बतंगड़ बेतुक : तेरे पैर पड़ूं थम जा

Last Updated 03 Mar 2019 02:58:48 AM IST

मीडिया हाउसों के उछलबच्चों ने उसे धकिया कर, लात मारकर अपने समाचार कक्षों से बाहर निकाला था बाकी सब उजले धवल थे, आक्रोश में बल-बल थे, बस वही निरीह-बेचारा था और उसी का मुंह काला था।


बतंगड़ बेतुक : तेरे पैर पड़ूं थम जा

राजनीतिक अखाड़ों के पटेबाज उसे बहुत पहले ही बेदखल कर चुके थे, उसे अपनी पटेबाजी में सबसे बड़ा खलल मान उसे अपने सबसे बड़े शत्रु में बदल चुके थे। धर्म-मजहब के ठेकेदारों ने तो कभी उसे अपने पास फटकने तक नहीं दिया था, अपने कर्मो-कुकर्मो के गले में कभी उसे अटकने तक नहीं दिया था। उसके पास जो दो-चार कोने रह गये थे उन पर भी उन्माद ने कब्जा जमा लिया था और जो दो-चार उसके पक्ष में बोल सकते थे उनके मुंह पर मुछीका लगा दिया था। जनता तक पहुंचने की उसके पास जो दो-चार पगडंडियां बची थीं उन पर भी उन्माद ने पहरा बिठा दिया था, उसके हर संगी-साथी को औंधे मुंह गिरा दिया था।
उन्माद अपना मोटा सोटा लिए उसके पीछे पड़ा था और वह एक सहमे हुए कुत्ते की तरह दुम टांगों में दबाए इधर-उधर भाग रहा था, अपनी जान की भीख मांग रहा था। वह गिड़गिड़ाकर कह रहा था, ‘भाई, मुझे इस तरह मत मार, मैं इस देश का विवेक हूं। मेरे कपड़े इस तरह सरेआम मत उतार। मुझे जनता के पास रहने दे, मेरी बात तुझे जैसी लगती हो मगर कहने दे।’ उन्माद खौखियाया,‘अबे चुप, तू फालतू है, बेकार है। देश का गद्दार है। तू मेरे काम में जबर्दस्ती टांग अड़ाता है, मेरे विरुद्ध जनता को भड़काता है। तू देशभक्तों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है, देश की छाती का फोड़ा है..।’ विवेक बोला, ‘भाई, तू मुझे गलत समझ रहा है, मैं सही हूं मगर तुझे गलत लग रहा है, मेरी बात सुन..।’ उन्माद ने आंखें तरेरी, ‘चुप, तू जब भी जुबान खोलता है मेरे खिलाफ ही बोलता। अब तुझे मुंह नहीं लगाना है, अब मुझे अलख जगाना है, दुश्मनों से पहले तुझे देश से भगाना है।’ विवेक ने हाथ जोड़ लिए, ‘भाई, मैं देश का सचमुच भला चाहता हूं। मैं देश का पहरेदार हूं, जनता के दिमाग का चौकीदार हूं। मेरी बात पर ठंडे मन से विचार कर..।’ उन्माद गुर्राया, ‘अबे चुप, देश गुस्से से उबल रहा है और तू ठंडे मन का भजिया तल रहा है। तेरी बात कोई नहीं सुनेगा। अब यहां मैं  रहूंगा, तू नहीं रहेगा। तेरे रहते कुछ नहीं हो पाएगा, न दुश्मन मारा जाएगा न हमारा बदला पूरा हो पाएगा।’ विवेक शांत स्वर में बोला, ‘भाई, तू दुश्मन को मार, बदला भी ले पर इतना तो सोच तू मार किसे रहा है, बदला ले रहा है तो किससे ले रहा है?’ उन्माद बौखलाया, ‘चुप, तुझे तो बोलने देना ही मूर्खता करना है और मैं यह मूर्खता नहीं करूंगा। तुझे हमेशा के लिए चुप करूंगा, बदला लूंगा, पड़ोसी से लेकर रहूंगा।’

विनयावनत हो गया विवेक,‘भाई, पड़ोसी दुश्मन ने मुझे पहले ही बाहर का रास्ता दिखा दिया है। ऐसा करके उसने अपने आपसे बदला लिया है और देख उसने अपने आपको कहां पहुंचा दिया है। न वहां शांति है न सद्भाव, न उसकी कोई साख है न उसका कहीं प्रभाव। वह गर्दन तक अराजकता में गड़ा है, दुनिया के आगे कटोरा लिए खड़ा है। उसकी नकल मत कर, गुस्से में आपा मत खो, अपनों का नुकसान मत कर।’ उन्माद ने विवेक की गर्दन पकड़ ली, ‘तू मुझ पर शंका कर रहा है, इसीलिए अपनी मौत आप मर रहा है। नजर घुमा के देख, नेता और नौजवान, पिद्दी और पहलवान, पढ़े-लिखे सफेदपोश और अनपढ़-अनगढ़ किसान, आलीशान बगलों में रहने वाले और बेघर-बेमकान सब मेरे साथ खड़े हैं, सब बदले पर अड़े हैं। अकेला तू बड़ी बाधा है सो तुझे रास्ते से हटाएंगे, जो हमारे रास्ते में आएगा उसे मिटाएंगे।’ विवेक ने संयम के साथ कहा, ‘भाई, दुश्मन यही तो चाहता है कि लोग तेरे दबाव में दिमाग का संतुलन खो जाएं और आपस में एक-दूसरे से निपटने में लग जाएं। यह वक्त छाती ठोकने का नहीं अपनी भीतरी कमजोरियों से डरने का है, कमजोरियों से उबार कर देश को मजबूत करने का है। दुश्मन तेरी कमजोरियों का फायदा उठाता है, लोग ठीक से सोच-समझ न पायें इसलिए उन्हें तेरी गोद में ला बिठाता है।’ ‘अबे चुप बुड़बक’, उन्माद झुंझलाया, ‘तू देश की सबसे बड़ी कमजोरी है, तेरी सोच फालतू बातों की बोरी है। इसीलिए तुझे कायर, क्लीव बताया जा रहा है, तुझे हर तरफ से लतियाया जा रहा है। तू चुपचाप घर बैठ, हमारी भुजाओं को फड़कने दे, हमारे सीनों में बदले की आग भड़कने दे, युद्ध को तड़कने दे।’
विवेक ने आखिरी गुहार लगाई, ‘भाई, तू जिसे देशभक्ति समझ रहा है, वह देशभक्ति नहीं है, देशभक्ति का आडंबर है, मुखौटा है। यहां सब अपनी जाति की, धर्म की, स्वार्थ की, चुनावी जीत की, सत्ता की और धन की लड़ाई लड़ रहे हैं। सब भ्रष्टाचार की गोद में बैठे हैं। इन्होंने देश को खोखला कर दिया है। खोखला देश तेरा भार नहीं सह पाएगा, चरमरा जाएगा।’ उन्माद ने विवेक को लात मारी और दिग्विजय की ओर बढ़ चला। विवेक ने उसके पैर पकड़ लिए, ‘तेरे पैर पड़ूं भाई, थम जा, रुक जा।’

विभांशु दिव्याल


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