराता है, तो बाहरी शक्तियां अपने-अपने हित साधने के लिए उसे हवा देने से नहीं चूकतीं।

दक्षिण एशियाई दरारें केवल क्षेत्रीय संकट नहीं हैं, बल्कि वैिक व्यवस्था के लिए भी गंभीर चुनौती हैं। यदि यह क्षेत्र अस्थिर रहता है, तो न केवल एशिया, बल्कि पूरी दुनिया में शांति और विकास प्रभावित होंगे। इसलिए आवश्यक है कि विदेशी शक्तियां यहां अपने-अपने हित साधने की बजाय क्षेत्रीय स्थिरता और जनता के कल्याण को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। 
(लेख में विचार निजी हैं)

नृपेन्द्र अभिषेक नृप


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