चुनाव क्षेत्र : मतों के मूल्य बराबर नहीं
अगर आप मतदाता हैं और देश के दूसरे करोड़ों लोगों की तरह इस जोर-शोर से प्रचारित लोकतांत्रिक मिथ के शिकार हैं कि लोक सभा चुनाव में हर मतदाता के मत का मूल्य समान और नई लोक सभा के गठन में उसकी एक जैसी हिस्सेदारी या भूमिका होती है, तो अपनी यह गलतफहमी फौरन दूर कर लीजिए, क्योंकि यह मिथ सिर्फ और सिर्फ मिथ है।
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इस बात को एक उदाहरण से समझिए। अगर आप देश के सबसे छोटे लोक सभा क्षेत्र लक्षदीप के मतदाता हैं तो तेलंगाना स्थित सबसे बड़े क्षेत्र मलकाज गिरि के मतदाताओं के मुकाबले आपके मत का मूल्य कम से कम 63 गुना ज्यादा है, क्योंकि लक्षदीप में जहां केवल 49,922 मतदाता एक सांसद चुनकर लोक सभा में अपना एक मत पक्का कर लेते हैं, वहीं मलकाज गिरि के 31,83,325 मतदाताओं के पास भी लोक सभा में कुल मिलाकर एक ही मत है।
मतों के मूल्य में यह असंतुलन तब है, जब इसे दूर करने के नाम पर ही 2009 के आम चुनाव से पहले लोक सभा क्षेत्रों का नया परिसीमन कराया गया था। चूंकि उक्त परिसीमन का आधार 2001 की जनगणना के आंकड़े थे, जो इस बीच बासी पड़ गये थे, फलस्वरूप असंतुलन कुछ कम तो हुआ, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हो पाया। दिलचस्प यह कि 2004 के आम चुनाव तक लक्षदीप देश का सबसे छोटा और बाहरी दिल्ली सबसे बड़ा संसदीय क्षेत्र था और दोनों के मतों के मूल्य में 86 गुने का अंतर था।इस असंतुलन के कई अनर्थ हैं। कुछ प्रत्यक्ष तो कुछ परोक्ष। लोक सभा के गठन में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की हिस्सेदारी 16.49 प्रतिशत है, तो महाराष्ट्र के मतदाताओं की 9.69 प्रतिशत। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल के मतदाताओं की भागीदारी 7.67, आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के मतदाताओं की 7.66, बिहार के मतदाताओं की 7.62, तमिलनाडु के मतदाताओं की 6.66, मध्य प्रदेश के मतदाताओं की 5.84, कर्नाटक के मतदाताओं की 5.49, राजस्थान के मतदाताओं की 5.22 और गुजरात के मतदाताओं की 4.89 प्रतिशत भागीदारी है। इस बात को गुणांकों के हिसाब से समझना चाहें तो दिल्ली के मतदाताओं का गुणांक जहां 0.83 है, वहीं अरु णाचल प्रदेश के मतदाताओं का गुणांक 4.38। गुणांक एक से कम होने का मतलब है कि लोक सभा में संबंधित राज्य के मतदाताओं का प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है और एक से ज्यादा होने का अर्थ यह कि उसे राष्ट्रीय औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व मिला हुआ है।
2009 से पहले लोक सभा क्षेत्रों का परिसीमन 1970 में हुआ था। तब हर चुनाव क्षेत्र में औसतन 12.8 लाख वोटर थे। लेकिन तब भी इसका अर्थ यह नहीं था कि हर सीट पर वोटरों की संख्या इस औसत के आसपास ही होगी। अलबत्ता, उक्त परिसीमन के बाद विभिन्न राज्यों में लोक सभा क्षेत्रों की संख्या को स्थिर कर दिया गया था। तर्क यह था कि जनसंख्या या वोटरों की संख्या के आधार पर सीटों की संख्या में फेरबदल बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा होगा। जो राज्य अपनी जनसंख्या के नियंतण्रमें आगे रहेंगे, उनकी सीटें कम करना एक तरह से उन्हें ‘दंडित’ करने जैसा हो जायेगा और इसका बहुत