बतंगड़ बेतुक : चुनावी राजनीति में थुकना और चाटना
थूक मानवीय दैहिकी का वैसे ही उत्सर्जनीय तत्व है जैसे कि दो अन्य तत्व। मल-मूत्र को आप अपने अंदर रख नहीं सकते, उत्सर्जन के उपरांत इन्हें अपने आस-पास सह भी नहीं सकते।
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कमोवेश थूक के साथ भी यही स्थिति होती है। मगर कुछ कम तीव्रता के साथ। थूक का क्रियाक्षेत्र थोड़ा व्यापक है। अन्य जो क्रियाएं आप आम तौर पर खुले में नहीं करते, वो थूक के साथ कहीं भी कर देते हैं। बिना इधर-उधर देखे जहां भी गुंजाइश दिखी सट से पिच-पिच कर देते हैं, और बिना मुंह पोंछे आगे बढ़ लेते हैं। कोने-अंतरों, गली-दीवारों की बात छोड़िए, अगर किसी से नफरत हो, किसी पर गुस्सा हो, किसी से दुश्मनी हो तो आप उसके कपड़ों पर ही नहीं उसके मुंह पर भी थूक देते हैं। वस्तुत: न थूक पायेंतो मुहावरे में ही थूक देते हैं। कभी-कभी आपके शब्द थूक बनकर निकलते हैं तो कभी आपका थूक शब्द बनकर। और कभी-कभी तो यह समझने में ही दिक्कत हो जाती है कि आपने कुछ बोला है या कुछ थूका है। अगर व्यक्ति चुनावी राजनेता हो तो थूके और बोले में अंतर करना ही मुश्किल हो जाता है। समझने की कोशिश करने वाले की समझ को पसीना आ जाता है। मुश्किल थोड़ी और बढ़ जाती है जब मामला चाटने तक आ पहुंचता है। पहले कभी यह आम दंड विधान था कि दोषसिद्ध अपराधी से थुकवाया जाये फिर उससे अपना ही थूक चटवाया जाये। अपना थूक चाटने वाला शर्म और अपमान से भर जाता था, आधा मर जाता था। चाहता था कि उसका सर कलम कर दिया जाये मगर उसका थूका हुआ उससे न चटवाया जाये। लेकिन जब से थूक और चाटने का रिश्ता चुनावी राजनीति का हिस्सा बना है तब से इससे जुड़ी शर्म लगातार कम हो रही है। कुछ हलकों में तो पूरी तरह शर्ममुक्त होकर एक चुनावी कला का रूप ले रही है।
जैसे-जैसे चुनावी बुखार चढ़ता जाता है, थूकने-चाटने की कला का रंग निखरता जाता है। कल जो भर-भर नफरत थूक रहा था, आज भर-भर प्यार चाट रहा है। थूक-थूक कर उसने जो खाई पैदा की थी आज चाट-चाटकर पाट रहा है। अब ये सब पुरानी बातें हैं कि आपने जिस पर एक बार थूक दिया सो थूक दिया, न थूका हुआ चाटेंगे, न खाई पाटेंगे।
पहले लोग राजनीति में भी सोच-समझकर थूकते थे, थूकने का सिद्धांत समझाकर और यह बताकर थूकते थे कि क्यों थूक रहे हैं। तू धर्म को ओढ़कर चलता है और हम धर्मनिरपेक्ष हैं। इसलिए तुझ पर थूक रहे हैं। तू बंटवारे की राजनीति कर रहा है, जाति की राजनीति कर रहा है, गुंडई की राजनीति कर रहा है, सिद्धांतविहीन राजनीति कर रहा है, इसलिए हमारा राजनीतिक धर्म है कि तुझ पर थूकें, सो थूक रहे हैं। तू पैसे की राजनीति करता है, चुनाव के लिए काला धन जुटाता है, वोटरों को शराब पिलाता है, उनके पास पैसे भिजवाता है, इसलिए तुझ पर थूक रहे हैं। थूक रहे हैं कि हमारे थूके से तुझे अक्ल आ जाये और तू सुधर जाये।
मगर अब परिदृश्य बदल गया है। अब कोई भी, कहीं भी, किसी के भी ऊपर थूक देता है। उसे यह बताने की जरूरत नहीं होती कि क्यों थूक रहा है, उल्टे थूकना ही जरूरत बन गया है। बस थूकने का बहाना मिलना चाहिए-चाहे किसी मंच पर, किसी रैली में या किसी टेलीविजनिया बहस में। न कोई तर्क न कोई संगति, बस थूक निकलना चाहिए और विपक्षी पर पड़ना चाहिए। उधर विपक्षी भी कम थूक-पारंगत नहीं होता। वह भी उतने ही आक्रोश में, उतने ही जोश में और उतना ही बेलौस थूकता है। यह थुक्कमथूक एक दशर्नीय और ताली बजाऊ दृश्य की संरचना करती है क्योंकि हर थूकने वाले थुक्के के पास अपनी एक पार्टी होती है, अपने चमचे-चाटुकार होते हैं, और अपने-अपने चुनावी मतदाता होते हैं। जब ये तालियां बजाते हैं, उत्साह बढ़ाते हैं तो थुक्के और जोर-शोर थूकने लगते हैं। फिर इन्हें इसकी चिंता नहीं होती कि थूक कहां गिर रहा है, पराए पर गिर रहा है या अपने पर।
चुनावी राजनीति में जो थूकनीय है वह चाटनीय भी है। जो बेशर्मी थूकने में घटित होती है वह बेशर्मी चाटने में और अधिक प्रस्फुटित होती है। सत्ताकांक्षा इनसे थुकवा रही है तो थुकवा के चटवा भी रही है। न कोई नैतिकता आड़े आती है, न कोई सैद्धांतिकता, न कोई वैचारिकता। हाल ही में अपने दावेदार-भावी मगर संदिग्ध-संभावी प्रधानमंत्री ने सर्वोच्च न्यायालय के नाम से वर्तमान प्रधानमंत्री पर भरपूर थूक दिया मगर सर्वोच्च न्यायालय की चौखट पर बेझिझक चाट भी लिया। थूकना और थूककर चाटना अब एक स्वतंत्र प्रक्रिया है जो निर्बाध जारी है और निरंतर तेज हो रही है।
हां, इन थुक्कों के पास एक तर्क अवश्य होता है कि वे थूक रहे हैं, तो सिर्फ लोकतंत्र को बचाने के लिए थूक रहे हैं और थूककर चाट रहे हैं तो सिर्फ लोकतंत्र को बचाने के लिए चाट रहे हैं। थूका हुआ स्वयं उनके ऊपर गिर रहा है तो वे कहते हैं कि लोकतंत्र बच रहा है। उधर लोकतंत्र की छाती पर इतना थूक जम गया है कि इसे साफ करने में पीढ़ियां खप जाएं।
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