सरोकार : पढ़े-लिखे होने चाहिए अपने भी माननीय
जो लोकसभा देश के संविधान में संशोधन करने का अधिकार रखती हो, जिस लोक सभा के ऊपर वैश्विक संबंध बनाने व देश के विकास, राज्यों से उसके संबंध बेहतर बनाने तथा देश की बाहरी व आंतरिक सुरक्षा जैसी अहम जिम्मेदारियां हों; उसके सदस्यों की शिक्षा के मुद्दे को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है!
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यह खेद का विषय है कि हमारे देश की विधायिका में बड़ी संख्या में सांसद और विधायक अल्प शिक्षित या अशिक्षित हैं। तमाम सरकारी व गैरसरकारी नौकरियों और अलग-अलग पेशों के लिए शैक्षिक योग्यता निर्धारित है। यह योग्यता कुछ छूट के साथ दलित, पिछड़ों व आदिवासी सबके लिए निर्धारित है तो सिर्फ राजनीतिकों के लिए ही शैक्षिक छूट क्यों? जबकि एक चपरासी तक की न्यूनतम शैक्षिक योग्यता निर्धारित है मगर सांसदों व विधायकों के लिए शिक्षा का कोई मानक नहीं है।
यही वजह है कि बीते कई वर्षो से सांसदों और विधायकों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय करने की मांग विभिन्न मंचों से लगातार उठ रही है। बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका विधायिका की सदस्यता के लिए कम से कम स्नातक की शिक्षा को जरूरी मानता है। चूंकि संसद व विधानसभाओं में नए-नए बिल पेश किए जाते हैं, कानून बनते हैं। ऐसे में शिक्षित लोगों का यहां आना बेहद जरूरी है। हालांकि इन संस्थाओं में शिक्षित सांसद या विधायक भी हैं किंतु उनकी तादाद आनुपातिक रूप से कम हैं। यह भी गौर करने वाली बात है कि आज पैसे वाला ही चुनाव लड़ पा रहा है। टिकट उसी को मिल पाता है जो नेता जी का बहुत खास हो और जिसके पास पानी की तरह बहाने को पैसा हो। हालांकि सहानुभूति पैदा करने के लिए यह आयाम दिखाया जाता है कि प्रत्याशी दलित है, पिछड़ा है, अल्पसंख्यक है और इस बाबत उसका कम पढ़ा-लिखा होना जायज ठहराने की कोशिश भी की जाती है। विचार कीजिये कि आज कितने ऐसे राजनेता हैं, जो सच में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक की जिन्दगी जी रहे हैं। सालों से आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का रिकॉर्ड बनता आ रहा है।
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने बीते दिनों केंद्र सरकार को एक पत्र लिखकर यह प्रस्ताव रखा था कि देश में विधायक और सांसद यदि पढ़े-लिखे लोग बन कर आएंगे तो देश का बेहतर विकास होगा। उनका सुझाव था कि विधायक के लिए स्नातक और सांसद के लिए स्नातकोत्तर तक की शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए। बावजूद इसके, एक तबका जनप्रतिनिधियों का शैक्षणिक योग्यता को जरूरी नहीं मानता। उनकी दलील होती है कि यह मानक लोकतंत्र व संविधान के खिलाफ है। वे तर्क देते हैं कि यदि ऐसा जरूरी होता तो संविधान निर्माण के समय ही ऐसा प्रावधान किया जाता। जवाहरलाल नेहरू का विचार था कि जिन अनपढ़ लोगों ने आजादी की लड़ाई में अपना सब झोंक दिया, शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता लगाकर उन्हें चुनाव लड़ने के हक से वंचित नहीं रखा जा सकता। मगर तदयुगीन परिस्थितियों में नेहरू जी की वह दलील भले ही दम रखती हो; किंतु यदि हम आजादी के समय से भारत की तुलना आज के वैीकृत भारत से करें तो इसमें भारी बदलाव आ चुका है। उस समय संसाधनों की कमी थी। देश की साक्षरता दर महज 12 फीसद थी जबकि आज 76 फीसद है। तब भले ही प्रत्याशियों की शैक्षिक अनिवार्यता जरूरी न लगी हो; मगर आज का माहौल पूरी तरह अलग है। देश तकनीकी दृष्टि से भी अत्यंत समृद्ध है। ऐसे में जन प्रतिनिधियों की शैक्षिक योग्यता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
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