गठबंधन : गुड़ खाए और गुलगुलों..

Last Updated 15 Feb 2019 07:20:56 AM IST

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 16वीं लोक सभा के अपने आखिरी संबोधन में विपक्ष की आम चुनाव के लिए साथ आने की कोशिशों पर निशाना साधते हुए नया शब्द ही गढ़ डाला-मिलावटी गठबंधन।


गठबंधन : गुड़ खाए और गुलगुलों..

बेशक, यह कोई पहला मौका नहीं है जब प्रधानमंत्री ने विपक्ष की गठबंधन बनाने की कोशिशों पर हमला किया है। सत्ताधारी पार्टी और खुद प्रधानमंत्री भी ‘गठबंधन’ मात्र को लगातार हमलों का निशाना बनाए रहे हैं। हां! प्रधानमंत्री ने इन हमलों को अब ‘मिलावट’ और ‘मिलावटी’ तक जरूर पहुंचा दिया है। लेकिन यहां हम मौजूदा सत्ताधारियों के गठबंधन-विरोध के एक बड़े अंतर्विरोध से दो-चार होते हैं।
गठबंधन को ही कमजोरी, अस्थिरता आदि का पर्याय साबित करने में लगी रही भाजपा इसी दौर में खुद गठबंधन की सरकार चला रही थी। वास्तव में, खास तौर पर उत्तर-पूर्व में गठबंधनों के ही जरिए कई सरकारों तक पहुंच बनाने में कामयाब रही भाजपा एक समय पर तो पूरी 42 पार्टियों के साथ गठबंधन में रही थी। पार्टियों की इतनी बड़ी संख्या इससे पहले किसी और गठबंधन में शामिल रही हो, ऐसा याद नहीं पड़ता है। बहरहाल, इसे प्रचार का ही कमाल कहा जाएगा कि शायद अब तक का सबसे बड़ा गठबंधन बनाकर भी भाजपा और उसके नेतृत्ववाली सरकार, गठबंधन माने कमजोरी का समीकरण, अपने विरोधियों तक ही सीमित करने में काफी अरसे तक कामयाब रही है। बेशक, खुद गठबंधन चलाते हुए भी गठबंधन मात्र के तिरस्कार के प्रकट अंतर्विरोध को ढांपने के लिए सत्ताधारी भाजपा द्वारा बताने की कोशिशें की जाती रही हैं कि उसका गठबंधन विपक्ष जैसे गठबंधन से बुनियादी तौर पर अलग है। कि विपक्ष का ही गठबंधन कमजोरी आदि का सबूत है, जबकि उनका गठबंधन ताकत की मूर्ति आदि। इसके लिए दो र्तको का लागातार और एक तर्क का अवसरवादी तरीके से खूब सहारा लिया जाता रहा है।