गलत संदेश जायेगा। नियमों के मुताबिक किसी भी लोक सभा क्षेत्र का फैलाव दो राज्यों में नहीं हो सकता, इस कारण भी कुछ राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के लोक सभा क्षेत्र मतदाताओं की संख्या के लिहाज से काफी छोटे हैं जबकि कई अन्य बहुत बड़े। परिसीमन में एक गड़बड़ यह भी हुई कि इसका ध्यान नहीं रखा गया कि कई बार राज्यों की जनसंख्या दूसरे राज्यों से आने वाले लोगों के कारण भी बढ़ती है। मसलन, दिल्ली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में देश के सबसे बड़े तीन महानगर हैं और उनकी जनसंख्या बढ़ती जाने का सबसे बड़ा कारण अन्य राज्यों से आने वाला जनप्रवाह ही है।
मतदाताओं की संख्या को आधार न बनाये जाने से हालत यह हो गई है कि कुछ राज्यों में मतदाताओं की संख्या के अनुपात में जितनी लोक सभा सीटें होनी चाहिए, नहीं हैं और इस कारण मतों के मूल्य की समानता स्थापित नहीं हो पा रही है। प्रत्येक लोक सभा सीट के मतदाताओं की संख्या के 2014 के राष्ट्रीय औसत 13.5 लाख को आधार बनाकर देश भर में लागू करें तो तमिलनाडु की कुल लोक सभा सीटें 39 से घटकर 31 हो जायेंगी, जबकि उत्तर प्रदेश की 80 सीटों से बढ़कर 88 होंगी।
इसी तरह, महाराष्ट्र की सीटें 48 से बढ़ाकर 55 करनी होंगी, कर्नाटक की 25 से बढ़ाकर 28, गुजरात की 26 से बढ़ाकर 28, छत्तीसगढ़ की 11 से बढ़ाकर 12 और दिल्ली की सात से बढ़ाकर आठ, जबकि पश्चिम बंगाल की 42 से घटाकर 40, केरल की 20 से घटाकर 17, असम की 14 से घटाकर 13, जम्मू-कश्मीर की छह से घटाकर 5, हरियाणा की 10 से घटाकर नौ, हिमाचल की चार से घटाकर तीन और उत्तराखंड की पांच से घटाकर चार। अलबत्ता, पंजाब और मध्य प्रदेश की सीटें फिर भी यथावत बनी रहेंगी। देश के लोकतंत्र की अच्छी सेहत के लिए जरूरी है कि मतों के मूल्यों में यह असमानता जितनी जल्दी संभव हो, खत्म कर दिया जाये। लेकिन इसकी उम्मीद भी भला कैसे की जाये, जब समानता जैसे पवित्र मूल्य को संविधान की पोथी में उसके हाल पर छोड़ कर हम तेजी से असमानता की पोषक नीतियों की ओर बढ़ते जा रहे हैं।
प्रसंगवश, अगर आप मतों के मूल्य में इस गड़बड़ की बाबत जानकर क्षुब्ध हो रहे हैं तो आपके लिए यह जानना भी जरूरी है कि देश के लोकतंत्र की यह विडम्बना इकलौती नहीं है। इधर, दि इरीटेटेड इंडियंस की ओर से एक मैसेज वायरल हो रहा है, जिसमें कहा गया है कि इस लोकतंत्र में राजनेता अपनी पसंद की दो सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन मतदाता अपनी पसंद की दो सीटों तो क्या एक ही सीट की दो जगहों पर भी वोट नहीं दे सकते। जो मतदाता जेल में हैं, वे वोट नहीं दे सकते, लेकिन नेता जेल में रहकर भी मजे से चुनाव लड़ सकते हैं। इतना ही नहीं, अगर आप कभी किसी एक मामले में भी जेल हो आए हैं तो कोई सरकारी नौकरी नहीं पा सकते, लेकिन नेता कितनी बार भी जेल हो आये हों, बड़े पद को भी सुशोभित कर सकते हैं। बैंक की साधारण सी नौकरी के अभ्यर्थी से भी ग्रेजुएट होने की अपेक्षा की जाती है लेकिन नेता अंगूठाटेक होने पर भी देश के वित्तमंत्री बन सकते है।
ऐसे में कोई तो बताए कि यह लोकतंत्र जनता का है या नेताओं का और क्या इसके सिस्टम को बदलने की जरूरत नहीं है? अगर है तो उसका मूहूर्त कब आयेगा?
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