मीडिया : पुलवामा के बाद मीडिया

Last Updated 03 Mar 2019 03:06:49 AM IST

हममें से जिन्होंने नोम चोम्स्की और एडर्वड एस. हर्मन की ‘मेनुफेक्चरिंग कंसेट’ नामक पुस्तक पढ़ी है, वे उसके बहुत से सूत्रों को अपने मास मीडिया में घटित होते देख सकते हैं।


मीडिया : पुलवामा के बाद मीडिया

2006 के अगले संस्करण में लेखकद्वय ने तुर्की की सत्ता और वहां मीडिया पर सत्ता के दबाव का अध्ययन कर बताया है कि वहां भी सत्ता की आलोचना को नियंत्रित करने के लिए नया दंड विधान ‘टर्किश पीनल कोड’ बनाया गया और ‘फतेह तास’ नाम के एक मीडिया हाउस पर देशद्रोह का इलजाम लगाकर उसका दमन किया गया।
यही नहीं, यह पुस्तक अमेरिकी मीडिया के उस बिजनेस मॉडल की भी पोल खोलती है, जो बड़े कॉरपोरेशनों के हित के लिए ‘जनमत’ को मनमाफिक  बनाया करता है। अमेरिका में दो तरह के कॉरपोरेशन हैं : एक उपभोक्ता वस्तुओं को बनाने वाले; दूसरे युद्ध का सामान बनाने वाले। दोनों ही मीडिया के कॉरपोरेशनों को नियंत्रित करते हैं। जनता के दिमाग को चारों ओर से घेरे रहते हैं, और जनमत को  मनोवैज्ञानिक तरीके से अपने हितों की ओर मोड़ते हैं। यह तथ्य तो प्रसिद्ध ही है कि इराक या अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध का प्रसारण समय विज्ञापनदाताओं के कहे से तय किया गया था। वे चाहते थे कि सारे  अमेरिका के डिनर के समय टीवी पर हमला शुरू किया जाए। यह युद्ध भी था, लेकिन उससे अधिक उसका ‘शो’ भी था। ल्ेकिन अपने मास मीडिया और अब सोशल मीडिया के रोल को देखते हुए कहा जा सकता है कि यहां का मीडिया नोम चोम्स्की के मीडिया मॉडल से बहुत आगे निकल गया है।
नोम चोम्स्की का मीडिया-मॉडल ‘कंसेट’ यानी ‘सहमति’ बनाने के बारे में बताता है, जबकि अपना मास मीडिया और इसके साथ सोशल मीडिया सीधे ‘युद्धोन्मादी’ और ‘अंधराष्ट्रवादी’ बनाने का काम करता है। बदला लेना है। मुंहतोड़ जवाब देना है।

पाकिस्तान कायर और कमजोर है, उसकी इकनॉमी हमारे आगे कुछ नहीं। उसे नेस्तनाबूद करना जरूरी है। ऐसा सुनते-सुनते हम भी उन्मादित हो जाते हैं।  ‘दुश्मन’ से दो-दो हाथ करने के नारे और युद्ध की खबरें सबसे अधिक उत्तेजित दर्शक बनाती हैं, और मास मीडिया में उसे एक ‘शो’ और एक ‘तमाशे’ में बदल कर पेश करती हैं, जिनमें मरने-जीने वालों को भी उत्तेजक तरीके से दिखाया जाता है ताकि आप यकीन कर सकें और आपके अंदर एकदम और अधिक पास से ‘प्रामाणिक युद्ध’ देखने की उत्तेजना जग जाए। बदला लेने के लिए जरूरी उत्तेजना बनाते वक्त टीवी में आने वाले विज्ञापनों के रेट बढ़ा दिए जाते हैं क्योंकि यह उत्तेजना दर्शकों की संख्या बढ़ाती है। इसीलिए लाइव युद्ध दिखाने वाले हमारे मीडिया में  विज्ञापनों की बरसात होने लगती है यानी मीडिया की सारी चीख-पुकार इस कमाई के लिए ही होती है। किसी देशभक्ति के लिए नहीं।
ध्यान दीजिए कि ये विज्ञापन उस बड़बोली वीरता के एकदम विपरीत होते हैं, जो हम दर्शकों पर बरसाई जाती है: उधर गोले चलने की बात की जाती है, इधर आपको सबसे बेहतरीन परफ्यूम फिफ्टी परसेंट बड़े डॉट्स वाला कंडोम, केश काला करने वाले शेंपू, महंगी कारें, बढ़िया-महंगे मकान, दवाइयां, बीमा पॉलिसी और ‘सस्ता नहीं सबसे अच्छा और मजबूत सीमेंट’ बेचा जाता रहता है। कुछ देर हमें युद्ध का उपभोग कराया जाता है, तो कुछ देर खुशबुओं का और कारों का। घर में सुरक्षित बैठे इस युद्ध के साथ हम शेंपू, कंडोम, कार आदि का आनंद लें, उधर सैनिक आपकी रक्षा करते रहेंगे। वे मारे जाएंगे तो हम उनको शहीद बना देंगे। हमारे यहां या कहीं भी आज तक उस ‘पीड़ा’ और ‘दुख’ की कोई बड़ी तस्वीर नहीं बनाई गई जो युद्ध में शहीद हुए लोगों के अनाथ परिवारों के दुखों से मिलकर बनती है। राष्ट्र पर प्राण न्योछावर करने वालों में मीडिया के एंकर नहीं होते। वे सिर्फ ‘भड़काने’ वाले होते हैं। पिछले पंद्रह दिनों से हमारे दो दर्जन समाचार चैनल दिन-रात युद्ध का माहौल बनाते रहे लेकिन टीवी स्टूडियोज में ताल ठोकती वीरता अचानक उस क्षण में फंसी जिस क्षण हमारे एक विंग कमांडर को पाक ने बंदी बना लिया। उसके बाद पाक ने विंग कमांडर अभिनंदन को लौटा भी दिया। मीडिया की नजरों में अभिनंदन तो हीरो बने लेकिन उन छह सैनिकों को वह एकदम भूूल गया जो हेलीकॉप्टर क्रेश में मारे गए थे।
जाहिर है, हमारा वीर मीडिया युद्ध बनाने से लेकर हीरो बनाने तक में सलेक्टिव है। इस युद्धोन्माद ने हमारे चले आते चुनावी नेरेटिव को एकदम बदल दिया। विपक्ष एकदम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया और उन्नीस का चुनाव ‘राष्ट्रवाद’ की ओर लुढ़क गया और,‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ बजने लगा।

सुधीश पचौरी


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