पहला, उनका गठबंधन एक बहुत बड़ी पार्टी भाजपा के गिर्द छोटी-छोटी पार्टियों का गठबंधन है। लेकिन उनके मुकाबले खड़े किए जा रहे गठबंधन में कोई ऐसा भारी केंद्र ही नहीं है, और यह उसे प्रकृति से ही कमजोर तथा अस्थिर बना देता है। इसी से निकला दूसरा तर्क है कि हमारा नेता तय है, तुम्हारा नेता कौन है? और अवसरवादी तर्क यह है कि विपक्षी गठबंधन, एक-दूसरे की विरोधी पार्टियों का होने से अवसरवादी व कमजोर गठबंधन है, जबकि भाजपा के गिर्द बना गठबंधन समान विचार वाली पार्टियों का और इसलिए टिकाऊ गठबंधन है। लेकिन यह तर्क ज्यादा से ज्यादा शिवसेना के साथ भाजपा के गठबंधन के बारे में तो सच हो सकता है, अन्य पार्टियों के साथ उसके गठबंधन के बारे में नहीं। बहरहाल, अब जनता के बढ़ते मोहभंग तथा उसके चलते खुद सत्ताधारी गठबंधन, एनडीए से तेलुगू देशम, असम गण परिषद, रालोसपा, हम, गोरखा जन मुक्ति मोर्चा आदि कई पार्टियों के नाता तोड़ने के बाद चुनाव के लिए सत्ताधारी भाजपा को भी अपने गठबंधन होने की काफी याद आ रही है। दूसरी ओर, सत्ताधारी गठबंधन और मजबूती के उसके दावों की बुनियादी कमजोरी को उजागर करते हुए भाजपा की सहयोगी पार्टियों ने उसकी मजबूरी भांपकर दबाव बढ़ा दिया है।
सबसे पहले यह खेल बिहार में सार्वजनिक हुआ, जहां भाजपा को गठबंधन बनाए रखने के लिए अंतत: पिछले चुनाव की जीती सीटों से भी पांच कम सीटें लड़ने की कीमत पर गठबंधन के सहयोगियों को संतुष्ट करना पड़ा। इसके बावजूद पिछले चुनाव के उसके गठबंधन से दो पार्टियां छिटक चुकी हैं। उत्तर प्रदेश में भी ‘छोटी’ सहयोगी पार्टियों के साथ सार्वजनिक रूप से ऐसी ही रस्साकशी चल रही है। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा की सार्वजनिक कलह तो उस मुकाम पर है, जहां इस पर सिर्फ अटकलें ही लगाई जा सकती हैं कि आगे गठबंधन रहेगा भी या नहीं? दूसरी ओर, तमिलनाडु व उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा जोर-शोर से सहयोगी खोजने में लगी है। जाहिर है कि यह भारत की जबर्दस्त विविधता की बुनियादी सचाई ही है, जिसे भाजपा को न चाहते हुए भी स्वीकार करना पड़ रहा है। यह बुनियादी सचाई, राजनीतिक प्रतिनिधित्व की भी विविधता का तकाजा करती है, और एक गठबंधन ही उसकी बेहतर जनतांत्रिक अभिव्यक्ति हो सकता है, न कि एकदलीय शासन। बेशक, आजादी की राष्ट्रीय लड़ाई की परंपरा से निकली कांग्रेस इसी लड़ाई से निकले लक्ष्यों को हासिल करने की उम्मीदों के बल पर आजादी के बाद के पहले दो दशकों तक अकेले सत्ता में बनी रही थी। लेकिन एक तो आजादी के फौरन बाद यह पार्टी खुद एक तरह के गठबंधन का ही प्रतिनिधित्व करती थी। दूसरे, आजादी की लड़ाई की उम्मीदें पीछे हटने के  साथ वैसी एकदलीय सत्ता की जनतांत्रिक वैधता घटती गई। इसी पृष्ठभूमि में साठ के दशक के उत्तरार्ध में पहली बार सत्ता पर कांग्रेस का एकाधिकार देश के बड़े हिस्से में टूटा और अस्सी के दशक के उत्तरार्ध से भारत में बाकायदा गठबंधन सरकारों का दौर शुरू  हो गया जो अब भी जारी है।
यूपीए-प्रथम व  द्वितीय की दिशा और नियती का अंतर दिखाता है कि भारत में गठबंधन सिर्फ जरूरी ही नहीं है, जनतंत्र के लिए बेहतर भी है। अचरज नहीं कि संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्र भारत के शासन की कल्पना राज्यों के संघ के रूप में की है, न कि एकात्मक शासन के रूप में। स्वभाव से एकात्मक  शासन के पक्षधर संघ-भाजपा, आजादी के फौरन बाद के दशकों की कांग्रेस का बदल बनकर, गठबंधन की जरूरत को ही खत्म करने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन पिछले पांच साल साबित करते हैं कि ऐसा होने वाला नहीं है। वजह है कि भाजपा का हिंदुत्व का आदर्श भारत की समृद्ध धार्मिक विविधता को ही नहीं, क्षेत्रीय सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता को भी समेटने में असमर्थ है। ऐसे में भाजपा, मजबूरी में गठबंधन का सहारे लेते हुए भी, सारत: एकदलीय और वास्तव में एक नेता की ही सरकार चलाती रही है। यह गठबंधन से विविधता की अभिव्यक्ति को निकाल कर उसे अलोकतांत्रिक अवसरवादी गठजोड़ में बदल देती है। भाजपा ने साझा कार्यक्रम के बिना पांच साल गठबंधन की सरकार चलाई जरूर लेकिन चुनाव की पूर्व-संध्या में उसका गठबंधन बिखरता नजर आ रहा है। भाजपा का ही गठबंधन, जो सिर्फ सत्ता लोभ के सहारे टिका है, और इसलिए बुनियादी तौर अस्थिर गठबंधन है वरना ईमानदार गठबंधन ही भारत के जनतांत्रिक मिजाज के  ज्यादा अनुकूल पड़ता है।

राजेंद्र शर्मा


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